Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 234
________________ - - दशवकालिक सूत्र मन, वचन और काय को एकवाक्यता संपनी जीवन का एक आवश्यक अंग है। [श सच्चे समाधिवंत पुरुषों को इन्द्रियों सहित इस आत्मा को असन्मार्ग (कुमार्ग)में जानेले रोक लेना चाहिये क्योंकि यदि पारमा अरक्षित ( अवश ) हो जायगी तो जन्म जरामरणरूपी संसार में उसे चूमना पडेगा और यदि वशमें होगी तो वह सब दुःखों से डूंट कर मुक्ति प्राप्त कर सकेगी। टिप्पणी-शासन के नियमों के प्राचीर न रहकर अकेले विचरण कारने अथवा गुरुकुलपात छोडकर एकाकी फिरने को विविक्षवर्या नहीं कहते और न यह एकच ही हैं। यह तो केवल अनेसांतच हो है। जित एकवर्या में वृत्ति को पराधीनता एवं वचन्द का अतिरेक हो वसी एकचर्या से त्यागना विकास होने के बदले दुराचार हो को बुद्धि होने की संभावना है। आत्मा द्वारा आत्मा के फपो का प्रदालन. अपनी ही शक्ति से विपत्तियों का विदारण और अपने को अपनाही अवलंपन बनाकर एकांत भालदमन करना ही आदर्श एकांत चर्या हैं । आत्मरक्षा का प्रदल उपासक या वत्सायन ऐती एकांत चर्चा का . पास्तविक रहत्य सनमार इन्द्रियों को जालता और मन के दुश्वेगळे आधीन न होकर अपना केवल एक ही लक्ष्य रखता है और वीतराग भावको परा.....रया को प्राप्त होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है और यही संयम तथा . सगना फल है। . ऐसा मैं कहता है- ' इस प्रकार- विविक चर्या' नामक दूसरी चूलिका समाप्त हुई।

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