Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 229
________________ विविक्त सया... . .. . ... ....:: - - और उसके द्वारा संयम एवं चित्त समाधि की आराधना करनी चाहिये और बादमें त्यागी पुरुषों की जो चर्या, गुण, एवं नियम हैं उनको जानकर तदनुसार आचरण करना चाहिये। टिप्पणी-संयमी जीवन बिताने का नाम 'चर्या ' है । मूलगुण तथा उत्तर गुणों की सिद्धि को 'गुण' कहा है और नियम शब्द से भिक्षादि के नियमों की तरफ इशारा किया है। इन सबके स्वरूप को जानकर उनको भाचार परिणत करने के लिये साधक को तैयार होना चाहिये। विशेष स्पष्टीकरण [श (१) अनियतवास (किसी भी नियत गृह अथवा स्थान को स्थायी निवास स्थान न बनाकर पृथ्वीमें सर्वत्र विचरंगा),. (6) समुदान चर्या (जुदे २ घरों से भिक्षा प्राप्त करना), (३) अज्ञातोन्छ (अपरिचित गृहस्यों के घरों मेंसे बहुत थोडी'२ मिक्षा लेना), (५) एकांत का स्थान (जहां संयम. की वाधक कोई वस्तु न हो), (२) प्रतिरिकता:-जीवन की आवश्यकतानुसार अल्पातिअल्प साधन रखना और (६) कलह का त्याग-इन छ प्रकारों से युक्त विहार चर्या की महपियोंने प्रशंसा की हैं। सुज्ञ मितु इनका पालन करे। [६] जिस स्थान पर मनुष्यों का कोलाहल होता हो अथवा साधु जनों का अपमान होता हो। उस स्थानको साधु छोड देवे ।। कोई गृहस्थ दूसरे घरमैसे लाकर यदि साधुको श्राहार पानी दे तो उसको साधु ग्रहण न करे। वह वही भोजन ग्रहण करे जिसे उसने अच्छी तरह देखलिया हो । दाता जिस हाथ अथवा चमचेसे भोजन लाया हो उस भोजन को ग्रहण करने में साधु उपयोग (ध्यान) रक्खे ।

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