Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ विविक्त चर्या १८३ यही प्रवाह गति दिखाई देती है । जन्मते लेकर मृत्युतक की सभी अवस्थाओं-सभी कार्योमें भी यही बात देखी जा सकती है। किन्तु मानवसमाज में ही एक ऐसा विलक्षण वर्ग होता है जो बुद्धि पर पड़े हुए आवरणों को दूर कर देता है । जिसके अन्तचतु उघड जाते हैं, जिसके प्रानों में चेतनाशक्तिकी सनसनाहट फैल गई है और वह अपने कष्टप्रद भविष्यको स्पष्ट देखसकता है और इसीलिये वह अपने वीर्य का उपयोग उसप्रवाह में बहते जाने के बदले अपनी जीवननौका की दिशा बदलने में करता है । वह अपना श्वेय निश्चित करता है। और वहां पहुंचने में आनेवाले सैकड़ों संकटों को दूर करने के लिये शस्त्रसजित शूरवीर और धीर लडवैये का वाना धारण करता है। संसार के दूसरे शूरवीर अपनी शकि मावा संपत्ति के रक्षण के लिये वाह्य संग्रामों में खर्च करते हैं किन्तु यह योद्धा उस वस्तुकी उपेक्षाकर आत्मसंग्राम करनाही विशेष पसंद करता है । यही उसकी दूसरों से भिन्नता है । यह मिन्नचर्या ही उसकी विविक्त चर्या है। गुरुदेव बोले :(एकांत चर्या अर्थात् विश्वके सामान्य प्रवाह से अपनी आत्मा को बचा लेना । उस चर्या के लाभ तथा उद्देश्यों का निदर्शन इस अध्ययन में किया है) [२] सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्ररूपित तथा गुरुमुखसे सुनी हुई इस (दूसरी) चूलिका को मैं तुमसे कहता हूं जिस चूलिका को सुनकर सद्गुणी सज्जन पुरुषों की बुद्धि शीघ्रही धर्म की तरफ आकृष्ट हो जाती है। इस प्रकार सुधर्म स्वामीने जम्बू स्वामीको लक्ष्य करके कहा था वही उपदेश शय्यंभव गुरु अपने भनक नामके शिष्यको कहते हैं। .

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237