Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 226
________________ विविक्त चर्या (0) 1. ( एकांत चर्या ) L १२ इस संसार के प्रवाह में अनंत कालसे परिभ्रमण करती हुई यह आत्मा अनन्त संस्कारों को स्पर्श कर चुकी है और उन्हें भोग भी चुकी है फिर भी अभीतक वह अपने भाव में नहीं आई और न अपने स्वरूप से च्युत ही हुई है । अब भी उसके लक्षण वे के वेही बने हुए हैं । दूसरे तत्त्वों के साथ निरंतर मिले रहने पर भी अब भी वह एक ही है, अद्वितीय है । इस चेतना शक्ति का स्वामी ही वह एक आत्मा है, वही चैतन्यपुंज है और उसीकी शोध के पीछे पडजाना इसीका नाम है विविक्त चर्या - एकांत चर्या । विश्वका प्राणीसमूह जिसप्रवाह में बह रहा है उसप्रवाह में विवेक बिना बहते जाना यह भी एकांत चर्या है । इसप्रकार के बहते जाने में विज्ञान, बुद्धि, हार्दिक शक्ति, अथवा 'जागृति की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । अंधे भी उस प्रवाह में आसानी से बहते जा सकते हैं; हृदयहीन मनुष्य भी उसके सहारे अपना वेडा हांक सकते है । सारांश यह है कि एक क्षुद्र जंतु से लेकर मानवजीवन की उच्चतर भूमिका तक की सभी श्रेणियों के जीवों की सामान्य रूपमें "

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