Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 195
________________ विनयसमाधि १५१ २ निर्धन होने पर भी सुखी एवं सम्मानित दिखाई देते हैं । इसमें उनकी आत्मशुद्धिकी होनाधिकता ही कारण है । [१२] जो साधक अपने गुरु तथा विद्यागुरुकी सेवा करते हैं और उनकी आज्ञानुसार आचरण करते हैं उनका ज्ञान, प्रतिदिन पानी से सींचे हुए पौदेकी तरह, हमेशा बढता जाता है । टिप्पणी-सत्पुरूषों की प्रत्येक क्रियामें सद्बोधका भंडार भरा रहता है । उनके आसपासका वातावरण ही इतना पवित्र होता है कि जिज्ञासु एवं सत्य- शोधक साधक जीवनकी अगम्य गुत्थियोंको सहज हो में सुलझा लेता है । [ १३४१४ ] ( गुरुकी विनयकी क्या आवश्यकता है ? ) गृहस्थ लोग अपनी आजीविका के लिये अथवा दूसरों (रिश्तेदारों आदि) के भरणपोषण के लिये केवल लौकिक सुखोपभोगके लिये कलाके आचार्यों से उस कलाको सीखते हैं और फिर उनके पास अनेक राजपुत्र, श्रीमंतों के पुत्र श्रादि बहुतसे लड़के उस विद्याको सीखने के लिये आकर वध, बंधन, मार, तथा अन्य दारुण कष्ट सहते हैं । [ [ १२x१६ ] ऐसी केवल बाह्य जीवनके भरणपोषणकी शिक्षाके लिये भी उक्त राजकुमार तथा श्रीमंतों के पुत्र उपर्युक्त प्रकार के कष्ट सहन करते हैं तथा उन कलाचार्यकी सेवा करते हैं, और प्रसन्नतापूर्वक उसके आज्ञाधीन रहते हैं तो फिर जो मोतका परम पिपासु मुमु साधक है वह सच्चा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये क्या क्या न करेगा ? इसीलिये महापुरुषोंने कहा है कि उपकारी गुरु जो कुछ भी हितकारी वचन कहें उसका भिक्षु कभी भी उल्लंघन न करे । टिप्पणी- जैन दर्शनमें गुरुआशाका बहुत ही अधिक माहात्म्य बताया है - यहां तक कि गुरुआशा पालनमें ही सब धर्म बता दियां है। साथ ही साथ

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