Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 222
________________ दशवालिक सूत्र हुए मुम्म पतित मिका महानरकयातना सदृश गृहस्याभ्रम कहां! टिपणी-पतित हुए का जीवन इतना पामर हो जाता है कि वह गृहत्याधन के आदर्शधर्म को आराधने योग्य नहीं रहता और उसके हृदय, साधु जीवन की शांति सदैव याद आया करती है जिससे उसका गृहस्थाश्रम नरकवास जैन कलर होजाता है। . [१] (यहीपुरुप अब संयम से विरक साधुको समनाते हैं ) त्याग मार्ग में संलग्न महापुरुषों का देवेन्द्र के समान उत्तम सुख और सागमार्ग से अट हुए पतित साधुका अत्यन्त नारकीय दुःखीजीवन, इन दोनों की तुलना करके पंडित साधुको त्याग मार्गमें ही आनंद पूर्वक रहना. उचित है। टिप्पणी-त्याग द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक सुख वस्तुतः अनुपम है उत्तकी तुलद तो स्वर्गीय मुलके तापमी नहीं की जा सकती। किन्तु यहां प्रसंगक्त बैसे मनुष्य जोपन की अपेक्षा देवजीवन उत्कृष्ट हो उसीतरह गृहस्थजीवन की ओता त्यागोजीवन उत्कृष्ट हैं और जिसतरह मानवजीवन को अपेक्षा नरकजीवन निस्ष्ट है उतीवरह आदर्श जीवन की अपेक्षा पतित गृह-. जीवन निट है इतना बताने के लिये ही उजर को उपमा दी गई है। [१२] धर्मले भ्रष्ट तथा आध्यात्मिक संपत्तिसे पतित दुर्विदग्ध मुनिका . शांत बुझो हुई यज्ञानि की तरह एवं विपके दांत टूटे हुए महा विषधर सर्प की तरह, दुराचारी भी अपमान करने लगते हैं। . . . टिप्पणी-सांपका विषका दांत छू जानेपर चालक भी उसको सताने .. तमो है, यानी अनि यद्यपि पवित्र मानी जाती है फिर भी उसका तेज . नष्ट हो जाने पर उसको कुछ भी कीमत नहीं रहती, इस शरीरमें से माना निकल जाने पर इस देह की कौडी जितनी भी कीमत नहीं रहती

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