Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 203
________________ thood her af विनयसमाषि १३ वह मैने सुना है। उन स्थविर (प्रौढ़ अनुभवी) भगवानने विनय समाधि स्थान बतायें हैं । शिष्य :- भगवन् ! उन स्थविर भगवानने किन चार स्थानोंका वर्णन किया है ? गुरुः :- उन स्थविर भगवानने विनय समाधिके इन ४ स्थानोंका वर्णन किया है: (1) विनय समाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपसमाधि और (४) श्राचार समाधि 1 [2] जो जितेन्द्रिय संयमी हमेशा अपनी श्रात्माको विनयं समाधि, श्रुतसमाधि, तर्पसमाधि और आचार समाधिमें लगाये रहता है वही सच्चा पंडित है । उस विनय समाधिके भी ये चार भेद हैं: (१) जिस गुरुसे विद्या सीखी हो उस गुरु को परम उपकारी जानकर उनकी सदा सेवा करना; (२) उनके निकट रहकर उनकी परिचर्या अथवा (विनय) करना; (३) गुरुकी श्राज्ञाका अक्षरश: पालन करना; और ( ४ ) विनयी होने पर भी अहंकारी न बनना इन सबमें से अंतिम चौथा भेद बहुत ही मुख्य है । उसके लिये अगले सूत्रमें कहते हैं: [२] मोक्षार्थी साधक हितशिक्षाकी सदैव इच्छा करे; उपकारी गुरुकी सेवा करे, गुरुके समीप रहकर उनकी श्राज्ञाओंका यथार्थ रीतिसे पालन करे, और विनयी होनेका अभिमान न करे वही साधक fare समाधिका सच्चा श्राराधक है । गुरुदेव बोले: आयुष्मन् ! श्रुत समाधिके भी चार भेद हैं जिनको मैंने इंस प्रकार सुना है: (१) 'अभ्यास करने से ही मुझे सूत्रसिद्धांत का पक्की १२

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