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विनयसमाधि
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ऐसा मैं कहता हूँ
( इस प्रकार सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीको कहा था ) " विनय समाधि' नामक अध्ययनका प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ ।
इस प्रकार
दूसरा उद्देशक
जिस तरह वृक्षमें सर्व प्रथम नड, उसके बाद तना, फिर शाखा प्रतिशाखा, पुष्प, फल तथा रस इस प्रकार क्रमशः वृद्धि होती है उसी तरह अध्यात्म विकासक्रमकी भी क्रमानुसार ऐसी ही श्रेणियां हैं ।
यदि कोई मूल रहित वृक्ष अथवा नींव सिवायका घर बनाना चाहे तो वह निश्चयसे वैसा वृक्ष उगा नहीं सकता ( फलकी तो बातही क्या है ? ) अथवा वैसा घर वह बांध नहीं सकता। इसी प्रकार जो कोई साधक विनय रूपी मूलका यथार्थ सेवन किये बिना धर्मवृत चोता है वह साधक मुक्ति रूपी सफलता कभी नहीं प्राप्त कर सकता ।
गुरुदेव वोले :
[१] जिस प्रकार मूलसे वृत्तका तना, तनेमें से शाखा, शाखा से प्रतिशाखाएं, शाखा - प्रतिशाखाओं में से पसे उत्पन्न होते हैं और यादमें उस वृक्षमें फूल, फल और मीठा रस क्रमशः पैदा होते हैं ।
[२] उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्षका मूल विनय है और उसका अंतिम परिणाम ( अर्थात् रस ) मोक्ष है । उस विनयरूपी मूलद्वारा विनयवानं शिष्य इस लोकमें कीति धौर ज्ञानको प्राप्त होता है' और महापुरुषों द्वारा परम प्रशंसा प्राप्त करता है और क्रमशः अपना श्रात्मविकास करते हुए अन्तमें निःश्रेयस (परम कल्याण ) रूपी मोत को भी प्राप्त होता है ।