Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 180
________________ १३६ दशवकालिक सूत्र कारी रखता हो तो वह उसको गृहस्थजनों से न कहे क्यों कि उसके ऐसा करने से अनेक अनर्थ होने की संभावना है। [१२] (मुनि कैसे स्थानोंमें रहे उसका वर्णन करते हैं) गृहस्थों द्वारा अपने निमित्त बनाये गये स्थानों, शय्या, तथा श्रासनको मुनि उपयोगमें ला सकता है परन्तु वह स्थान स्त्री, पशु (तथा नपुंसक) से रहित होना चाहिये तथा मूत्रादि शरीर बाधाओं को दूर किया जा सके ऐसे स्थानसे युक्त होना चाहिये। [१३] उस स्थानमें साधु एकाकी (संगीसाथी न हो) हो तब वह स्त्रियों के साथ वार्तालाप अथवा गप्पेसप्पें न मारे। वहां रहते हुए किसी गृहस्थ के साथ प्रति परिचय न करे किन्तु यथाशक्य साधुजनों के साथ ही परिचय रक्खे। टिप्पणी-एकांतमें एकाकी वी के साथ वार्तालाप करने से दूसरों को शंका होनेका डर है और गृहस्थके साथ अति परिचय करने से रागवंधन को संभावना है, इसीलिये साधुको लियों अथवा पुरुषों के साथ केवल व्यवहारोपयुक्त संबंध ही रखना चाहिये। [१५] जैसे मुर्गीक बच्चे को विल्लीका सदैव भय लगा रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी साधक को स्त्री के शरीर से भय रहता है। टिप्पणी-यह कथन ऊपर २ से तो एकांतवाची जैसा मालूम होता है किन्तु वारीक दृष्टिले विचार करने से इसकी वास्तविकता अक्षरशः विदित हो जाती है। 'स्त्री शरीरका भय रक्खो' इसका आशय भी यही है कि स्त्रीपरिचय न करो। ली जातिके प्रति पुरुषको अथवा पुरुष जातिके प्रति त्रियों को घृणा पैदा करनेका आशय यहां नहीं है। किन्तु वस्तुस्वरूपको प्रकट करने तथा ब्रह्मचर्य के साधक या साधिका को किस हद तक जागृत रहना चाहिये वही ग्रंथकार यहां बताना चाहते हैं। . [२] शृंगारपूर्ण चित्रोंसे सजित दीवालको (उन चित्रों पर एक टक दृष्टि लगाकर) न देखे किंवा तत्संबंधी चिन्तन न करे। साधू -३ .

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