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पड् जीवनिका
' टिप्पणी-प्रमाद ही पाप है, अविवेक ही पाप है और उपयोग ही धर्म है विवेक ही धर्म है, बस इतना ध्यानमें रखकर जो साधक आचरण करता है वही साधक अध्यात्म मार्ग का सचा अधिकारी है और वही शान, विशन, संयम वैराग्य, त्याग, को प्राप्त होकर क्रम २ से कर्मों का नाश करता हुआ अन्तमें संपूर्ण शान एवं दर्शन की सिद्धि करता है और वही रागद्वेष से सर्वथा मुक्त अडोल योगी होकर साध्यसिद्ध, बुद्ध और भवबंधन से सर्वथा मुक्त परमात्मा हो जाता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'षड्जीवनिका' नामक चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण हुआ।