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दशवैकालिक सूत्र
[६] संयमी भिनु ठंडा पानी, पालेका पानी, सचित्त वर्फका पानी न पिये किन्तु अग्निसे खूब तपाये हुए तथा धोवन का निर्जीव पानी ही ग्रहण करे और उपयोग में ले ।
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टिप्पणी-चौघे अध्यायमें पहिले यह कहा जा चुका है कि पानी में उसके प्रकृतिविरुद्ध पदार्थ को मिल जाने से वह निर्जीव (प्रासुक) हो जाता है । इस कारण यदि ठंडे पानी में गुड, आटा अथवा ऐसी हीं कोई दूसरी चीज पडी हो तो वह ठंडा पानी भी ( अमुक मुद्दत बीतने पर ) प्रासुक हो जाता है। ऐसा प्रासुक पानी यदि अपनी प्रकृति के अनुकूल हों किन्तु अग्नि तथा न हो तो भी, भिक्षु उसको ग्रहण कर सकता है 1
[७] संयमी मुनि उसका शरीर कारणवशात् सचित्त जलसे भीग गया हो तो उसे वस्त्रसे न पोंछे और न अपने हाथोंसे देह को मले किन्तु जलकायिक जीवोंकी रक्षामें दत्तचित्त होकर अपने शरीर को स्पर्श भी न करे ।
टिप्पणी-मलशंका दूर करने (टट्टी जाने) के लिये नगर बाहर जाते समय यदि कदाचित वरसात पडने से मुनिका शरीर भीग जाय तो उस समय साधु क्या करे उसका समाधान उक्त गाथामें किया गया है | अन्यथा वरसाद पडते समय उपर्युक्त कारण सिवाय मुनिको स्थानकके बाहर जाना निषिद्ध है ।
[7] मुनि जलते हुए अंगारे को, श्रागको अथवा चिनगारी को, जलते हुए काष्ठ धादि को सुलगावे नहीं, हिलावे नहीं और बुझावे भी नहीं ।
[1] और ताड़के वीजने से, पंखेसे, वृक्षकी शाखा हिलाकर अथवा वस्त्र आदि अन्य वस्तु हिलाकर अपने शरीर पर दवा न करे अथवा गर्म श्राहारादि वस्तुओं को ठंडी करने के लिये उनपर हवा न करे ।