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आचारप्रणिधि
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टिप्पणी-रात्रिभोजन का निषेध वौद्ध तथा प्राचीनं वेद धर्ममें भी है। - वैधक तथा शरीररचना की दृष्टिसे भो रात्रिभोजन वर्ण्य है। [२६] संयमी गुस्सासे शब्दोंकी भर्त्सना न करे तथा अचपल (चप
लता रहित), परिमित श्राहार करनेवाला, अल्पभापी (थोडा बोलनेवाला) तथा भोजन करनेमें दमितेन्द्रिय (इन्द्रियोंको दमन करनेवाला) बने। यदि कदाचित् दाता थोडा आहार दे तो उस
थोडे आहार को प्राप्त कर दाताकी निंदा न करे। [३०] साधु किसी भी व्यक्तिका न तो तिरस्कार ही करे और न
श्रात्मप्रशंसा ही करे। शास्त्रज्ञान अथवा अन्य गुण, तपश्चर्या द्वारा उच्च रिद्धिसिद्धि अथवा उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होने पर वह उनका
अभिमान न करे। [३१] ज्ञात अथवा अज्ञात भावसे यदि कभी कोई अधार्मिक क्रिया
(धर्मिष्ठ साधक के अयोग्य आचरण) हो जाय तो साधु उसको छुपाने की चेष्टा न करे किंतु प्रायश्चित्त द्वारा अपनी आत्मासे उस पापको दूर कर निर्मल बने और भविष्यमें वैसी भूल फिर कभी न होने पावे उसके लिये सावधान रहे।
टिप्पणी-यावन्मात्र साधकोंसे भूल हो सकती है। भूल कर बैठना मनुष्य 'मात्रका स्वभाव है, भले ही वह मुनि हो या हो श्रावक। किंतु भूलको भूल मानलेना यही सज्जन का लक्षण है। छोटी 'बडी कैसी भी भल क्यों न हो, उसके निवारण के लिये तत्क्षण प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये। वैसी भल फिर कभी न होने पावे यही प्रायश्चित्त की सच्ची कसौटी है। वारंवार प्रायश्चित्त लेने पर भी यदि भूल होती रहा करे तो समझ लेना चाहिये कि यातो शुद्ध प्रायश्चित्त नहीं हुआ अथवा वह प्रायश्चित ही उस भल के योग्य नहीं है, अर्थात् भूल बडी है और प्रायश्चित्त छोटा है। [३२] जितेन्द्रिय, अनासक्त · तथा शुद्ध अन्तःकरणवाला साधकसे यदि
भूलसे अंनाचार का सेवन हो गया हो तो उसे छुपा न रक्खें