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थन से भी चूलिकाए पीछे से प्रक्षिप्त होने के अनुमान की पुष्टि होती है । x
इस ग्रंथ में वर्णित तख
इसके प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा और साधु जीवन की भ्रमर के साथ तुलना बहुत ही सुन्दर शब्दों में की गई है ।
दूसरा अध्ययन मनोभावनापूर्ण एक प्राचीन दृष्टान्त के कारण बहुत ही उपयोगी है।
तीसरे अध्ययन में साधुजीवन के नियमों एवं आचरण विषयक स्पष्टीकरण है । चोथे अध्ययन में, जैनधर्म के सिद्धान्तों, दुनियांके जीवों के जीवन, और श्रमण जीवन के मूलव्रतोंका अच्छा वर्णन किया है ।
पांचवें अध्ययन में भिक्षा संबंधी समस्त क्रियाओं एवं ग्राह्यग्राह्यवस्तुओंका वर्णन किया है । इस अध्ययन में आये हुए शिक्षापद कुन्दनमें जडे हुए हीरों के समान जगमगा रहे हैं ।
छट्टे और आठवें अध्ययन में १८ स्थानोंका वर्णन कर साधुजीवन के नियमोपनियमों का विस्तृत स्पष्टीकरण किया है।
सातवें अध्ययनमें भाषाशिक्षा, नौवें अध्ययन में गुरुभक्तिका माहात्म्य और दशवें अध्ययनमें आदर्श साधु की व्याख्या बडे ही भावपूर्ण शब्दो में दी है । प्रत्येक अध्ययन वाचक के हृदयपट पर अपने २ विषय की गहरी छाप डालता है I
X चूलिकाओं के संबंध में परंपरा के अनुसार एक विचित्र सी मान्यता चली आती है किन्तु उसकी सत्यता बुद्धिगम्य न होने के कारण उसका यहां उल्लेख नहीं किया है ।
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