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दशवैकालिक सूत्र
उस संयम की प्राप्ति होने के बाद ही त्याग की भूमिका तैयार होती है। जब वह साधक प्रत्येक पदार्थ की उपरते अपने स्वामित्व भाव को छोड देता है और जब वह अपने जीवन को फूल जैसा हलका बना लेता है तभी उसको जैन श्रमण को योग्यता प्राप्त होती है ।
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वैसी योग्यता प्राप्त होने के बाद वह स्वयं किसी पीट, मेधावी. तमयज्ञ एवं समभावी गुरुको ढूंढ लेता है तथा श्रमणभावकी आराधना के लिये गृहस्थका स्वांग छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर लेता है और श्रमणकुल में प्रविष्ट होता है ।
श्रमणकुल में प्रविष्ट होने के पहिले गुरुदेव शिष्यके मानस (हृदय) की संपूर्ण चिकित्सा करते है और साधक की योग्यता देखकर त्यागधर्म की जवाबदारी ( उत्तरदायित्वं ) का उते भान कराते हैं । उसे श्रमणधर्मका बोध पूर्ण यथार्थ रहत्य समझाकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, तथा अपरिग्रह - इन पांचों महाव्रतों के संपूर्ण पालन तथा - रात्रिभोजन के सर्वथा त्याग की कठिन प्रतिज्ञायें लिवाते है । इन प्रतिज्ञाओं का उसे आजीवन पालन करना पडता है । वह आत्मार्थी साधक भी विवेकपूर्वक प्रतिज्ञाओं को स्वीकार करता है और उसके बाद अपने संयमी जीवन को निभाते हुए भी पृथ्वी से लेकर वनस्पति काय तकके स्थिर जीवों, छोटे बड़े चर जन्तुओं तथा अन्य प्राणियों की रक्षा कैसे करता है इसका सविस्तर वर्णन इस अध्ययन में किया है ।
गुरुदेव बोले :- ..
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सुधर्म स्वामीने अपने सुशिष्य जम्बूस्वामी को लक्ष्य कर यह सुना है कि षड्जीवनिका नामक गोत्रीय श्रमण तपस्वी भगवान उन प्रभुने इस लोक में उस
कहा धाः-हे आयुष्मन् जंबू ! मैंने एक अध्ययन है, उसे काश्यप महावीरने कहा है । सचमुच ही
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