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शिष्यः - हे गुरुदेव ! चौथे महाव्रत में क्या करना होता है ?
गुरुः- हे भट्ट ! चौथे महाव्रत में मैथुन ( व्यभिचार ) का सर्वथा त्याग करना पडता है |
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं मैथुनका सर्वथा त्याग करता हूं ।
गुरुः- देव संबंधी, मनुष्य संबंधी या तियंच संबंधी इन तीनों जातियों में किसी के भी साथ स्वयं मैथुन नहीं करना चाहिये, दूसरों द्वारा मैथुन सेवना कराना न चाहिये और न मैथुन सेवन की अनुमोदना ही करनी चाहिये ।
शिष्यः- हे पूज्य ! मैं जीवन पर्यन्त उक्त तीनों करणों तथा तीनों योगोंसे मैथुन सेवन नहीं करूंगा, न कभी दूसरे के द्वारा कराऊंगा और न कभी किसी मैथुनसेवी की अनुमोदना ही करूंगा तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी श्रात्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं । श्रापके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी श्रात्माको सर्वथा विरक्त करता हूं ॥ ४ ॥
टिप्पणी- साध्वी तथा साधु इन दोनों को अपनी २ जातिके अनुसार उपरोक्त प्रकार के प्रत्याख्यान कर पालने चाहिये ।
शिष्यः - हे भगवन् ! पांचवें महाव्रतमें क्या करना होता है ? गुरुः- हे भद्र ! पांचवें महाव्रतमें परिग्रह ( यावन्मात्र पदार्थों के ऊपरसे' श्रासक्ति भाव ) का त्याग करना पडता है ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं सर्वथा परिग्रह का त्याग करता हूं ।
कौडी श्रादि तथा
गुरुः- परिग्रह थोडा हो या बहुत ( थोडी कीमत का हो या अधिक कीमत का श्रथवा जो रत्तीसे भी हलका वजनमें भारी तथा मूल्यमें कम काष्ठादि द्रव्य), छोटा हो या बढा ( वजन थोडा किन्तु मूल्य अत्यधिक हीरा जवाहरात आदि तथा वजन