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दशवकालिक सूत्र होता हो, बैठता हो, अथवा लेटता हो तो वह ठीक कर रहा है ऐसा न माने।
शिष्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त मनसे, वचनसे, और कायसे ऐसा काम कभी न करूंगा, दूसरों से कराऊंगा नहीं तथा दूसरों को वैसा करते देखकर उनकी अनुमोदना भी नहीं करूंगा। पूर्वकाल में तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे अब मैं निवृत्त . होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी मैं निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कमसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं ॥ ११ ॥
टिप्पणी-यहां किती को यह शंका हो सकती है कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा वनस्पति जैसे सूक्ष्म जीवों को बचाने के लिये इतना अधिक भार क्यों दिया गया है ? ऐसी अहिंसा इस जीवन में शक्य भी है क्या ? इस प्रकार तो जीवित ही कैसे रहा जायगा ?
इसका उत्तर यह है कि त्यागी जीवन वस्तुत: परम जागरूक जीवन है । इसलिये ऐसे जागल्क साधक ही संपूर्ण त्याग के अधिकारी है-ऐसा जैनदर्शन मानता है । जो साधक प्रतिक्षण इतना जागृत रहेगा उसके लिये तो यह वात लेशमात्र भी असाध्य नहीं है किवा अन्य भी नहीं है। त्यागी के लिये तो वह सुताध्यही है इसीलिये तो उसके लिये ये कठिन नियम रक्खे गये हैं। गृहत्य जीवन, निसंदेह यह वात असाध्य जैसी है तभी तो उसके लिये अहिंसा की व्याख्या भी वडी ही मर्यादित रक्खी गई है और उसके लिये उतना ही त्याग कहा गया है जितना उसके लिये सुसाध्य है।
जितनी दुःखकी भावना अथवा जितना दुःखका संवेदन किसी महाप्राणी को होता है उतना ही संवेदन सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणी को भी होता हैं इसी कारण अहिंसा के संपूर्ण पालन की प्रतिक्षा करनेवाले भिक्षुक ही उसे संपूर्णता से पालते हैं और इसीलिये वे यावन्मा जीवों के रक्षक माने