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३२.
दशवकालिक सूत्र बहुत और कीमत भी बहुत जैसे हाथी आदि), सचित्त (शिष्य श्रादि) हो या अचित्त (अजीव पदार्थ) हो, इनमें से किसी भी वस्तु का परिग्रह नहीं करना चाहिये, दूसरों द्वारा परिग्रह कराना नहीं चाहिये और परिग्रही की अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिये।
टिप्पणी-परिग्रह में सचित्त वस्तुओंका समावेश करने का कारण यह है कि परिग्रह का त्यागी मुनि शिष्यों को उनके मातापिता को आशा विना अपने साथ नहीं रख सकता और यदि वह वैसा करे तो उससे पांचवें महाव्रत का खंडन होता है।
शिष्य:-हे पूज्य ! मैं जीवन पर्यन्त उक्त तीनों करणों एवं तीनों योगों से परिग्रह ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों के द्वारा ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रही की कभी अनुमोदना नहीं करूंगा । तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस. पापकी निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कार्य से मैं अपनी आत्मा को सर्वथा अलिप्त करता हूं ॥५॥
टिप्पणी-जब कभी भी साधुको दूसरी परिपक्क दीक्षा दी जाती है तब उसको उपरोक्त पांच महाव्रतों को जीवन पर्यन्त पालन की प्रतिशाएं दिलाई जाती हैं। उस पक्की दीक्षा को छैदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । इन पांचों महाव्रतों के भेद-प्रमेद सब मिलाकर २५२ होते हैं।
शिष्यः-हे भगवन् ! छठे व्रतमें क्या करना होता है ?
गुरु-हे भद्र ! छठे व्रतमें रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करना पड़ता हैं।
शिप्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त के लिये रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करता हूं।