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लिपटे रहते हैं, जैसे मनुष्य, गाय, भैंस आदि; (४) रसज-रसके बिगडने से उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रियादिक जीव (२) स्वेदज-पसीने से उत्पन्न होनेवाले जीव; जैसे जूं खटमल श्रादि; (६) सम्मूर्छिम-वे
सजीव जो स्त्रीपुरुप के संयोग के विना ही उत्पन्न हो जाय; जैसे मक्खी; चींटी-चींटा भौंरा, आदि । (७) उद्भिज पृथ्वी को फोडकर निकलने वाले जीव, जैसे तीड, पतंग आदि । (८) श्रौपपातिक - गर्भ में रहे बिना ही जो स्थान विशेष में पैदा हो जैसे देव एवं नारकी जीव ।
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अब उनके लक्षण बताते हैं:
जो प्राणी सामने आते हों, पीछे खिसकते हों, संकुचित होते हों, विस्तृत (फूल) जाते हों, शब्दोच्चार ( बोलते) हों । भयभीत होते हों, दुःखी होते हों, भाग जाते हों, चलते फिरते हों तथा ग्रन्य क्रियाएं स्पष्ट रूपसे करते हों उन्हें सजीव समझना चाहिये ।
व उनके भेद कहते हैं: - कीडी कीडा, कुंथु श्रादि द्वीन्द्रिय जीव हैं; चींटी-चींटा यादि त्रीन्द्रिय जीव हैं, पतंग, भौंरा यादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं और तिर्यंच योनिके समस्त पशु, नारकी, मनुष्य और देवता ये सब पंचेद्रिय जीव है ।
उपरोक्त जीव तथा समस्त परमाधार्मिक ( नरकयोनिमें नारकियों को दुख देनेवाले) देव भी पंचेन्द्रिय होते हैं और इन सब जीवों के इस छठे जीवनिकाय को 'स' नाम से निर्दिष्ट किया है ।
टिप्पणी- देव शब्दमें समस्त देवों का समास हो जाता है किन्तु ' परमाधार्मिक ' देवों का खास निर्देश करने का कारण यही है किये देव नरक निवासी होते है । नरकमें भी देव होते हैं और ये पंचेन्द्रिय होते हैं इसकी तरफ निर्देश करने के लिये ही इसका उल्लेख किया है ।