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वाद प्रभव स्वामी हुए । प्रभवस्वामी के उत्तराधिकारी शय्यंभव हुए और ये ही इस ग्रंथ के कर्ता हैं । उनका आचार्यकाल वीर संवत् ७५ से ९८ तक का है, यह बात निम्न लिखित पट्टावलो से सिद्ध होती है :
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तदनु श्री शस्यंभवोऽपि साधानमुक्तनिजभार्याप्रसूतमनकाख्य पुत्र हिताय श्री दशवैकालिकं कृतवान् । क्रमेण च श्री यशोभद्रं स्वपदे संस्थाप्य श्री वीरादष्टनवत्था (हम) वषैः स्वर्जगाम ।
" अर्थात् श्री शय्यंभव स्वामी ने गृहस्थावास में सगर्भा छेड़ी हुई पत्नी से उत्पन्न मनक नामक शिष्य के कल्याण के लिये दशनैकालिक की रचना की । और कुछ समय बाद अपने पद पर यशोभद्र स्वामी को स्थापित कर भ. महावीर के निर्वाण संवत् (८८) में वे कालधर्म को प्राप्त हुए। *
इससे यही सिद्ध होता है कि शय्यंभव आचार्य ने अपने पुत्र मनक के लिए ही इस ग्रन्थ की रचना की थी ।
भाषा की दृष्टि से प्राचीनता
दशवैकालिक की भाषा देखने से मालूम होता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है । इसमें प्रयुक्त वहुत से कियाप्रयोगों एवं शब्दों के तादृश्य
* देखो आंगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित लसूत्र की सूत्रोधिनि टीका का पुष्ठ नं० १६१ ॥
+ लोकप्रवाद तो यह है कि शय्यंभवाचार्य को ६ महिने पहिले ही मनकी मृत्यु मालूम हो गई थी । उसके प्रतिबोध के लिये थोडे ही समय में अन्य ग्रन्थों के आधार पर सरलतया भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की थी |
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