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श्रामण्यपूर्वक
( साधुत्व सूचक)
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इच्छा तो आकाश के समान अनन्त है ! भले ही समस्त विश्व पदार्थों से भरा हो फिर भी उनकी संख्या तो परिमित ही हैं इसलिये इच्छा की अनंतता की पूर्ति उनसे कैसे हो सकती है ! संसार की परिमित वस्तुओंसे अनंत इच्छा का गड्ढा कैसे भरा जा सकता है ?.
यही कारण है कि जहां इच्छा, तृष्णा, अथवा वासना का अस्तित्व है वहां अतृति, शोक और खेद का भी निवास रहता हैं; जहां खेद है वहां पर संकल्प-विकल्पों की परंपरा भी लगी हुई है और जहां संकल्प-विकल्पों की परंपरा लगी हुई है वहां शांति नहीं होती इसलिये शांतिरस के पिपासु साधु को अपने मनको बाह्य इच्छाओं से हटाकर अनन्तता से पूर्ण आत्मस्वरूप में ही संलग्न करना चाहिये - यही सच्चा श्रमणत्व है ।
गुरुदेव बोले :
[१] जो साधु विषयवासना किंवा दुष्ट इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता वह साधुत्व कैसे पाल सकता है ? क्योंकि वैसी इच्छाओं के अधीन होने से तो वह पद पद पर खेदखिन्न होकर संकल्पविकल्पों में जा फँसेगा ।