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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-मनोरन एवं दिव्य भोगों की संपूर्ण सामग्री हो, उनके भोग सकने योग्य त्वत्य-सुन्दर शरीर भी हो, संपूर्ण स्वतंत्रता हो फिर भी वैराग्य पूर्वक उसका त्याग कर देनेवाला ही आदर्श त्यागी: कहा जा सकता है। यद्यपि भोगों के अभाव में भी त्याग की भावना का होना वडा हो कठिन है किन्तु इस गाथा में उत्तम त्याग को अपेक्षा से उपरोक्त कथन किया गया है। उत्तम त्याग वही है जो आनाकी गहरी वैराग्यता से पैदा होता है। [४] समदृष्टि से (संयम के अभिमुख दृष्टि रखकर) संयम में
विचरने पर भी कदाचित् (भोगे हुए भोगों के स्मरण से अथवा अनभुक्त भोगों को भोगने की वासना जागृत होने से) उस संयमी साधु का चित्त संयम मार्ग से चलित होने लगे तो उस समय उसको इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये: "विषयंभोगों की सामग्री मेरी नहीं है और मैं उनका नहीं हूं अथवा वह स्त्री मेरी नहीं है और में भी उसका नहीं हूं" । इस तरह सुविचार के अंकुश से उस पर से अपनी आसक्ति हटावे ।
टिप्पणी-वासना का वीज इतना सूक्ष्म है कि कई वार वह नष्ट हुआ सा मालूम होता है किन्तु छोटा सा वाहसंयोग मिलते ही उसमें अंकुर निकल आते हैं । स्थनेमि और राजोमतीका उतराध्ययन सूत्रमें दिया हुआ प्रसंग इस दातको पुष्टि करता है। यदि कदाचित् संयम से चित्त विचलित होता हो तो उसे स्थिर करने वाले पुष्ट विचारों एवं उपायों को जानने के लिये देखो इसी सूत्र के अंतमें दी हुई चूलिका नंदर १।।
मनोनिग्रह क्रियात्मक उपाय [श (महापुरुषोंने कहा है किः) "शरीर की सुकोमलता त्याग
कर उस समयकी ऋतु के अनुसार शीत अथवा ताप (गर्मी) की आतापना · लो अथवा अन्य कोई अनुकूल तपश्चर्या करो और इसप्रकार से कामभोगों की बांछा को लांघ जाने पर दुःख को