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श्रामण्यपूर्वक
योगेश्वरी राजीमती-देवीने जिन वचनरूपी अंकुशसे रथनेमिको सुमार्ग पर चलाया उन वचनों का सारांश नीचे की गाथाओं में दिया गया है:[६] अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्निमें जलकर
मर जाना पसंद करते हैं किन्तु उगले हुए विपको पुनः पीना
पसंद नहीं करते। [७] है अपयश के इच्छुक ! तुझे धिक्कार है कि तू वासनामय जीवन
के लिये वमन किये हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है। ऐसे पतित जीवन की अपेक्षा तो तेरा मर जाना
बहुत अच्छा है। [4] मैं भोजकविष्णु की पौत्री तथा महाराज उग्रसेन की पुत्री हूं
और तू अंधकविष्णु का पौत्र तथा समुद्रविजय महाराज का पुत्र है। देख, हम दोनों कहीं गंधनकुल के सर्प जैसे न बन जाय ! हे संयमीश्वर ! निश्चल होकर संयममें स्थिर दोओ!
टिपणी-हरिभद्रसूरि के कथन के आधार पर डॉ. हमनजैकोबी अपनी टिप्पणो में लिखते हैं कि भोगराज (किंवा भोजराज) यह उग्रसेन महाराज का ही दूसरा नाम है। अंधकविष्णु यह समुद्रविजय महाराजका दूसरा नाम है। [8] हे मुनि । जिस किसी भी स्त्रीको देखकर यदि तुम इस तरह
काम मोहित हो जाया करोगे तो समुद्र के किनारे पर खडा हुआ हड नामका वृक्ष, जैसे हवा के एक ही झोके से गिर पडता है, वैसेही तुम्हारी आत्मा भी उच्च पदसे नीचे गिर
जायगी। १०] ब्रह्मचारिणी' उस साध्वी के इन आत्मस्पर्शी अंथपूर्ण वचनों को
सुनकर, जैसे अंकुशसे हाथी वशमें आजाता है वैसेही रथनेमि शीघ्र ही वश में आगये और संयम धर्ममें बराबर स्थिर हुए।