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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-यहां हाथी का दृष्टांत दिया है तो स्थनेमि को हाथी, राजीमती को महावत और उनके उयदेशको अंकुश समझना चाहिये। रथनेमि का विकार क्षणमात्रमें शांत होगया। आत्मभान जागृत होने पर उन्हें अपनी इस कृति पर घोर पश्चात्ताप भी हुआ किंतु जिस तरह आकाश, वादल घिर आने से कुछ देरके लिये सूर्य ढंक जाता है किंतु थोडी ही देर बाद वह पुनः अपने प्रचंड तापसे चमकने लगता है, वैसे ही वे भी अपने संयम से दीम होने लगे। सच है, चारित्र का प्रभाव क्या नहीं करता ? [११] जिस तरह उन पुरुष शिरोमणि रथनेमिने अपने मनको विषय
भोगसे क्षणमात्र में हठा लिया वैसे ही विक्षचण तथा तत्त्वज्ञ पुरुष भी विषयभोगों से निवृत्त होकर परम पुरुषार्थ में संलग्न हो।
टिप्पणी-चित्त वंदर के समान चंचल है। मन का वेग वायु के -समान है। संयम में सतत जागृति एवं हार्दिक वैराग्य रखकला ये दोनों उसकी लगामें हैं। लगामें ढीली होने लगें तो तुरन्तही चिन्तन द्वारा उन्हें पुनः खोचें ।
मानसिक चिन्तन के साथ ही साथ यथाशक्य शारीरिक संयम को भी आवश्यकता है-इस सत्य को कभी भी भूल न जाना चाहिये।
शरीर, प्राण, और मन इन तीनों पर काबू रखने से इच्छाओं का निरोध होता है और शांति की उपासना (साधना सिद्धि) होती रहती है। ज्यों २ रागद्वेषका क्रमशः क्षय होता जाता है त्यों २ आनंद का साक्षात्कार होता जाता है।
ऐसा मैं कहता हूं:'इस तरह 'श्रामण्यपूर्वक' नामक दूसरा अध्ययन समाप्त हुआ।