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श्रामस्य पूर्वक
टिप्पणी-वासना हो अनर्थ का मूल है । यदि उसके वेग को दबाया न गया तो साधुधर्म का लोप ही हो जायगा । संकल्पविकल्पों की वृद्धि होने से मन तदैव चंचल ही बना रहेगा और चित्त की चंचलता पद पद पर खेद उत्पन्न कर उत्तम योगी को भी पतित कर डालेगी ।
[२] वस्त्र, कस्तूरी, अगर, चंदन अथवा अन्य दूसरे सुगंधित पदार्थ, मुकुटादि अलंकार, स्त्रियां तथा पलंग आदि सुख को देनेवाली वस्तुत्रों को जो केवल परवशता के कारण नहीं भोगता है उसे साधु नहीं कहा जा सकता ।
टिप्पणी- परवशता शब्द का यहां बड़ा गंभीर अर्थ है । इस शब्द का उपयोग करके ग्रंथकारने केवल बाह्य परिस्थितियों का ही नहीं किंतु श्रात्मिक भावोंका भी बड़ी गहरी मार्मिक दृष्टि से, निर्देश किया है। परवशता से यहां यह आशय है कि बाह्य सुख साधन ही न मिलें जिससे उन्हें भांगा जा सके । आत्मिक भाव के पक्ष में इसका आशय यह है कि बाह्य पदार्थों को भोगने की इच्छा बनी हुई है और योगायोग से वे मिल भी गये हैं किन्तु कर्मोदय ऐसा विकट हुआ है कि उनको भोगा ही नहीं जा सकता । रोगादिक अथवा ऐसे हो दूसरे अनिवार्य प्रसंग भोगों को भोगने नहीं देते । ऐसी दशा में उन भोगों को नहीं भोगने पर भी उसे कोई 'आदर्श त्यागी नहीं कहेगा क्योंकि यद्यपि वहां पदार्थों का भोग नहीं है किन्तु उन पदार्थों को भोगने की लालसा का अस्तित्व तो है और यह लालसा ही तो पाप है । इसीलिये जैनधर्म में बाह्य वेश को प्रधानता नहीं दी गई । जो कुछ भी वर्णन हुआ है वह केवल आत्मा के परिणामों को लक्ष्य करके ही हुआ है, बाह्य वेश को नहीं ।
[३] किन्तु जो साधु मनोहर एवं इष्ट कामभोगों को, श्रनायास प्राप्त होने पर भी, शुभ भावनाओं से प्रेरित होकर स्वेच्छा से त्याग देता है वही 'आदर्श त्यागी ' कहलाता है ।