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दशवैकालिक सूत्र
शुद्ध-निर्दोष भित्ता (अन्नपान) और वह भी गृहस्थ के द्वारा दी गई - प्राप्त कर सन्तुष्ट रहते हैं ।
टिप्पणी- दूसरों को पीडा न देना इसका नाम अहिंसा है । दूतरों को पीडा न पहुंचने पावे इस प्रकार बहुत ही थोडे (मात्र जीवन को टिकाये रखने के लिये अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं) में जोवननिर्वाह कर लेना इसीका दूसरा नाम संयम है और वैसा करते हुए अपनी इच्छाओं का निरोध करना इसीको तप कहते हैं । इस प्रकार साधक (साधु) जीवन में स्वाभाविक धर्मका व्यावहारिक एव निश्चय दोनों दृष्टियों से पालन स्वयमेव होता रहता है । अमर एवं राधु-इन दोनों में साधु की यही विशेषता है कि भ्रमर तो, वृक्ष के पुष्प की इच्छा हो या न हो फिर भी उसका रस चूसे बिना नहीं मानाता किन्तु निळु तो वही ग्रहण करता है जिसे गृहस्थ श्रद्धा सहित अपनी राजीखुशी से उसे देता है । और बिना दिये हुए तो वह तृय भी किसी का नहीं लेता है ।
[४] वे धर्मिष्ठ श्रमण साधक कहते हैं कि "हम अपनी भिक्षा उस तरह से प्राप्त करेंगे जिससे किसी दाता को दुःख न हो, अथवा. हम इस प्रकार से जीवन वितायेंगे कि जिस जीवन के द्वारा किसी भी प्राणी को हमारे कारण से हानि न पहुंचे " । दूसरी बात यह है कि जैसे भ्रमर अकस्मात प्राप्त हर किसी फूल पर जा बैठता है उस प्रकार ये श्रमण भी अपरिचित घरोंसे (अपने निमित्त जहां भोजन न बनाया गया हो उन्हीं घरों सें ) ही भिक्षा ग्रहण करते हैं ।
टिप्पणी- जो अन्तःकरण की शुद्धि कर यावन्मात्र प्राणियों पर समभाव रखते हुए तपश्चर्या में लीन रहता है उसे 'श्रमण' कहते हैं। श्रमण का जीवन स्वावलंबी होना चाहिये । उसकी प्रत्येक क्रिया हलकी होनी चाहिये । उसको श्रावश्यकताएं अत्यंत परिमित होनी चाहिये । सारांश यह है कि साधुजीवन' अत्यंत त्वार्थहीन एवं निष्पक्षपाती जीवन है और वह ऐसे निःसंग (निरासक्त ) भाव से ही सुरक्षित रह सकता है ।
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