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' मूल ' शब्द के जितने उपयोगी अर्थ हो सकते हैं उन से एक एक को मुख्यता देकर ही इन पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी जुदो २ कल्पनाएं की है-ऐसा मालूम होता है। क्योंकि थोडासा हो गहरा विचार करने से उनकी कल्पनाओं का थोथापन स्पष्ट विदित हुए बिना नहीं रहता।
उनमें से पहिलो कल्पना उत्तराध्ययन को लागू हो सकती है क्योंकि भगवान महावीरने अपने अंतिम चातुर्मास में जिन ३६ विना पंछे हुए प्रों के उत्तर दिये थे उन्हीं का संग्रह इस ग्रंथ में हुआ है। परंतु यह बात दशवैकालिक सूत्र को बिलकुल लागू नहीं होती और इससे प्रथम मत का खंडन स्वयमेव हो जाता है। संभवतः दूसा मत दशवकालिक की वन्तुरचना पर से बांधा गया होगा किन्तु उसका विरोध उत्तगध्ययन सत्र की वस्तु रचना से हो जाता है क्योंकि उस में श्रमण जीवन संबंधी यमनियमों के सिवाय अनेक कथाएँ, शिक्षाप्रद दृष्टांत, मोक्षप्राप्ति के उपाय, लोकवर्णन इत्यादि जैन आगम की मूलभूत बहुत सी बातोंका वर्णन है। सारांश यह है कि उस में साधु-साधी के यमनियमादि का मुख्यतया वर्णन नहीं किया गया है इसलिये वह ग्रन्थ दशबैक लिक की वस्तुकोटि का नहीं है। इन दोनों मत-विरोधों का समन्वय करने के लिये ही संभवतः तीसरा मत ढूंढने की जरुरत पडी है किन्तु उसकी दलील भी ठोस नहीं है क्योंकि दशकालिक और उत्तराध्ययन की तरह अन्य अनेक अंगो-उपांगों पर टीकाएं रची गई है इसलिये टीक.ओं के कारण हो ये ग्रन्थ 'मूल ग्रन्थ' कहलाये, यह कहना भी सर्वथा युक्तियुक्त नहीं है।