________________ सूत्र और नियुक्ति एवं भाष्य गाथाओं के प्राधार पर चूणि नामक व्याख्या प्राचार्य जिनदासगणी महत्तर ने की है। इस निशीथसत्र का चणि सहित भाष्य, निर्यक्ति का प्रकाशन आगरा से हुआ, जिसमें कवि पं. रत्न श्री अमरमुनिजी म. सा. एवं पं. रत्न श्री कन्हैयालालजी म. सा. "कमल" हैं। उक्त तीनों व्याख्याएं प्राकृत भाषा में हैं / जिसमें चूणि गद्यमय व्याख्या है और भाष्य, नियुक्ति गाथामय व्याख्या हैं। नियुक्तिकार वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं। इन नियुकिकार के भाई वराहमिहिर थे। उन्होंने "वराहीसंहिता" ग्रन्थ की रचना की, जिसमें उसका रचना समय अंकित है। उमी संवत् के आधार से इन भद्रबाहुस्वामी और बराहमिहिर का समय ज्ञात होता है, जो विक्रम की छट्ठी शताब्दी का और वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी का अर्थात् देवधिगणी क्षमाश्रमण के 30-40 वर्ष बाद का समय था, जो कि विक्रम संवत् 562 का समय है। तदनन्तर विक्रम की सातवीं सदी में भाष्यकार एवं करीब पाठवीं सदी में वृणिकार के होने का समय है। इस प्रकार इस सूत्र का व्याख्यासाहित्य भी कम से कम 1300 वर्ष प्राचीन है। इस सूत्र पर संस्कृत व्याख्या इसी इक्कीसवीं शताब्दी में श्रीमज्जनाचार्य आगमोद्धारक पं. रत्न श्री घासीलालजी म. सा. ने की है। मूलस्पर्शी हिन्दी, गुजराती अनुवाद श्रीमज्जैनाचार्य प्रागमोद्धारक पं. रत्न श्री अमोलकऋषिजी म. सा. प्रादि अनेक विद्वानों द्वारा समय-समय पर हआ है। किन्तु हिन्दी भाषा में व्याख्या-विवेचन सहित मूल एवं अनुवाद के सम्पादन का यह प्रथम प्रयास है। विवेचन का आधार एवं उससे अतिरिक्त कथन निशीथसूत्र का यह संपादन नियुक्ति, भाष्य, चणि के आधार से या प्रमुखता से किया गया है। मूलपाठ के संपादन में एवं सूत्र की अर्थरचना में उपलब्ध अनेक प्रतियों को गौण करके नियुक्ति, भाष्य, चूणि के आधार को प्रमुखता दी गई है। विवेचन करने में भी उक्त व्याख्यानों को प्रमुखता दी गई है, तथापि कुछ स्थानों में आगमप्राशयों को प्रमुखता देकर इन व्याख्याओं से भिन्न या विपरीत विवेचन भी किया गया है। इस निशीथसूत्र के अतिरिक्त व्यवहारसूत्र में भी कुछ स्थानों में ऐसा किया गया है, वे सभी स्थल निम्न हैं (1) निशोथसूत्र उ. 2 सू. 1 "पादपोंछन" (2) निशीथसूत्र उ. 2 सू. 8 "विसूयावेइ" (3) निशीथसूत्र उ. 3 सू. 73 "गोलेहणियासु" (4) निशीथसूत्र उ. 3 सू. 80 "अणुग्गए सूरिए" (5-6) निशीथसूत्र उ. 19 सू. १और 6 "वियड" और "गालेइ" (7) व्यवहार उ. 2 "अठ्ठजाय" (8) व्यवहार उ. 3 सू. 1-2 "गणधारण" (9) व्यवहार उ. 31 सू. 31 "सोडियसाला" (10) व्यवहार उ. "तिवासपरियाए" (11) व्यवहार उ. 2 सू. 10 / "पलासगंसि" (12-13) व्यवहार उ. 3 सू. 9-10 "निरुद्ध परियाए, निरुद्धवास परियाए" " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org