Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई । भूख से व्याप्त हो गई । मांस रहित हो गई । जीर्ण एवं शीर्ण शरीर वाली, स्नान का त्याग करने से मलीन शरीर वाली, भोजन त्याग देने से दुबरी तथा श्रान्त हो गई । उसने मुख और नयन रूपी कमल नीच कर लिए, उसका मुख फीका पड़ गया । हथेलियों से असली हुई चम्पक-पुष्पों की माला के समान निस्तेज हो गई । उसका मुख दीन और विवर्ण हो गया, यथोचित पुष्प, गंध, माला, अलंकार और हार के विषय में रुचिरहित हो गई, अर्थात् उसने इन सबका त्याग कर दिया । जल आदि की क्रीड़ा और चौपड़े आदि
का परित्याग कर दिया । वह दीन, दुःखी मन वाली, आनन्दहीन एवं भूमि की तरफ दृष्टि किये हुए बैठी रही। उसके मन का संकल्प-हौसला नष्ट हो गया । वह यावत् आर्त्तध्यान में डूब गई।
उस धारिणी देवी की अंगपरिचारिका-धारिणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीर वाली, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखती है । इस प्रकार कहती है-'हे देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीर वाली क्यों हो रही हो? यावत् आर्त्तध्यान क्यों कर रही हो? धारिणी देवी अंगपरिचारिका दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर उनका आदर नहीं करती, उन्हें जानती भी नहीं उनकी बात पर ध्यान नहीं देती। वह मौन ही रहती है। तब वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार, तीसरी बार कहने लगीं-क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वाली हो रही हो, यहाँ तक कि आर्तध्यान कर रही हो? तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी उस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती है, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न आदर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहती है । तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनादृत एवं अपरिज्ञानत की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त होती हुई धारिणी देवी के पास से नीकलती हैं और नीकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं । दोनों हाथों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जयविजय से बधाती हैं और बधा कर इस प्रकार कहती हैं- स्वामिन् ! आज धारिणी देवी जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली होकर यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता में डूब रही हैं।' सूत्र - २०
तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सूनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आता है । आकर धारिणी देवी को जीर्णजैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान से युक्त-देखता है । इस प्रकार कहता है- देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिन्ता कर रही हो ?' धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर भी आदर नहीं करती-उत्तर नहीं देती, यावत् मौन रहती है । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा । धारिणी देवी श्रेणिक राजा के दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर आदर नहीं करती और नहीं जानती-मौन रहती है । तब श्रेणिक राजा धारिणी देवी को शपथ दीलाता है और शपथ दीलाकर कहता है-'देवानुप्रिय ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हूँ, जिससे अपने मन में रहे हुए मानसिक दुःख को छिपाती हो ?'
त् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सूनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-स्वामिन् ! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न आया था। उसे आए तीन मास पूरे हो चूके हैं, अत एव इस प्रकार का अकाल-मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं और वे माताएं कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं । अगर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ तो धन्य होऊं । इस कारण हे स्वामिन् ! मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली हो गई हूँ; यावत् आर्त्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ | स्वामिन् ! जीर्ण-सी-यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है।
___ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझ कर, धारिणी देवी से इस प्रकार
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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