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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
तथा चोक्तमाचाराङ्गे- सुदं मे आउस्सत्तो (तो) भगवदा एवमक्खादं इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थी - पुरिसा ( स ) जादा हवंति । तंजहा - सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांगहत्थपाणीपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति ।
निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दशः नहीं है किन्तु " सव्वसमन्नागय” नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है । अत: इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध है | अपराजित ने आचारांग के “लोकविचय" नामक द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है । इसी प्रकार उसमें “अह पुण एवं जाणेज्ज उपातिकंते हेमंते-ठविज्ज" जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है-वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में है । उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग, कल्प आदि के सन्दर्भों की भी लगभग यही स्थिति है । अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भों पर विचार करेंगे । आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवती आराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं
परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचेलगो ।
अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए ||
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पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन अनुपलब्ध भी बताया है । किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथायें नहीं कहा गया है । उसमें मात्र “इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति” कहकर इन्हें उद्धृत किया गया है । आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो गई, हम नहीं जानते । पुनः ये गाथाएँ भी चाहे शब्दश: उत्तराध्ययन में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द रूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही है । उपरोक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ
सूत्रे णो (नो ) तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यति इति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात् कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम् । यदु ( ) पकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्माद् वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत् कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् ।" पृ० ६११-१२ ।
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