Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 504
________________ चतुर्थं परिशिष्टम् । श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः। उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाण आयरिय उवज्झाए थेर-... [ ] १८८ मेगवत्थुम्मि [ध्यानश० ३] २३३ आयारम्मि अहीए जं.. [आचा० नि० १०] २०९ अज्ज वि धावइ नाणं... [] ११० |आसाढबहुलपक्खे... [उत्तरा० २६।१५] ९९ अज्ज वि न कोइ विउहं.. [] ११० |आसाढे मासे दुपया [उत्तरा० २६।१३, अट्ठ वग्ग त्ति अत्र.. [नन्दी० हारि०] २३४ | ओघिन० २८३] ८७ अट्ठपएसो रूयगो.. [आचा० नि० ४२] २०५ |इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स... [ ] १८७ अट्ठमिचउद्दसीसुं... [पञ्चाशक० १०।१७] ३९ इगवीसं कोडिसयं लक्खा... [नन्दी. हारि०] २२९ अट्ठारसपयसहस्साणि पुण... [नन्दी टी०] ७१ | ईसाणे णं भंते [ ] २६७ अणियाणकडा रामा... [आव० नि० ४१५] ३०६ | उग्गाणं भोगाणं ... [आव. नि० २२५] २९३ अणुवेलंधरवासा लवणे... (बृहत्क्षेत्र० ४२०] ६७ | उवसमसंमत्ताओ... [विशेषाव. भा० ५३१] ५५ अतिकार्यमतिस्थौल्यम्,.. [ ] १६६ | उसभस्स पढमभिक्खा... [आव० नि० ३२०] २९३ अरेण छिन्नसेसं... [ ] ९६ | एए खलु पडिसत्तू.. [आव० भा० ४३] ३०६ अभंतरियं वेलं धरंति... [बृहत्क्षेत्र० ४१७] ६६ एक्कागारं तइयं तं पुण... [बृहत्क्षेत्र० ३१३] १३१ अब्भासच्छण १ छंदाणुवत्तणं.... [ ] १८८ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु.. [बृहत्क्षेत्र० ११९] १८१ अभिइस्स चंदजोगो... [ज्योतिष्क० १६२] १५८ |एक्कारसेक्कवीसा सय... [बृहत्सं० १०५] ४१ अयले भयभेरवाणं... [पर्युषणा. ] एक्को भगवं वीरो.. [आव. नि० २२४] २९२ अयले विजये भद्दे... [आव० भा० ४१] ३०५ एगं व दो व तिण्णि... निशीथभा० २०७५] ४५ अर-मल्लिअंतरे.. [आव० नि० ४२०] १२८ | एगुत्तरा नव सया... [बृहत्क्षेत्र० ५८] १६७ अवसेसा नक्खत्ता.. [ज्योतिष्क० १६५] १५९ एगिदियतेयगसरीरे... असिणाणवियडभोई मउलियडो... | प्रज्ञापना० सू० १५३६-१५३७] २७४ [पञ्चाशक० १०।१८] ३९ एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि... [लोकश्री टीका] २९ असोगो किण्णराणं... [स्थानाङ्गसू० ६५४] २८ एवं वड्डइ चंदो... [सूर्यप्र० १९] १५२ अस्सग्गीवे तारए मेरए [आव० भा० ४२] ३०६ कक्कोडय कद्दमए... [बृहत्क्षेत्र. ४२१] ६७ अह पावित तो संतो... [ ] ११० कलंबो उ पिसायाणं... [स्थानाङ्गसू० ६५४] २८ आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ... कायव्वा पुण भत्ती... [ ] १८७ [बृहत्सं० गा० ३४९] ११ | किण्हं राहुविमाणं निच्चं... [बृहत्सं० ११६] ५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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