Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta

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Page 13
________________ VI बड़े सुन्दर और अलङ्कारिक भाषामें है। जिनको पढ़नेसे प्राचीन काव्योंके सजन, सौष्ठव, सुन्दर शब्द-विन्यास और फबती हुई उपमाओंके साथ साथ अनेक शब्दोंका अनुभव होता है। इस संग्रहमें प्रकाशित प्रायः सभी काव्य समसामयिक लिपिबद्ध प्रतियोंसे ही सम्पादित किये गये हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रति-परिचयमें कर दिया गया है। शृङ्खलामें अव्यवस्थाका कारण ___ लगभग २॥ वर्ष पूर्व जब इस ग्रन्थको छपाना प्रारम्भ किया था तब जितने काव्य हमारे पास थे, सबको रचनाकालकी शृङ्खलानुसार ही प्रकाशित करना प्रारम्भ किया था, परन्तु उसके पश्चात् ज्योंज्यों नवीन सामग्री मिलती गई त्यों-त्यों इसमें शामिल करते गये । अतः जैसा चाहिये काव्योंका अनुक्रम ठीक न रह सका। फिर भी हमने पीछेसे ग्रन्थको चार विभागोंमें विभक्त कर चतुर्थ विभागमें अवशेष प्राचीन काव्योंको दे दिया है । रचना समयकी अपेक्षासे काव्य जिस शृङ्खलासे सम्पादन होने चाहिये उनकी स्वतन्त्र तालिका दे दी है, ताकि पाठकोंको शताब्दीवार भाषाओंका अभ्यास करनेमें सुगमता और अनुकूलता मिले। ऐतिहासिक सार-लेखन (शाखा वार ) क्रमिक पद्धतिसे ही हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थको सर्वाङ्ग सुन्दर और विशेष उपयोगी बनानेका भरसक प्रयत्न किया गया है। जो लोग प्राचीन राजस्थानी और अपभ्रंश भाषासे अनभिज्ञ हों उनके लिये “कठिन शब्दकोश" और शृङ्खलाबद्ध ऐतिहासिकसार दे दिया है। इसके अतिरिक्त स्थान Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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