________________
૧૯૦
અધ્યાત્મ ઉપનિષદ્ - ભાગ પહેલો, ૧-શાસ્ત્રયોગશુદ્ધિ અધિકાર
'क्रिया' साध्य (सिद्ध करने योग्य, न कि सिद्ध) है, तो मिट्टी के ढेले में भी साध्य मानो । यदि ऐसा नहीं मानते हो तो आत्मा
और मिट्टी के ढेले को समान मत मानो । ये सब मिथ्या उत्तर हैं, क्योंकि दृष्टान्त में सब धर्मो की समानता नहीं देखी जाती; उसमें सिर्फ साध्य और साधन की समानता जाती है । विकल्पसमा में जो अनेक धर्मों के साथ यदि साधन की व्याप्ति न मिले, तो इससे साधन को व्यभिचारी नहीं कह सकते । हाँ, यदि साध्य-धर्म के साथ व्याप्ति न मिले, तो व्यभिचारी हो सकता है । दूसरे धर्मों के साथ व्यभिचार आने से साध्य के साथ भी व्यभिचार की कल्पना व्यर्थ है । घूम की यदि पत्थर के साथ व्याप्ति नहीं मिलती, तो यह नहीं कहा जा सकता कि धूमकी व्याप्ति, अग्नि के साथ भी नहीं है ।
(९-१०) प्राप्ति और अप्राप्ति का प्रश्न उठाकर सच्चे हेतु को खण्डित प्रतिपादन करना, प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा जाति है । जैसे, हेतु साध्य के पास रहकर साध्य को सिद्ध करता है, या दूर रहकर ? यदि पास रहकर तो कैसे ज्ञात होगा कि यह साध्य है और यह हेतु है (प्राप्तिसमा) । यदि दूर रहकर तो यह साधन अमुक धर्म की ही सिद्धि करता है, दूसरे की नहीं यह कैसे ज्ञात हो (अप्राप्तिसमा) । ये असदुत्तर हैं, क्योंकि धुंआ आदि पास रहकर अग्नि की सिद्धि करते हैं तथा दूर रहकर भी पूर्वचर आदि साधन, साध्य की सिद्धि करते हैं । जिनमें अविनाभाव सम्बन्ध है, उन्हों में साध्य-साधकता हो सकती है, न कि सबमें । ___ (११) जैसे साध्य के लिये साधन की जरूरत है, उसी प्रकार दृष्टान्त के लिए भी साधन की जरूरत है, यह कथन प्रसंगसमा जाति है । दृष्टान्त में वादी और प्रतिवादी को विवाद नहीं होता, अत एव उसके लिए साधन की आवश्यकता प्रतिपादन करना व्यर्थ है, अन्यथा वह दृष्टान्त ही न कहलायेगा।
(१२) विना व्याप्ति के केवल दूसरा दृष्टान्त देकर दोष लगाना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है । जैसे घडे के दृष्टान्त से यदि शब्द अनित्य है, तो आकाश के दृष्टांत से वह नित्य कहलाये । प्रतिदृष्टान्त देनेवाले ने कोई हेतु नहीं दिया है जिससे यह कहा जाय कि दृष्टान्त साधक नहीं है - प्रतिदृष्टान्त साधक है । किन्तु विना हेतु के खण्डन-मण्डन कैसे हो सकता है ?
(१३) उत्पत्ति के पहले, कारण का अभाव दिखला कर मिथ्या खण्डन करना अनुत्पत्तिसमा है । जैसे उत्पत्ति के पहले शब्द कृत्रिम है, या नहीं ? यदि है, तो उत्पत्ति के पहले मौजूद होने से शब्द नित्य हो गया; यदि नहीं है तो हेतु आश्रयासिद्ध हो गया । यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पत्ति के पहले शब्द ही नहीं था, फिर कृत्रिम अकृत्रिमका प्रश्न ही क्या ?
(१४) व्याप्ति में मिथ्या सन्देह प्रतिपादन कर वादी के पक्ष का खण्डन करना, संशयसमा जाति है । जैसे, कार्य होने से शब्द नित्य है-यहाँ यह कहना कि इन्द्रिय का विषय होने से शब्द की अनित्यता में सन्देह है, क्योंकि इन्द्रियों के विषय नित्य भी होते हैं (जैसे गोत्व, घटत्व आदि सामान्य) और अनित्य भी (जैसे घट, पट आदि) । यह संशय ठीक नहीं, क्योंकि जब तक कार्यत्व और अनित्यत्व की व्याप्ति खण्डित न की जाय, तब तक वहाँ संशय का प्रवेश नहीं हो सकता । कार्यत्व की व्याप्ति यदि नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों के साथ हो तो संशय हो सकता है, अन्यथा नहीं । लेकिन कार्यत्व की व्याप्ति दोनों के साथ नहीं हो सकती।
(१५) मिथ्या व्याप्ति के ऊपर अवलम्बित दूसरे अनुमान से दोष देना, प्रकरणसमा जाति है । जैसे, यदि अनित्य (घट) साधर्म्य से कार्यत्व हेतु शब्द की अनित्यता सिद्ध करता है, तो गोत्व आदि सामान्य के साधर्म्य से ऐन्द्रियकत्व (इन्द्रिय का विषय होना) हेतु नित्यताको सिद्ध करे । अत एव दोनों पक्ष समान कहलाये । यह असत्य उत्तर है, क्योंकि अनित्य और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org