Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 18
________________ - xiiiआभा से संस्कृत का आधुनिक युगीन काव्य और उसका इतिहास पूर्णता प्राप्त कर सकेगा। "कृतज्ञता प्रकाश" मेरे मन में प्रस्तुत विषय पर शोध-कार्य सम्पन्न करने के लक्ष्य निर्धारण का श्रेय मेरे प्रथम प्रेरणा स्त्रोत, परम पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुवर डॉ. भागचन्द्र जी जैन, "भागेन्दु" को है । जिनकी बहुआयामी, सर्वगुण सम्पन्न, प्रभामयी प्रतिभा, अध्यापनशैली और सौम्यता से मैं बहुत पहले ही प्रभावित हो गया था - उन्हीं के समर्थन, सहयोग, प्रेरणा और आशीर्वाद से स्नातकोत्तर परीक्षा में विश्वविद्यालयीन प्रावीण्य सूची में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया और अपने गुरुवर के सान्निध्य में रहकर ही शोध पथ पर अग्रसर होने का संकल्प पूर्ण किया। मेरी इस शोध-यात्रा में श्रद्धेय डॉ. सा. एवं उनके सम्पूर्ण परिवार का विशेषतया मातृतुल्य स्नेह प्रदात्री माननीया सौ. सरोज सांघेलीय का हार्दिक आभारी हूँ । मेरे संकल्प को छिन्न-भिन्न करने के लिए परिस्थितियों ने अनेक दाव-पेंच दिखाये और विचलित होने का वातावरण दिखने लगा । किन्तु परम पूज्य दि. जैनाचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज से सुप्रसिद्ध क्षेत्र पपौरा जी की पावन भूमि में प्राप्त शुभाशीर्वाद और उनके संघस्थ पूज्य श्री 105 ऐलक अभय सागर जी महाराज के निर्देशन से दिशा बोध हुआ। एतदर्थ शोध-कर्ता उक्त आचार्य प्रवर एवं सन्तों के श्री चरणों में श्रद्धावनत है । विद्वत्वर न्यायाचार्य डॉ. दरबारी लाल कोठिया महोदय द्वारा प्रदत्त विशेष सहयोग और दिशा दर्शन से अनेकशः कृतार्थ हुआ हूँ । अत: उनके प्रति सादर नमन और हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ । सर्व श्री पं. जगमोहन लाल जी सिद्धांत-शास्त्री, कटनी के चरणकमलों में अनुरक्त भ्रमर की भांति अपने मन को एकाग्रता के साथ प्रस्तुत करता हूँ जिनसे मैंने अपने समीपस्थ सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर में सम्पर्क करके इस शोध विषय के परिप्रेक्ष्य में उपयोगी सामग्री प्राप्त की है। एक शोध-छात्र होने के कारण अनेकानेक साधु-साध्वियों, मनीषियों, कवियों, विशेषज्ञों से निकटत: परिचित हुआ हूँ। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य और पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त किया और सहायता भी प्राप्त की। डॉ. हरिसिंह गौर विश्व विद्यालय, सागर (म.प्र.) के संस्कृत विभागाध्यक्ष श्रद्धेयगुरुवर डॉ. राधावल्लभ जी त्रिपाठी की अनुकम्पा और डॉ. बाल शास्त्री जी की शुभकामना का सम्बल पाकर शोध कार्य के प्रति उत्साहित होता रहा हूं। अतः उक्त मनीषिद्वय के चरण कमलों में सदैव श्रद्धावनत हूँ । शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह मेरी कर्मभूमि ही है, जहाँ अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान के कार्य संपन्न किये । मेरी शोध-यात्रा को सफलता प्रदान करने में इस महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य श्रद्धेय प्रो. चन्द्रभानुधर द्विवेदी की महती भूमिका है । जिनकी आत्मीयता और सहयोगी प्रवृत्ति के कारण शोधकर्ता को कभी कोई असुविधा नहीं हुई-अत: उनका चिरकृतज्ञ हूँ । शोध-यात्रा में जब कभी मेरे कदम लड़खड़ाने की स्थिति निर्मित हुई तभी मुझे कर्त्तव्यबोध और परिस्थितियों पर विजय पाने हेतु डॉ. कस्तूर चन्द्र जी सुमन, शोध सहायक जैन विद्या

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