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શ્રી યશોવિજયજી 5 જૈન ગ્રંથમાળા - દાદાસાહેબ, ભાવનગર,
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याता श्री विजय वल्लम सूरि
-रेखा और अष्ट प्रकार पूजा
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वलुभ विजय
लेवकः
प्रेरक : मद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी ऋषभचंद डागा Sree Sum Regnor ndar
महाराज
कलकत्ता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
नाममोलजैन ग्रथमाला पुष्प सटा
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श्री ममोल जैन ग्रन्थमाला पुष्प सं०८ -
श्री वीतरागाय नमः युग प्रवर श्री विजय वल्लभ सूरि
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जीवन रेखा और अष्टप्रकारा पूजा .
लेखक :ऋषभचन्द डागा
कलकत्ता
सर्वाधिकार लेखक के स्वाधीन
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प्रकाशक :
ऋषभचन्द डागा
२६ / १ सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट,
कलकत्ता-७
(ar.(4.)
वि० सं० २०१६
शक सं० १८८१
आत्म सं० ६४
प्रथमावृति
२०००
मूल्य ३१ नया पैस,
वीर सं० २४८६
सन् १९६०
वल्लभ सं० ६
मुद्रक
रेफिल आर्ट प्रेस, ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट
कलकत्ता-७ www.umaragyanbhandar.com
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जं० यु० प्र० भट्टारक परम पूज्य जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर
शान्तमूर्ति, ५२५ गुमबल, पूज्य जोनालार्य श्री श्री १००८श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी महाराज
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समपण
विश्व की अनुपम विभूति, नवयुग प्रवर्तक, न्यायाम्मोनिधि, दादा प्रभावक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी
__ (आत्मारामजी ) महाराज के पट्टधर विश्व वत्सल, अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु, भारत दिवाकर, परम शासन मान्य, संघरक्षक, सूरि सार्वभौम, मरुधरराट्, पंजाब केशरी, अनेक शिक्षण संस्थाओं के प्रेरक जं० यु० प्र० मट्टारक परम पूज्य जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी
महाराज साहब
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पट्टधर परम गुरुमक्त, शान्त मूर्ति, पूज्य जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयसमुद्र सूरीश्वरजी महाराज साहब के करकमलों में युग प्रवर श्री विजय वल्लम सूरि जीवन रेखा और अष्टप्रकारी पूजा नामक यह पुस्तक सादर समर्पित ।
-ऋषभचन्द डागा
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युगप्रवर आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरि
Shree Sudharmiest परम गुरुभक्त आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरि
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एक दृष्टि
विश्व अनादि एवं अजस्र बहने वाला एक नित्य स्रोत है । यहाँ प्रवृति और निवृति- इन दोनों की धारा में बहने वाला मनुष्य का जीवन है । किन्तु निवृति का संबल पाकर प्रवृति से उन्मुख होना मनुष्य का अपना परम ध्येय होता है । जहाँ उसे आत्मानंद का ही कोरा अनुभव नहीं होता किन्तु चिदानन्द का भी । यह उद्बोधन देने वाली परम्परा एक भारतीय आर्ष परम्परा है । जो कि समय के साथ अबाध गति से चलती आ रही है और आगे भी चलेगी।
ऐसी ही पुनीत परम्परा के समुज्ज्वल कर्णधार हैं-युगप्रवर आचार्य श्री विजयवल्लभ सुरि । इन्होंने बाल्यावस्था से ही ज्ञान और कर्म की साधना पाई. वह चिर स्मरणीय ही नहीं है अपितु विश्व के हर कोने में अनुकरणीय भी है। ये गुजरात में जन्मे। छोटी अवस्था में ही एक जैन साधु बने । एक
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सम्प्रदाय के साधु होते हुए भी आपने अपने प्रखर ज्ञान बल से सबको समान रूपेण देखा। चारित्र बल से लोगों में अभय भरा। अनेक प्रकार के अभूत पूर्व उदाहरण उपस्थित किये, जो कि सबके लिये उपकारी साबित हुए। तपस्या और स्वावलम्बन की साधना से जीवन को खूब कसा । इन सब बातों का स्वरूप आपको काव्य-कला निपुण, साहित्य प्रेमी श्री ऋषभचन्द डागा की विरचित "युगप्रवर श्री विजयवल्लभ सूरि जीवन रेखा और अष्ट प्रकारी पूजा” नामक इस पुस्तिका से मिलेगा। जो कि सरल व सरस हिन्दी भाषा में लिखी गई है । अस्तु ।
आचार्य श्री ने “जयतीति जिनः” का सिद्धान्त अपने जीवन में आमूल चल उतारा । ये एक “जैन श्वेताम्बर तप गच्छ” नामक सम्प्रदाय में होते हुए भी सम्प्रदायातीत बन गये, यह इनकी विलक्षणता थी। इन्होंने मनुष्य के प्रति तो समदर्शिता दिखाई ही किन्तु साथ में अन्य जीवों के प्रति होने वालीसहिष्णुता को भी नहीं छोड़ा। यह इनके जीवन वृत्तों से भलीभांति मालूम किया जा सकता है ।
आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि ने संयम-साधना के साथसाथ ज्ञान के माध्यम से मनुष्य जीवन के प्रत्येक उपयोगी क्षेत्र को ढूंढ निकाला। भारत के विभिन्न भागों में अनेक संस्थाएं चलाये जाने की योजनाएं बनाई, जिसमें इनके श्रावकों का सहयोग तो रहा ही किन्तु दूसरे लोग भी इनकी क्रियाशील प्रतिभा से प्रभावित हो, उन संस्थाओं की मुक्तहस्त हो सेवा
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( छ ) करते, योग देते, और अपने जीवन को संबल बनाते । हर मनुष्य को बिना भेद-भाव के शिक्षा मिले, चारित्र बल बढ़े साधना पनपे तथा कार्य क्षमता को पाकर मनुष्य स्वावलम्बी बने आदि-आदि उद्देश्यों का साकार चिन्तन आप श्री के उपकारमय जीवन का प्रतीक रहा है। संस्थाओं द्वारा मनुष्य जाति का और आत्म साधन द्वारा अपना जो कल्याण किया वह स्व को पर में विलीन कर अनैकान्तिक जीवन का स्रोत बना। ___कर्म भूमि में पैदा होने वाले मनुष्य का क्या कर्त्तव्य है ? यह कर्तव्य केवल अपने लिये ही नहीं किन्तु धर्म, समाज, और देश के लिये भी हमें कुछ करना है-यह बालोक, आचार और विचार की समन्वित पद्धति में आचार्य श्री ने समय-समय पर जो दिया है, वह कोरा पठनीय ही नहीं किन्तु करणीय भी है।
आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर जी ने जैनेतर लोगों को भी आकर्षित किया, यहाँ तक कि हिन्दुओं के अतिरिक्त मुसलमान भाई भी उनकी भावभरी गहराई को देख उनके प्रभाव में पूर्णतः आने लगे। और यथा समय उनके कामों में तथा योजनाओं में अपना हार्द भरा सहकार करने लगे। इसलिये यह कहना अतिरंजित नहीं हो सकता कि अब ये आचार्य ही नही अपितु लोगों के हृदय सम्राट् बन गये और अपनी योग्यता एवं सौहार्द से वे तीर्थंकरों की पाट परम्परा के आचार्य कहलाये । “यथा नाम तथा गुण" वाली युक्ति चरितार्थ
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( ज ) हो गई। इन्होंने जीवन में स्वावलम्बन के साथ सादगी को भी स्थान दिया। धर्म-भावना के अलावा मानव समाज एवं राष्ट्र के उत्थान में भी समय-समय पर सहयोग दिया। फलतः पण्डित श्री मोतीलाल नेहरू, पण्डित श्री मदनमोहन मालवीय व अन्यान्य राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । ऐसे युग प्रवर, धर्म-सेनानी, त्यागी, तपस्वी एवं मनस्वी महामना के जीवन आदर्श पर जो कुछ लिखा जाये, वह कोई कम सौभाग्य का विषय नहीं है।
आप संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं के गहरे विद्वान् थे। आपकी ज्ञान साधना उच्चकोटि की थी। धर्म-दर्शन के साथ-साथ ज्योतिष, न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि अन्यान्य विषयों पर भी आपका अपना पूर्ण अधिकार था। आप विषय के पूर्ण विवेचक थे । आपके ओजस्वी व मधुर उपदेश श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर देते थे। वाणी में निष्कपटता व सरलता ऐसी कूट-कूट कर भरी थी जो कि श्रोता को मोहित किये बिना म रहती। आप गुजरात के होते हुए भी राष्ट्र-भाषा हिन्दी से बड़ा प्रेम रखते थे। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आपके उपदेशों का संकलन हिन्दी में होता था और आप अपने पार्श्ववर्ती लेखकों, कवियों, गायकों और उपदेशकों को हिन्दी भाषा की ओर अग्रसर होने का अपना मनोभाव देते तथा ऐसी ही भावना अन्य जनमानस में भी भरते । जैन दर्शन के विकास में आपका सराहनीय सहयोग सो रहा ही किन्तु साथ
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( झ )
में गुण- ग्राहक होने के नाते आपने इतर दर्शनों के प्रति जो सहिष्णुता दिखलाई वह आपके महान् संत होने की परम्परा को अक्षुण्ण बनाने वाली है। आपकी नीति समन्वयवादी रही है । "आपका धर्म वही है जो आत्मा को पतन से उठावे" इत्यादि युक्तियाँ जो आपने कही हैं, वे आपकी महत्ता की प्रतीक हैं ।
आपका जीवन बहुत सादा रहा है। खादी के वस्त्र पहनना, बहुत कम वस्त्र रखना इत्यादि इसके सूचक हैं । इन सब गुणों के साथ-साथ ही आप चरित्र के भी महान् धनी रहे हैं। जिसके कारण आपके शरीर में ओज टपकता था | मंद मुस्कान भरा आपका चेहरा अन्त समय में भी नहीं कुमलाया - यह आपके अदम्य उत्साह का सूचक था । ऐसे आत्मनिष्ठ बाल ब्रह्मचारी, तेजस्वी, पूज्य युग प्रवर का जितना गुण गाया जाय वह थोड़ा है ।
ऐसे ही महान् तपःपूत श्रद्धेय आचार्यवर की जीवन-रेखा पर श्री डागाजी ने जो कुछ लिखा है, वह उनकी कृपा का प्रसाद हो है । किन्तु ऐसे महात्माओं का कृपापात्र बनना भी कोई कम महत्त्व की बात नहीं । अतः डागाजी को यह सौभाग्य मिला - यह परम हर्ष एवं उत्साह का विषय है ।
श्री डागा जी की कई रचनाएँ देखने को मिली हैं, उनसे ज्ञात होता है कि ये लेखनी के धनी हैं, भाषा की सरलता के साथ-साथ भाव का प्रवाह भी इनका बहुत सुन्दर बनपड़ा है । इनकी रचनाओं में कृत्रिमता नहीं है किन्तु स्वाभाविकता व
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( ब ) आदर्शवादिता कूट-कूट कर भरी हुई है, यह इनकी सफलता का पूर्ण प्रमाण है। प्रस्तुत पुस्तक में भी लेखक ने इतने बड़े महान् त्यागी, तेजस्वी के जीवनवृत्त को सूत्ररूप में उल्लेखित कर सागर को गागर में भरने का जो स्तुत्य प्रयास किया है, वह कोई कम प्रतिभाजनक नहीं है । इसके साथ-साथ ही पूजा के रूप में पद्यमय गीतिका में यह रचना कर और भी आकर्षण पैदा किया है। जिससे पोठक, गायक सभी समान रूप से लाभ उठा सकते हैं।
इस पुस्तक में गीतिकाएँ भी छन्द, स्वर व लय की परम्परा को निभाने वाली हैं। चूंकि जीवन में संगीत का महत्त्व विशेष होता है, इसमें आदर्श ग्रहण के साथ जो आकर्षण है, वह उपादेयता को और भी सिद्ध करने वाला है।
श्री डागाजो एक व्यवसायी व्यक्ति होते हुए भी सरस्वती माँ की जो सफल उपासना कर रहे हैं, यह हमारे लिये कम गौरव का विषय नहीं है। व्यवसाय में रत रहकर भी ये साहित्य-साधना में जो समय लगाते हैं, वह इनकी अनूठी लगन को सिद्ध करता है । इस पुस्तक में चित्रों का चुनाव, पुस्तक की छपाई और सफाई भी इनकी कुशलता के परिचायक हैं। आपने कई संस्थाओ के पदाधिकारी रहकर निःस्वार्थ भाव से समाज की सेवा को है, वह किसी से छिपी नहीं, कलकत्ते की श्री जैन सभा को तो प्रारम्भ में ऊँचा उठाने का समस्त श्रेय आप ही को है, ऐसा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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एक बात तो मुझे अवश्य कहनी है, और वह यह कि प्रभावक पुरुषों के जीवन की घटनाओं का चित्रण करते समयः उनके त्याग, संयम, तपस्या, शिक्षा-दीक्षा और उनके द्वारा किये गये रचनात्मक कार्यों को अति महत्त्व देना चाहिये, उसके बदले उनकी अनेक चमत्कारिक घटनाओं को बहुत महत्त्व दिया जाता है। बल्कि किसी किसी कवि ने तो गुरुओं की पूजाओं में चमत्कारिक घटनाओं का चित्रण करते समय राजपूती शासन काल को मुस्लिम काल का रूप देकर इतिहास का गला घोंटा है। यहां तक ही नहीं आगे जाकर अंग्रेजों के हाथ भारत को गुलाम बनाने में भी उन गुरुओं का आर्शिवाद फलः बताकर जैन दृष्टि कोण के विपरीत ही नहीं परन्तु उन महा पुरुषों की प्रभावकता का अनादर किया है । परन्तु इस दिशा में भाई श्री डागाजी ने बड़ी सावधानी से काम लिया है,. जिनकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी थोड़ी है।
आप उन व्यक्तियों में से हैं, जो अपने भविष्य का निर्माण अपने हाथों से करते हैं।
आप एक कुशल व्यवसायी. सुयोग्य वक्ता. लेखक एवं विचारक भी हैं। आप की पिछली सभी रचनाओं को जैनजैनेतर समाज ने विशेष आदर पूर्वक अपनाया है।
प्रस्तुत पुस्तक में विषयों का विवेचन इतने सुन्दर ढंग से किया है कि विज्ञ सहृदयी तो लाभ उठा पायेंगे ही किन्तु साथ में साधारण श्रद्धालु लोग भी इसके सहज ज्ञानामृत का पाना
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(
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कर सकेगे। संगीत के मधुर स्रोत में गोता लगाने वाले भावुक व्यक्ति भी अपनी दैनन्दिनी पूजा-पाठ में इस पुस्तक को 'शामिल कर अपना आत्म कल्याण करसकेगे । अतः डागाजी का यह प्रयास, प्रयास ही नहीं, बल्कि लोक मानस के लिये अभिरुचि पैदा करने वाला एक सफल साधन भी है। इस से पाठक कहां तक लाभ उठाये गे, यह मैं उन्हीं पर छोड़ता हूँ।
ऐसे महान युग महापुरुष, अज्ञान तिमिर-तरणि, कलिकाल कल्पतरु, सूरि सार्वभौम, युगप्रवर आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के विषय में मैंने जो कुछ भी 'एक दृष्टि' रूप में लिखने का साहस किया है, यह वामन का प्रांशुलभ्य ताल फल को पाने का प्रयास मात्र है, अतः इसमें स्खलित होना मेरी अपनी दुर्बलता है और उनके जीवन पर कुछ प्रकाश व्यक्त होना उनका प्रसाद है, ऐसा समझ, विज्ञ-पाठक मुझे क्षमा करेंगे।
विनीत :७-३-१९६०
प्रभुदत्त शास्त्री कलकत्ता
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लेखक
:
ऋषभचंद डागा
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www.umaragy
dar.com
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वह कविता कविता नहीं, वह पद्य पद्य नहीं जिनको सुनकर सुनने वालों पर किंचित् मात्र भी असर न हो। कविता से विश्व में आज तक बड़े-बड़े काम हुए हैं जिनके आज भी अनेक प्रमाण पाये जाते हैं। पुराने जमाने में भाट, चारण आदि अपनी कविताओं द्वारा वीरों में वीरता का संचार करते थे
और महात्मा लोग अपनी कविताओं द्वारा जन-साधारण को भक्ति मार्ग की ओर ले जाते थे व ले जाते हैं।
गद्य की अपेक्षा जन-साधारण पर पद्य का प्रभाव ज्यादा पड़ता है। जो मनुष्य कभी पुस्तकें हाथ से छते तक नहीं, वे लोग भी प्रभु गुण कीतन में या काव्य रचित पूजाओं को सुनने या गाने में सहर्ष एकत्रित होते हैं और उनका उनके मन पर स्थायी असर पड़ता है। ___ मर्मस्पर्शी काव्य सुन्दर सङ्गीत के यन्त्रों के साथ गाये जाते हों तब आत्मा में एक विचित्र आनन्द अनुभव होता है और एक अन्य ही परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, ऐसे शब्द चित्र
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एकांत में गाये जायं तो विश्व के सर्व झंझटों को भूल कर प्राणी आनन्दरस में मग्न हो जाता है।
इस प्रकार गाने योग्य काव्य के शब्द चित्र का साक्षात्कार करने के लिये एक विशेष लक्षण की आवश्यकता है । शब्द चित्र सर्वगुण सम्पन्न हों, भाव हृदयंगम हों तो मनुष्य का मन एक बार सुनने के पश्चात् बारम्बार गाने या सुनने को लालायित रहता है, उसकी जब-जब अन्तरात्मा आनन्द की तरंगों का ‘अनुभव करती है, तब तब उसके कान में मीठी-मीठी मंकार होती रहती है और ऐसी हृदयंगम कविता को वह बारम्बार गाया करता है। उसमें उन शब्द चित्रों का पुनरावर्तन होते -रहने पर भी अत्यधिक आनन्द प्राप्त करता रहता है । ___ यों तो जैन साहित्य में काव्यों की कमी नहीं, जब-जब प्राकृत अपभ्रंश संस्कृत भाषा का प्रचार रहा तब-तब उन-उन भाषाओं में रचित स्तोत्र, स्तवन, सज्झाय और स्तुति आदि की रचना की गई और उन रचनाओं का संग्रह आज भी विशाल रूप में पाया जाता है ।
तत्पश्चात् संस्कृत के साथ-साथ गुजराती भाषा ने प्रचार कार्य में अग्र स्थान ग्रहण किया जिनमें स्तोत्र. सज्झाय, स्तवन, स्तुति आदि के साथ-साथ रासों का लिखा जाना प्रारम्भ हुआ । जैसे कुमारपाल राजा का रास और होर विजय सूरि का रास आदि।
तदुपरान्त गुजराती तथा राजस्थानी भाषा की मिश्रित
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भाषा ने अपना स्थान ग्रहण किया जिसमें स्तोत्र, सज्झाय, स्तवन और आधुनिक प्रचलित राग-रागिनीमय पूजाओं की भांति काव्य रचना बहुत पाई जाती है परन्तु हिन्दी में नहीं ।
उसके बाद विश्व की अनुपम विभूति, नवयुग प्रवर्तक, न्यायाम्भोनिधि, दादा प्रभावक परम पूज्य जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज तथा उनके अनुकरण में उन्हीं के पट्टधर पंजाब केशरी युगवीर आचार्य पूज्यपाद श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज ने बालजीवों के उपकारार्थ स्तवन, सज्झाय, स्तोत्र आदि के साथ-साथ पूजाओं के रूप में वैराग्यमय पदों की रचनाएँ हिन्दी भाषा में की।
तीर्थंकरों की पूजाओं के साथ साथ गुरुओं की पूजाओं का साहित्य भी मिलता है जिसमे मुख्यतः इन पंक्तियों के लेखक द्वारा रचित श्री सूरित्रय अष्ट प्रकारी पूजा, श्री जगत्गुरु अष्ट प्रकारी पूजा और श्री दादा प्रभावक सूरि अष्ट प्रकारी पूजा नामक पूजाओं ने प्रचार मे आज अपना मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। जिनके द्वारा जनता समय समय पर लाभ प्राप्त करती रहती है।
इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर ही मैंने परम प्रभावक, प्रातः स्मरणीय परमपूज्य युग प्रवर जैनाचार्य श्रीश्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के संक्षिप्त जीवन चरित्र से कलित “श्री गुरुदेव की अष्ट प्रकारी पूजा” नामक यह काव्यमय
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( त )
रचना मधुर राग रागिनियों में ताल, स्वर में व्यवस्थित कर पाठकों के समक्ष उपस्थित करने का सौभाग्य प्राप्त किया है । जिससे हमें गुरुभक्ति के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण करने के साथ साथ गुरुदेव के बताये मार्गों पर चलने की प्रेरणाएं प्राप्त हों। ताकि धर्म, समाज, साहित्य, शिक्षण के कार्यों को वेग देने में तथा समाजोत्थान के कार्यों में क्रांतिकारी भावना उत्पन्न करने में सफल हों ।
पूजा के साथ साथ गुरुदेव की संक्षिप्त जीवनी का दिग्दर्शन भी इस पुस्तक में कराया गया है । इसीलिए इस पुस्तक का नाम मैंने “युग प्रवर श्री विजयबल्लभ सूरि जीवन रेखा और अष्ट प्रकारी पूजा " रखा है ।
इस स्थल पर एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस रचना की सफलता का समस्त श्रेय एक मात्र परम गुरुदेव के पट्टधर पूज्य शान्तमूर्ति, परम गुरुभक्त जैनाचार्य श्री. श्री १००८ श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी महाराज साहब को ही है; जिनकी सतत प्रेरणाओं के कारण ही यह कृति लेकर पाठकों के समक्ष उपस्थित होने का साहस कर सका हूँ । अतः पूज्य आचार्य श्री का हृदय से आभारी हूँ ।
पूज्य पन्यास मुनि श्री विकास विजयजी महाराज का भी हृदय से आभार मानता हूँ जिन्होंने इस कृति को अति शीघ्र सम्पूर्ण करने के लिये सदैव अपने पत्रों द्वारा मुझे अपने कर्तव्य की याद दिलाई ।
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[
२
]
विद्वान लेखक श्री फूलचन्द हरिचन्द दोशी महुवाकर का भी आभार मानता हूँ जिनके द्वारा लिखित युगवीर आचार्य के पाँच भागों का पूरा सहारा लिया है।
इस स्थल पर पंडित श्री प्रभुदत्त शास्त्री का हृदय से आभार मानता हूँ जिन्होंने आदर्श साहित्य संघ के साहित्य प्रकाशन कार्य में व्यस्त रहने पर भी इस पुस्तक पर “एक दृष्टि" लिख कर अपनी उदारता का परिचय दिया है।
मैं उन द्रव्य सहायकों की प्रशंसा किये बिना भी नहीं रह सकता जिन्होंने इस पुस्तक के प्रकाशन में सहयोग दिया है जिनकी सूचि इस पुस्तक में अन्यत्र प्रकाशित की गई है।
स्वर्गीय गुरुदेव के अनेकों आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों, लाखों भक्तों और उनके सम्पर्क की अनेक चमत्कारी घटनाओं का उल्लेख सम्पूर्ण रूप से मैं इस पूजा में न कर सका क्योंकि पूजा का कलेवर बढ़ जाने का भय सदैव बना रहा। अतः उन सब से मैं हार्दिक क्षमा याचना चाहने के सिवाय कर ही क्या सकता हूँ।
उदयपुर निवासी भाई श्री मनोहरलाल चतुर की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता जिन्होंने गत गुरु जयन्ति पर आगरा में अपने कर-कमलों द्वारा किये गये श्रीमद् हीर विजय सूरि स्वाध्याय मण्डल के उद्घाटन की यादगार में इस पुस्तक
को अपनी ओर से उदयपुर में प्रकाशन करने की स्वतः उत्कण्ठा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ द ] जाहिर कर मेरे उत्साह में वृद्धि की परन्तु कतिपय मित्रों की यही राय रही कि इस पुस्तक का प्रथम संस्करण का प्रकाशन कलकत्ते जैसी बड़ी नगरी में मेरी देखरेख में हो, इसीलिए इसे यहीं से प्रकाशित किया गया । __ प्रस्तुत पुस्तक का खर्च एक प्रति पर ७५ नये पैसे लगभग आया है परन्तु प्रचार एवं सदुपयोग की दृष्टि से इस पुस्तक का मूल्य केवल ३१ नया पैसा रखा गया है ताकि उक्त आवक की रकम का इस पुस्तक के दूसरे संस्करण या अन्य प्रकाशन में उपयोग किया जा सके।
अन्त में आशा करता हूँ कि मेरी पूर्व रचनाओं की भाँति समाज इस रचना द्वारा लाभ उठाकर मेरे प्रयत्न को सफल करेगा।
इति शुभम् स्थान :
स्तपुरुष चरणेच्छु २६।१ सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट, ऋषभचन्द डागा कलकत्ता-७।
१-२-१९६०
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पनि
मुान श्री नितिन
बलवंत
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जय लि.
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में विश्व की अनुपम विभूति,जवयुग प्रवर्तक,न्यायाम्भो मुनि श्रीमान श्री निधि,दादा प्रभावक,जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री मट
सविनीत कि विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्माराम जी ) महाराज के
VAC पट्टधर विश्व वत्सल अज्ञान तिमिर तरणि,कलिकाल । FE कल्पतरू,भारत दिवाकर,परमशाशन मान्य, संघ A E रक्षक , अनेक शिक्षण संस्याओं के प्रेरक.सूर सार्व
.. माम, मरुधर रा.पंजाब केशरी,ज-यु.प्र. R निको भट्टारक परमपूज्य जैनाचार्य श्री श्री ooz
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महाराजा
मुनिश्री नविधी का
दान
शिष्य परिवार
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श्री शिवEिWAN
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विचक्षण विमुनि श्री
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आचार्य विजय समुद्र सूरि
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A
हेम वि.
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[ न पु० आचार्य श्री के शिष्य-प्रशिष्यों के अतिरिक्त आज्ञानुवतीं साधु :
पुज्यपाद स्वर्गस्थ आचार्य देव १००८ श्री मद् विजय कमल सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य-प्रशिष्यादि :
१ मुनि श्री हिम्मत विजय जी महाराज x २ पन्यास श्री नेमविजय जी महाराज ३ मुनि श्री उत्तमविजय जी महाराज ४ पन्यास श्री चन्दनविजय जी महाराज ५ मुनि श्री अमृतविजय जी महाराज
पुज्यपाद स्वर्गस्थ प्रवर्तक श्री कान्तिविजय जी महाराज के शिष्य प्रशिष्यादि :
१ मुनि श्री भक्ति विजय जी-महाराज x २ मुनि श्री चतुरविजय जी महाराज x ३ मुनि श्री अनंगविजय जी महाराज x ४ मुनि श्री लाभविजय जी महाराजx ५ मुनि श्री दुर्लभविजय जी महाराज x ६ मुनि श्री मेघविजय जी महाराज ७ आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी महाराज ८ पन्यास श्री दर्शन विजयेजी महाराज है मुनि श्री जयभद्र विजयजी महाराज १० मुनि श्री चन्द्रविजयजी महाराज ११ मुनि श्री चरणविजयजी महाराज
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in
[ 4 ] स्वर्गस्य शान्त मूर्ति मुनि श्री हँस विजय जी महाराज के शिष्य प्रशिष्यादि :१ मुनि श्री हेम विजयजी महाराज x २ पन्यास श्री सम्पतविजयजी महाराज x ३ मुनि श्री दौलतविजयजी महाराज x ४ मुनि श्री सोमविजय जी महाज x ५ मुनि श्री कुसुमविजयजी महाराज x ६ मुनि श्री वसन्तविजयजी महाराज x ७ मुनि श्री शम्भुविजयजी महाराज x ८ पन्याम श्री रमणीक विजयजी महाराज है मुनि श्री धर्म बिजयजी महाराज x १० मुनि श्री कपूर विजयजी महाराज x
स्वर्गस्थ दादा श्री खान्ति विजयजी महाराज के शिष्य प्रशिष्यादि :१ मुनि श्री मोहन विजयजी महाराज x २ गणिर्वय श्री रामविजयजी महाराज ३ मुनि श्री शान्ति विजयजी महाराज ४ __ स्वर्गस्थ मुनि श्री उद्योत विजय जी महाराज के शिष्य प्रशिष्यादिः१ आचार्य श्रीमद् विजय कस्तूर सूरीश्वरजी महाराज x २ मुनि श्री कुन्दन विजयजी महाराज ३ मुनि श्री चिन्तामणि विजयजी महाराज ४ मुनि श्री जीत विजयजी महाराज x
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[फ]
स्वर्गस्थ मुनि श्री जय विजयजी महाराज के शिष्य
प्रशिष्यादिः -
१ मुनि श्री प्रताप विजयजी महाराज x गुणविजयजी
२
३
” कपूर विजयंजी
कनक विजयजी
राम विजयजी
59
स्वर्गस्थ दक्षिण विहारी मुनिराज अमर विजयजी महाराज
के शिष्य प्रशिष्यादिः -
३
४
",
""
३
४
""
""
१ मुनि श्री चतुर विजयजी महाराज X देव विजयजी
२
""
""
""
""
गणिवर्य श्री जनक विजयजी महाराज
जीत विजयजी महाराज
स्वर्गस्थ मुनि श्री प्रेमविजयजी महाराज के शिष्य
""
"
प्रशिष्यादि :
१ मुनि श्री माणिक विजयजी महाराज मानविजयजी
ܕܕ
१ श्री जैन
""
नरेन्द्र विजयजी
सन्तोष विजयजी
पूज्य आचार्य श्री को स्वकृत रचनाएँ
X
99
भानु
२ नवयुग निर्माता
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""
59
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[ ब ]
३ स्वामी दयानन्द और जैनधर्म :
४ पुराण और जैनधर्म
५ गप्प दीपिका समीर
६ चैत्यवाद समीक्षा.
७ श्री पंच परमेष्ठि पूजा ८ श्री पंचतीर्थ
पूजा
६ श्री आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा १० श्री शान्तिनाथ पंचकल्याणक पूजा ११ श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा १२ श्री महावीर स्वामी पंचकल्याणक पूजा १३ श्री अष्टापद तीर्थ पंचकल्याणक पूजा १४ श्री नन्दीश्वर द्वीप पंचकल्याणक पूजा १५ श्री निन्यानवे प्रकारी पूजा १६ श्री इक्कीस प्रकारी पूजा १७ श्री संक्षिप्त अष्टप्रकारी पूजा १८ श्री नवानु अभिषेक पूजा
१६ श्री ऋषि मण्डल
पूजा
२० श्री पंच ज्ञान पूजा २१ श्री साम्यग् दर्शन पूजा
२२ श्री ब्रह्मचर्य व्रत पूजा
२३ श्री एकादस गणधर पूजा
२४ श्री द्वादश व्रत पूजा
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[ भ ] २५ श्री चउदराज लोक पूजा २६ श्रा विजयानन्द सूरीश्वरजी पूजाष्टक
: द्रव्य सहायक सूचि : परम पूज्य, युग प्रवर जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर शान्त मूर्ति, परम गुरू मक्त, जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयसमुद्र सूरीश्वर जी महाराज के सदुपदेश से इस पुस्तक के प्रकाशनार्थ निम्न रकम प्राप्त हुई :७६५) आगरा श्री संघ मार्फत लाला लाभचन्दजी जैन सराफ
गहुलिये आदि की आई हुई रकम । २०१) ज्ञान खातामें से श्री संघ फीरोजाबाद । १०१) शाह ऋषमदासजी जुहारमलजी राठौड़, फीरोजाबाद। १०१) शाह चन्दनमलजी कोठारी, फीरोजाबाद । १०१) शाह फूलचन्दजी कान्तिलालजी, फीरोजाबाद। २०१) शाह जेठमलजी एण्ड ब्रादर्स, फीरोजाबाद ।
मोट रु० १४००)
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विश्व की अनुपम विभूति, नवयुग प्रवर्तक, न्यायाम्मोनिधि, दादा प्रभावक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के पट्टधर
अंक यु प्र. महारक परमयूज्य जैनाचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज
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युग प्रवर
श्री विजय वल्लभ मूरि
जीवन-रेखा
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जो अपना तथा दूसरों का हित करे। रात-दिन आत्मा में रमण करे और अपने ध्येय पर पहुँचने का प्रयत्न करे वही सच्चा साधु है। आत्म-कल्याण के मुमुक्ष का विशुद्ध संयम ही उसका भूषण होता है और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ही उनके आभरण होते हैं । जैन साधुओं का आचार अति कठिन है, वह ही उनकी सच्ची कसौटी है। वे संयम और तप के पोषक होते हैं। केश लूंचन, पाद-विहार, गर्म पानी, तपश्चर्या, गोचरी के कड़े नियमों का पालन करने में जैन साधुओं की विशेषताएँ हैं और इन सर्व विशेषताओं से परिपूर्ण हमारे पूज्य विश्ववंद्य, अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु, भारत दिवाकर, परम शासन मान्य, संघ रक्षक, अनेक शिक्षण संस्थाओं के प्रेरक, सूरि सार्वभौम, मल्धर सम्राट, पंजाबकेशरी जं० यु० प्र० भ० जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज साहब थे।
आप विश्व की अनुपम विभूति, नवयुग प्रवर्तक, न्यायाम्भोनिधि, दादा प्रभावक, जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के पट्टधर थे।
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आप सर्वदा से यह विश्वास करते आ रहे थे कि प्रवाहित नीर निर्मल होता है, एक स्थान पर एकत्र और रुका हुआ नहीं। उसमें विकार उत्पन्न हो जाता है। साधु का जीवन भी सदैव विहारमय रहने से प्रवाहित नीर के सदृश शुद्ध रहता है। साधु को किसी भी स्थान से न विराग है और न मोह । संसार ही कुटुम्ब है। जिसको मोह होता है, वह रुके हुए पानी के सदृश उसका संयम भी विकृत हो जाता है। उसमें दोष आ जाता है। संयम की निर्मलता के लिए साधु का विहार परम आवश्यक है। अतः आपने जगह-जगह, गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा, प्रान्त-प्रान्त में विहार कर अपने मधुर वक्तव्य, अटल गम्भीरता, अनुपम वीरता, दृढ़ता, मध्यस्थता, सत्यप्रियता, परोपकार शीलता एवं त्याग, वैराग्य और दया आदि दिव्य किरणों से समस्त संसार में प्रकाश फैला दिया। आपके चरित्र की उत्कृष्टता और प्रतिभा से जैन-जैनेतर समाज आकर्षित हुए। ___ आपका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, दिव्य प्रकाश फेंकता, ज्ञान आपके हृदय की गहराई से आता था। आपके प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व और समस्त जीवों के प्रति दया की भावना से दर्शकों पर गहरी छाप पड़ती थी।
आपने सत्य की ध्वजा हाथ में लेकर, निर्भय हो साहसपूर्वक सद्धर्म का प्रचार किया, रूढ़िवादियों की परवाह किये बिना अपने सत्य मार्ग पर डटे रहकर आगमों के आधार पर
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( ५ )
अपनी मान्यताओं का समर्थन किया, उपदेश देकर सैकड़ों वर्षों से अन्धकार में पड़े हुए ग्रन्थ रत्नों को प्रकाश की किरणों से आलोकित किया । लोकभाषा हिन्दी में साहित्य के प्रकाशन को प्रोत्साहन देकर हमारी आत्मा को प्रकाश दिखाया और अपनी अपूर्व काव्य शक्ति द्वारा लोगों को भक्ति मार्ग की ओर आकर्षित किया। अपने त्याग, संयम, तपस्या के बल पर विद्यालय - कालेज - गुरुकुल आदि के स्थापन का उपदेश देकर ज्ञान का प्रचार किया, अपने अगाध परिश्रम से अनेक विद्वानों को उत्पन्न किया और प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखकर मुख्यतः मध्यम वर्ग को ऊँचा उठाने में भरसक प्रयत्न किया । आपने साम्प्रदायिकता से परे रहकर समस्त जैन एक मात्र प्रभु श्री महावीर के झण्डे के नीचे एकत्रित होवे, ऐसा उपदेश दिया और जिनकी पूर्ण कृपा से मेरे जैसे अनेक लेखकों ने साहित्य क्षेत्र में प्रवेश किया। ऐसे युग महापुरुष का जन्म विक्रम संवत् १६२७ की कार्तिक शुक्ला २ (भाईदूज ) बुद्धवार के दिन भारत अन्तर्गत महागुजरात प्रान्त की राजधानी सम्मान बड़ौदा शहर में सुख सम्पन्न बीसा श्रीमाल श्रावककुल भूषण श्री जैन श्वेताम्बर मंदिर आम्नाय सेठ श्री दीपचंदजी के घर सती शिरोमणि माता इच्छाबाई की कुक्षि से पुत्र रत्न के रूप में हुआ | आपका नाम छगनलाल रखा गया ।
माता के गर्भ में जब आप अवतरित हुए तब स्वप्न में माता ने आपको तीर्थ कर के चरणों में समर्पण कर दिया था
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( ६ )
और तत्पश्चात् समय पर माता ने जो स्वप्न देखा था वह स्वप्न सत्य रूप में प्रमाणित भी हुआ ।
बाल्यकाल से ही आप वैरागी जीवन व्यतीत करने लगे थे परन्तु मोह वश आपके बड़े भाई श्री खीमचन्द भाई ने आपकी दीक्षा होने में अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित की, परन्तु अन्त में उनको भी आपके निश्चय के आगे झुकना पड़ा और विक्रम संवत् १६४४ को वैषाख शुक्ला १३ को राधनपुर में दादा साहब श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी ( आत्माराम जी ) महाराज के कर कमलों द्वारा अति समारोह पूर्वक भागवती दीक्षा अंगीकार करने में सफलता प्राप्त हुई ।
अब आपका नाम दादा गुरुदेव ने छगनलाल के स्थान पर मुनि श्री वल्लभ विजय जी रखा और आपको अपने प्रशिष्य मुनि श्री हषं विजय जी के शिष्य के रूप में घोषित किया ।
बाल्यकाल से ही आपकी तीक्ष्ण बुद्धि थी और यही कारण था कि आपने मुनि श्री हर्ष विजय जी के पास अल्प समय में ही शास्त्रों का अच्छा अध्ययन कर लिया ।
आपके हस्ताक्षर मोती के दाने के समान होने के कारण दादा साहब पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज पाश्चात्य विद्वान डा० हार्नल के प्रश्नोंत्तर की प्रतिलिपि आप से ही करवाते थे और आगे चल कर पूज्य श्री द्वारा लिखित समस्त प्रन्थों की प्रेस कॉपी भी आपही से कराई जाती रही, तथा पूज्य श्री के समस्त पत्रों का पत्र व्यवहार भी आप द्वारा
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कराया जाने लगा जिससे आपको हर प्रकार की पद्धतियों का रचनात्मक ज्ञान प्राप्त हो ।
विक्रम सम्वत् १६४६ को वैषाख शुक्ला दशमी को पाली (मारवाड़) में पूज्य श्री विजयानन्द सूरीश्वर जी ( आत्माराम जी) महाराज ने आप को अपने कर कमलों द्वारा बड़ी दीक्षा प्रदान की। उसके पूर्व आप पालनपुर में सात नवीन साधुओं को अध्ययन कराया करते थे। यही आपकी योग्यता एवं प्रभावशीलता का द्योतक था ।
आपकी बड़ी दीक्षा तो हो गयी पर अब क्या करना ? प्रभु महावीर के बताये धर्म शास्त्रों का गहरा अध्ययन कर मुक्ति की प्राप्ति किस प्रकार करनी तथा जगत् के जीवों को मुक्ति के मार्ग की ओर किस प्रकार ले जाना—इसकी खोज एवं निर्णय कर गुरु की सेवा, गुरु का विनय, भांति भाँति के जैन-जनेतर शास्त्रों का अध्ययन मनन और चिन्तन कर अनेक प्रामों के भिन्न भिन्न व्यक्तियों के साथ प्रेरक, वार्तालाप कर आप श्री महान् बुद्धिशाली बने।
गुरु मुनि श्री हर्षविजयजी महाराज की आप सेवा बहुत करते थे परन्तु 'तूटी की बूटी नहीं कहावत के अनुसार विक्रमः सम्वत् १९४७ की चैत्र शुक्ला दशमी को मुनि श्री हर्षविजयजी महाराज देहली शहर में काल-धर्म प्राप्त हो गये। तत्पश्चात आप पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज की शरण में पंजाब पहुंच गये।
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पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के साथ पंजाब में जगह जगह विचरण करते हुए अनेक व्यक्तियों के हृदय में शास्त्रार्थ से, वाद-विवाद से जैन धर्म की अहिंसा, अनेकान्तवाद तथा अपरिग्रह के सन्देश की ज्योति प्रगटाई।
अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव आदि अनेक धार्मिक प्रसंगों पर पूज्यश्री आत्मारामजी महाराज के सान्निध्य में विधि-विधानों का सच्चा अनुभव प्राप्त करते थे।
ईर्ष्यालुओं द्वारा मन्दिर आम्नाय सम्प्रदाय पर झूठे आक्षेपों की पुस्तकें प्रकाशित करने पर आपने उनके प्रत्युत्तर में "गप्प-दीपिका समीर" नामक पुस्तक लिखकर विरोधियों का मुंह बन्द कर दिया।
लुधियाना में उपदेश देकर अपने गुरु के नाम पर "श्री हर्ष •विजय ज्ञान भण्डार" की स्थापना करवाई। तथा पूज्यश्री मात्माराम जी महाराज द्वारा लिखित समस्त ग्रन्थों की प्रेस कापी तैयार करते थे एवं महुवा निवासी भाई श्री वीरचन्द राघवजी गांधी जैसे बैरीस्टर को विश्व धर्म परिषद्, चिक्कागो जाने के पूर्व धार्मिक विषयों में पूरी-पूरी जानकारी कराने में बाप पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के प्रत्येक कार्य में सहाय-रूप बने थे और इसी कारण पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज, आपकी योग्यता देख कर भाई श्री डाह्या भाई को भागवती दीक्षा प्रदान कर आपको प्रथम शिष्य के रूप में
सौंपते हैं जिनकी दीक्षा का नाम पूज्य श्री ने मुनि श्री विवेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(६
)
'विजय जी रखा था। यहाँ तक ही नहीं परन्तु आपको अपने ' पट्टधर के रूप में सम्बोधन करते हुए पंजाब की रक्षा करने तथा श्रावकों को सत्यधर्मी और ज्ञानवान बनाने के हेतु स्थान स्थान पर सरस्वती मन्दिरों की स्थापना कराने का सन्देश देते थे
और अन्त में पंजाब श्री संघ को यह फरमाकर कि पंजाब की रक्षा वल्लभ करेगा ऐसी भविष्यवाणी करते हुए विक्रम सं. १६५३ के ज्येष्ठ शुक्ला ८ को गुजरांवाला पंजाब (हाल पाकि•स्तान ) में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग विमान विहारी हो गये।
पंजाब के ग्रामों ग्राम से एकत्रित हुई जनता को पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के सरस्वती मन्दिरों की स्थापना के संदेश को समझाकर आप पंजाब में स्थान स्थान पर श्री
आत्मानन्द जैन सभाओं, विद्यालयों, पुस्तकालयों, तथा गुरु· कुलों के स्थापन की प्रेरणाएं देते थे। तत्पश्चात् गुरुदेव के
अमर संदेश की ज्योति भारत भर में याने पेप्सु-पंजाब, उत्तर 'प्रदेश, राजस्थान ( मारवाड़-गोड़वाल-मेवाड़) मध्य प्रदेश, गुजरात-सौराष्ट्र (महा-गुजरात), महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में प्रगटाते थे।
आज इस ग्राम तो कल दूसरे प्राम तो परसों तीसरे ग्राम इस प्रकार चोर लुटेरों के संकटों को सहनकर, गर्मी सर्दी की . परवाह किये बिना निरन्तर विहार कर समस्त भारत में श्री
- आत्मानन्द जैन गुरुकुल-गुजरांवाला, श्री आत्मानंद जैन विद्याShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १० )
लय गुजरांवाला, श्री आत्मानंद जैन कन्याशाला गुजरांवाला श्री आत्मानंद जैन बाल मण्डल गुजरांवाला, श्री बुद्धि विजय जैन लायब्रेरी गुजरांवाला, श्री आत्मानंद जैन महासभा गुजरांवाला, श्री आत्मानंद जैन मिडिल स्कूल होशियारपुर, श्री आत्मानंद जैन हाई स्कूल लुधियाना, श्री आत्मानंद जैन हाई स्कूल, मालेर कोटला, श्री आत्मानंद जैन कालेज मालेर कोटला, श्री आत्मानंद जैन हाई स्कूल अम्बाला, श्री आत्मानंद जैन कन्या पाठशाला अम्बाला, श्री आत्मानंद जैन लायब्रेरी अम्बाला, श्री आत्मानन्द जैन कालेज अम्बाला, श्री आत्मानंद
जैन सभा अम्बाला, श्री आत्मानन्द जैन वाचनालय अम्बाला, श्री विजयानन्द जैन वाचनालय जंडियालागुरु, श्री आत्मानंद जैन प्राइमरी स्कूल जंडियालागुरु, श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी अमृतसर, श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल आगरा, श्री आत्मानन्द जैन विद्यालय सादड़ी, श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला बीजापुर, श्री आत्मानन्द जैन सभा बीजापुर, श्री आत्मवल्लभ जैन पाठशाला खुड़ाला, श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाना, श्री पार्श्वनाथ जैन उमेद कालेज फालना, श्री श्राविका उद्योगशाला बीकानेर, श्री आत्मानन्द जैन वनिता आश्रम सूरत, श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल झगड़िया, श्री महावीर जैन विद्यालय बड़ौदा, श्री महावीर जैन विद्यालय अहमदा बाद, श्री आत्मवल्लभ जैन केलवणी फंड पालनपुर, श्री आत्मवल्लभ जैन हाईस्कूल बगवाड़ा, श्री चिमनलाल नगीनदास विद्या
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( ११ )
विहार अहमदाबाद, श्री चिमनलाल नगीनदास कन्या गुरुकुल अहमदाबाद, श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर पाटण, श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी जूनागढ़, श्री आत्मानन्द जैन लायब्ररी वेरावल, श्री आत्मानन्द जैन कन्या पाठशाला, वेराबल, श्री आत्मानन्द जैन औषधालय वेरावल, श्री आत्मानन्द जैन सभा भावनगर, श्री आत्मानन्द जैन लायब्ररी पूना सिटी, श्री महावीर जैन विद्यालय पूना सिटी श्री महावीर जंन विद्यालय बम्बई, आदि आदि छोटी बड़ी शिक्षण देने वाली अनेक संस्थाओं तथा प्राचीन ग्रन्थों की रक्षा हेतु अनेक ज्ञान भंडारों एवं धर्म प्रचार के लिये अनेक गगनचुम्बी मन्दिरों और प्रतिमाओं आदि की स्थान-स्थान पर स्थापना करवाई |
किसो व्यक्ति को आपके विचार समझ में न आते तो शान्ति से शास्त्रों का पाठ उपस्थित कर अपने विचारों का सामने वाले व्यक्ति से समर्थन कराकर जैन तथा जैनेतरों के हृदय पर विजय प्राप्त करते थे ।
नाभा, नांदोद, बड़ौदा, लिंबड़ी, पालीतना, उदयपुर, सैलाना, जेसलमेर, आदि के राजा-महाराजाओं, तथा पालनपुर, मालेरकोटला, मांगरोल, खंभात, सचीन, राधनपुर आदि के नबाबों एवं बड़ौदा, भावनगर, लिंबड़ी, रतलाम, सैलाना, वांसवाड़ा, खंभात, नांदोद, आदि के दीवानों और खुड़ाला, बिजोवा वरकाना, बीजापुर, नाणा, वेड़ा आदि के ठाकुर साहबों को
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( १२ ) एवं परम विदुषी महाराणी बीकानेर आदि को अपने चरित्र बल से तथा धर्मोपदेश से प्रभावित किया। - राष्ट्रीय नेता पं० मोतीलाल नेहरू जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्तियों
को धूम्रपान त्योग कराया । पण्डित मदन मोहन मालवीय जैसे 'शिक्षा प्रेमी को अपने चरित्र बल से आकर्षित कर जैन-दर्शन के अध्ययन के लिये हिन्दू युनिवर्सिटी बनारस में एक अलग विभाग खुलाकर प्रज्ञाचक्ष पंडित श्री सुखलाल जी जैन जैसे विद्वान् को शिक्षक के स्थान पर बैठाकर जैन धर्म की प्रभावना में वृद्धि की। यों तो पंडित सुखलाल जी जैसे अनेक विद्वानों को तैयार होने में हर सम्भव सहायता आपहीने पहुँचाई थी।
राष्ट्रीय नेता लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्री मणी लाल कोठारी, पं० श्री केदारनाथ जी, बम्बई के भूतपूर्व गवर्नर श्री मंगलदास पकवासा, श्री मुरारजी देसाई आदि अनेकों को अपने त्याग, संयम, तपस्या तथा रचनात्मक कार्यों के बल से आकर्षित किया।
पठान पीर मोहम्मद खां काबलो, हैदरअली खां काबली, मुंशी करीम बख्त रावत राजपूत, मुशी जान मोहम्मद उर्फ ज्ञानचन्द रावत राजपूत, मिस्त्री दुसंदी खा रावत राजपून, खां साहब शमी खां अफगान, खां साहब फैज मोहम्मद खाँ अफगान मालेर कोटला-सिंधी खाँ साहब रायकोट-आदि अनेकों मुसलमान गुरु महाराज के भक्त बने । दीवान कीमत राय चीफ जस्टिस हाईकोर्ट, बाबु रिखीराम उपल, लालापूर्णShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १३ ) चन्द मोदी, लाला काशीराम अग्रवाल, मुंशी राम जरगर, आदि हिन्दू मालेर कोटला के भी गुरु महाराज के खास भक्त बने । तथा हजारों हिन्दू, मुसलमानों को माँस मदिराका त्याग कराकर जैन धर्म की ओर आकर्षित किया।
आपने स्वयं खादी धारण कर अनेक व्यक्तियोंको 'अहिंसा की दृष्टि से खादी का प्रयोग करना उत्तम है,' ऐसा बताकर खादी अपनाने की प्रतिज्ञा करवाई तथा स्वयं की मातृभाषा गुजराती होते हुये एवं संस्कृत प्राकृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी भगवान महावीर की लोकभाषा के सिद्धान्त को प्रश्रय देते हुए आपने जितने भी ग्रन्थ लिखे, वे सब हिन्दी में ही लिखे तथा जितनी भी काव्य रचनाएँ की वे सब की सब हिन्दी में ही की थी एवं साथ-साथ जहाँ कहीं भी भाषण देते वहाँ पर हिन्दी में ही भाषण देकर तथा हिन्दी में साहित्य के प्रकाशन पर बल देकर धर्म के साथ-साथ राष्ट्र की भी सेवा की। आज तो भारत के विधान में भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का स्थान प्राप्त हो चुका है । यह सब आपकी दूरदर्शिता की विजय कही जाय तो किंचित मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आप सर्वदा अयोग्य दीक्षाओं के विरोधी थे, जो लोग संरक्षकों की अनुमति बिना बच्चों को भगाकर लुक छिपकर दीक्षित करते थे उसका घोर विरोध किया तथा फरमाया कि संरक्षकों की अनुमति तथा श्री संघ की आज्ञा बिना दी जाने वाली दीक्षाओं को अयोग्य ठहराया जाय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १४ ) आपने स्वयं अनेक बालकों, पुरुषों, बालाओं एवं स्त्रियों को शुद्ध सनातन जैन धर्म की भगवती दीक्षा प्रदान की परन्तु उनके संरक्षकों तथा परिवार वालों एवं श्री संघकी प्रथम आज्ञा प्राप्ति करने के बाद ही बड़े समारोह पूर्वक दीक्षाएँ दो। यह उनकी विशेषता थी। __वस्तु के सदुपयोग के लिये और समय की गति के अनुसार स्वप्नों की बेलियों की उपज के रुपये साधारण खाते में ले जाने का उपदेश दिया ताकि वे रुपये प्रत्येक कार्य में लग सकें तथा जिस क्षेत्र में कमी हो उसकी पूर्ति होती रहे।
जैन-जैनेतरों के उपकार के लिये अनेक कार्य करवाये तथा हरिजनों के लिये भी फंड कर वाया । यहाँ तक कि आपके उपदेशों से प्रभावित होकर हरिजन लोग अनेक तपश्चर्याएँ किया करते थे जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह कि श्री आत्मानन्द जैन गुरु कुल के मेहतर ने एक बार अठाई की थी। उस समय के जैन अध्यापक आज भी प्रमाण रूप में गवाह देने के लिये तैयार बैठे हैं।
भाई-भाई में पक्ष-पक्ष में एकता कराते थे। यहाँ तक कि अनेक शहरों में कुसम्प होने के कारण प्रथम कुसम्प को मिटाकर ही बाद में नगर प्रवेश किया था।
मुनि समुदाय में परस्पर प्रेम बढ़े, श्रावक समुदाय में संगठन हो, विद्यार्थियों को कुछ नवीन जानने को मिले उसके लिये आप श्री ने मुनि सम्मेलन, श्री कान्फ्रेन्स सम्मेलन, पोरवाल
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१५
सम्मेलन विद्यार्थी सम्मेलन आदि आदि अनेक सम्मेलनों के आयोजन की प्रेरणायें दी ।
परस्पर प्रेम-भावना में वृद्धि कराई, अनेक कल्याणकारी कार्य कराये । कन्या विक्रय की प्रथा, अनेक समाज कल्याण में बाधक रिवाजों एवं कुरूढ़ियों को बन्द करवाया ।
बहुत समय से श्री संघ आपको आचार्य पद से विभूषित करना चाहता था फिर भी सदैव इनकार करते रहे । परन्तु अन्त में वयोवृद्ध पूज्य प्रवर्तक मुनि श्री कान्ती विजय जी महाराज तथा शान्त मूर्ती मुनिश्री हंस विजयजी महाराज और वृद्ध मुनि श्री सम्पत विजयजी आदि के भरपूर दबाव तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष के आगे वानों की सतत् प्रार्थनाओं से बाध्य होकर विक्रम सम्वत् १६८१ की मिगसर सुदी ५ को लाहौर में बड़े समारोह पूर्वक आचार्य पद से विभूषित होना पड़ा और अब आप श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी ) महाराज के पट्टधर श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
गच्छों के भेद भाव को मिटाकर महान् प्रभावक पूर्वाचार्यों की जयन्तियां मनाने की प्रथा चालू कर गुण ग्रहण करने की समाज को प्रेरणाएं दी ।
त्याग, तपश्चर्या, आचार के नियमों के पालन की तत्परता, स्वभाव की मृदुलता, अद्भूत सहनशीलता, नम्रता और सरलता आदि गुणों से आपका चरित्र उज्जवल और अलंकृत था ।
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( १६ ) आपके कंधों पर जिम्मेदारी का भार भी कम न था, संस्थाओं को हर सम्भव सहायता पहुंचाना आपका मुख्य मन्त्र था। इतना होते हुए भी अनेक पुस्तकें लिखने, भक्तिमार्ग के काव्य की रचनायें करने के साथ साथ शिष्यों प्रशिष्यों को शिक्षण देने में सदैव तत्पर रहते थे। __ प्रभु की सवारी जो कई वर्षों से सतावीस मोहल्लों में निकलनी बन्द थी, वह बीकानेर के समस्त मोहल्लों में गाजे बाजे के साथ घूमी, उसका समस्त श्रेय आपकी प्रभावकता को था। बीकानेर की विदूषी महारानी के निवेदन को मान देकर गंगाथियेटर हॉल में धर्म के तत्वों का मर्म समझाया जिससे आकर्षित होकर वीकानेर की महाराणी साहिबा ने आपके ७५ वें जन्म दिवस पर इक्वीस रुपये और श्रीफल आपको भेट भेजा परन्तु साधु आचार के विपरीत बताकर वापिस लौटा दिया। पाँच सौ पंचेन्द्रिय जीवों को अभयदान दिलवाया तथा बीकानेर महाराजा ने आपकी यादगार में शिवबाड़ी के बगीचे का नाम वल्लभ गार्डन रखा । ____ अठाई महोत्सव, उपाध्ययन तप, छ' री, पालते संघ आदि अनेक धार्मिक अनुष्ठानों को उपदेश देकर करवाये तथा भव्य जीवों को धर्म मार्ग में लगाकर उनकी आत्मा का उद्धार किया।
जहाँ पर मन्दिर पूजा करनेवाले श्रावक बनाये वहाँ पर नूतन मंदिरों की स्थापना करवाई तथा जहाँ पर मन्दिर थे
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वहाँ पर जीर्णोद्धार कार्य कराने का उपदेश देकर प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। ___ आपने अनेक परिषहों को सहनकर तीस तीस माइल का प्रतिदिन विहार किया तथा चोर लटेरों द्वारा तंग किये जाने पर भी अपने धर्म मार्ग पर हिमालय की भाँति अटल बने रहे।
देश का हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में विभाजन होने पर भी तथा गुजरांवाला के उपाश्रय में उनके समीप बम पड़ने पर भी धैर्य नहीं छोड़ा तथा पाकिस्तान से भारत आने पर मार्ग में अनेक संकटों के बावजद समस्त श्रावक श्राविकाओं तथा समस्त साधु साध्वियों को किंचित मात्र भी क्षति न उठाते हुए भारत पहुँचाकर पंजाब केशरी पद को सार्थक किया इन सबका एकमात्र श्रेय आपके अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रभावकता को था
और यही कारण था जो समय समय पर अग्रिम उच्चारण किये वाक्य उनके सत्य ठहरते थे।
वृद्ध अवस्था में आँखों की रोशनी चली जाने पर भी लम्बे लम्बे विहार कर समाज सेवा तथा अनेकों धर्म कार्यों में सदैव तत्पर रहे। ___ जैन मंदिरों तथा जैन तीर्थों के ट्रष्टियों को समझ कर एकत्रित देव द्रव्य का अन्य अन्य तीर्थों पर जीर्णोद्धार में सदुपयोग करने का उपदेश देकर खर्च की दिशा बदलाई।
कभी कोई व्यक्ति आपको मांदगी के समय इतनी वृद्ध अवस्था में आराम करने की विनती करता तो बाप फरमाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १८ )
हमारे भला ! साधु को आराम काहे का । इस देह का समाज कल्याण तथा धर्म प्रचार के लिए अन्तिम समय तक जितना कस लिया जाये उतना लेना है और आप अन्तिम समय तक इस प्रकार अनेक शुभ कार्य में प्रवर्त रहे । प्रातः चार बजे से नवकार मन्त्र तथा चौबीस तीर्थकरों का स्मरण, जाप, प्रतिक्रमण, प्रतिलेहना, शौच, ( स्थंडिल ), वर्द्धमान विद्या, और सूरि मन्त्र का पाठ, नव स्मरण आदि स्रोत्र, देव दर्शन, तथा पञ्चकखान पारणा वगैरह सबेरे ८|| बने तक करने में संलग्न रहते थे ।
तत्पश्चात् प्रातः ८|| बजे से ११ || बजे तक व्याख्यान आदि, दर्शनार्थ आये हुए सज्जनों से वार्तालाप आदि, उसके बाद १ बजे तक आहार- पानी तथा विश्राम करते थे ।
तदन्तर साधुओं को वांचना देना, आए हुए पत्रों के उत्तर आदि लिखना या लिखवाना, धार्मिक व सामाजिक कार्यों की चर्चा तथा चिन्तन करते थे। बाद में आवश्यकतानुसार आहार पानी के बाद शाम को प्रतिलेहना, कल्याण मन्दिर स्त्रोत्र का पाठ, प्रतिक्रमण, संथारा पोरसी । तदुपरान्त शिष्य मंडल अथवा आगन्तुकों से विविध समाजोत्थान विषयों पर विचार-विनिमय, करते थे और रात्रि को निद्रा ग्रहण करने तक समाज कल्याण तथा धर्म प्रचार की अनेक योजघड़ते ही रहते थे ।
पानी, औषधि आदि सहित गुरुदेव प्रतिदिन सात द्रव्य
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( १६
)
से अधिक ग्रहण नहीं करते थे। प्रत्येक अष्टमी व चतुदशी को उपवास रहता था। पूर्णिमा, अमावस्या को छोड़ कर शेष महत्वपूर्ण तिथियों को एकासना किया करते थे। शरीर कारण के सिवाय पोरसी तो नित्य ही करते थे।
अनेक श्रावकों के पास खाने को अन्न और पहनने को वस्त्र न देख कर आपके नेत्र सजल हो उठते थे। ऐसे अनेक श्रावकों को दुःखी देखकर आपने स्वधर्मी सेवा का प्रबल उपदेश स्थान स्थान पर दिया।
वे कहने लगे कि श्रावक-श्राविका क्षेत्र मजबूत नहीं होगा तो सातों क्षेत्र किस प्रकार मजबूत रह सकेंगे ? इसलिये समाज में कोई भी भाई अन्न, वस्त्र तथा जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं से वंचित न रहे। अतः स्वधर्मी बन्धुओं को उद्योग-धन्धों में लगाकर स्वाश्रयी बनाने के लिये आपने लाखों रुपयों का कोष एकत्रित कराकर उद्योग मन्दिरों की स्थापना करवाई जिससे आज भी लगभग चालीस उद्योग केन्द्र चल रहे हैं। तथा विद्यार्थियों को स्कोलरसिप देकर उनके शिक्षण के लिए संस्थायें कार्य कर रही हैं।
स्त्री शिक्षा पर बल देकर अनेक बालिका विद्यालयों की स्थापना कराई तथा जो लोग साध्वियों के व्याखानों का विरोध कर धर्म प्रचार में बाधक बन रहे थे उनके मिथ्या भ्रम का निवारण कर साध्वियों को जगह-जगह व्याख्यान देने का प्रोत्साहन देकर धर्म प्रचार के कार्य कराये जिसके फलस्वरूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(
२०
)
आज भी जगह-जगह विदुषी साध्वियाँ अपनी विद्वता से पुरुष और स्त्रियों में धर्म प्रचार का कार्य कर रही हैं।
तिथि चर्चा जैसी सामान्य बातों में आज कतिपय साधुओं में क्लेश उत्पन्न कर रखा है, आपने इस विषय में फरमाया कि पर्व तिथि की आराधना के लिए तथा प्रवज्या-प्रतिष्ठादि शुभ धार्मिक कार्यों के मुहूर्तादि देखने के लिये आपने अभी तक जैनेतर पंचांगों पर आधार रखते आये हैं परन्तु इन पंचांगों का गणित स्थूल होने के कारण उसमें बतलाये गये विषयों का आकाश के प्रत्यक्ष दर्शन के साथ मेल नहीं बैठता है तथा मुहूर्तादि का सत्य समय निभता नहीं। ऐसी परिस्थिति में किसी भी प्रकार निभाने योग्य न होने से मेरे शिष्य मुनिश्री विकास बिजय ने प्राचीन तथा अर्वाचीन खगोल गणित का गहरा अभ्यास कर आकाश के साथ प्रत्यक्ष मेल मिलता रहे ऐसा श्री महेन्द्र जैन पचाङ्ग तैयार किया है और उसका अन्तिम प्रकाशन उन्नीस वर्ष से होता आ रहा है। हमको कहते आनन्द होता है कि इस पंचांग का खगोल विद्या विषयक सूक्ष्म ज्ञान धारण करने वाले प्रो० हरिहर प्राणशंकर भट्ट, श्री गोविन्द एस-आप्टे तथा अन्य अनेक दूसरों विद्वानों ने हार्दिक सत्कार किया है तथा इस विषय में ज्ञान धराने वाले जन्मभूमि आदि पत्रों ने भी इसको भावभरी अञ्जलियाँ अर्पित की है तथा व्यवहार में इसका उपयोग करने की प्रेरणा दी है।
जैन समाज की परिस्थिति का अवलोकन करके हम इस
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( २१ ) अभिप्राय पर आये हैं कि जो धार्मिक कार्यों के मुहूर्तादि का समय बराबर पालन करना हो, तिथि को लेकर अनेक्य दूर करना हो तो प्रत्येक फिरके को यह पंचांग मान्य रखना चाहिए जो ऐसा होगा तो अपने सहकार और संगठन की दिशा में एक अति महत्व का कदम उठाया है ऐसा समझा जायेगा। __ जैन धर्म की अहिंसा तथा अनेकान्त और अपरिग्रह का सिद्धान्त समम्त विश्व में पण्डितों द्वारा प्रचार करने के लिये
आपने जैन के समस्त समुदायों को प्रभु महावीर के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर जैन विश्व विद्यालय स्थापना करने का सन्देश दिवा और इसके लिए जैनों के चार मुख्य सम्प्रदायों के आगेबानों की एक समिति भी बनबाई।
आपके रग-रग में, वाक्य-वाक्य में शान्ति, अनुकम्पा, प्रेम, समभाव का दिव्य सन्देश बहता था।
विश्व की सभी भाषाओं में जैन ग्रन्थों के प्रकाशन करने हेतु कार्यकर्ताओं को प्रेरणा पूर्वक सन्देश दिया।
राज्यकरण में रस लेकर राज्यकर्ताओं को धर्म का सन्देश अन्तिम समय तक समझाते-समझाते परम गुरु भक्त शान्तमूर्ती जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वरजी को अपना पाट सौंप कर अर्हन्-अर्हन् शब्दों के उच्चारण के साथ विक्रम सं० २०११ की आसोज वदी इग्यारस को प्रातः दो बजकर बतीस मिनिट पर इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग सिधारे। __ शासन देव ! हम सबको उनके पचिह्नों पर चलने की शक्ति प्राप्त करने में पूर्ण सहायक हो-यही अभिलाषा है।
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पू. आचार्य देव के चतुर्मास स्थलों का नक्शा
विक्रम संवत् १६४४ से २०११
बारोवाल गुजरानवाला
लाहौर
पाकिस्तान
जूनागढ़
पटी.
जीरा रायकोट
(सियालकाट
बीकानेर
'रा ज स्था न
पाली बीजोव
स्वभाव
बम्बई
भरन
पालनपुर
राजपुर 22-22- पाटन 2) मेहसाणा
कच्छ
पंजाब > होशियारपुर लुधियाना
(११) १४ अम्बाला
कोटस
समाना
सा-ग-र:
फालना
अमृतसर
24 अहमतामध्य
회
डिम्ब
G
बड़ौत शह
प्रदेश
बिहार
कब और कहाँ चतुर्मास थी [Di@१६५३१२६५१२१६७
बड़ौदा
मोई मध्य प्रान्त 2003, 200४६५४७९६ = १ आवा
३५ बालापुर
पद प्राप्ति १९५८, १६६४९५०.
120000१५७, १९८० १६४६ १६५५ ५१६६१९५११६६२१६६३,
32
हैदराबाद 2002 Q १६६६ १६४७, १६५६
बिन्ध्य प्रदेश
आन्ध्र
ने
मद्रास
सिलो
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पुत्र
भूटान
आसाम
पूर्व - पाकिस्तान /
१६६११६४६१६५२१६६२७ | 9 £ £y£9 £= 39 £67,2009, 2004
४६६ 200€ 1£669£££,9€ €0,200@ 22 7£zy 23 9£8 x 28 <£y£GY, 9££42842E2098&G,!££3 20 EEZ 201££ €186220022 1233120, १६७१.१६७४, १६ ८६ 12.300.2010 2014 12x6
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वलम
जं० यु० प्र० भट्टारक परम पूज्य जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लम सूरीश्वर जी महाराज
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श्री गुरुदेव की अष्ट प्रकारी पूजा
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विजयानन्द |
प्रणमुं गोडी पार्श्व ने, प्रणमुं गुरु विजयवल्लभ सूरि नमुं, नमुं समुद्र सूरींद ॥ सिमरु माता सरस्वती, महर करो तुम आज । पूजा रच, गुरूदेव की, भवोदधि तरवा काज ॥ वर्द्धमान जिनराज का, पाट दीपा वन हार । कोटिक गण वज्रीशाखा, चांद्र कुल परिवार ॥ बड़ गच्छ समुदाय में, संविग्न आद्याचार्य । आम्बिल को तप आदर्यो, जग्गचंद्र सूरि राय ।।
८ २ १
विक्रम ईशु वशु कर शशी, नृप चितोड़ समक्ष । तपस्या से तपा विरुद्, प्रसिद्ध तपा गच्छ ॥ ताके पाट परम्परा, दादा प्रभावकाचार्य |
नवयुग प्रवर्तक भये. ज्ञान ज्योति प्रगटाय ॥ चिक्कागो अमेरिका, सर्व धर्मं परिषद् । न्ययाम्भो निधि मानती, सूरि
विजयानन्द ||
तस पट्टधर जग में हुए, युग प्रधान कल्पतरू कलिकाल के विश्व वत्सल तरणि तिमिर अज्ञान के, सूरि सम्राट
सुखदाय ।
महाराय ॥
सुहाय ।
कहाय ॥
सूरिराय ।
।
रंग लगाय ॥
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राट्
भारत दीवाकर प्रभु, मरूधर केसरी था पंजाब का, विजय वल्लभ मणीभद्र सेवा करे, भक्ति
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परम प्रभावक सूरीश्वर, शासन थंभ कहाय । सुर नर सब पूजा करे, गुरुदेव गुण गाय ॥ जल · चंदन पुष्पादि अरु, धूप दीप मनोहार । अक्षत नैवेद्य फल लिये, पूजा अष्ट प्रकार ॥
॥ अथ प्रथम जल पूजा ॥
* दोहा * जल पूजा मल को हरे, विमल भाव गुणकार । गुरु के चरण प्रक्षालते, मिटे भ्रमण संसार ।।
[लावणी-चाल-च्यवन कल्याणक अोच्छव करके ] परमेष्ठि पद में मध्ये पद, धारक तारणहारा रे । सूरि पद पूजन कर प्राणी, आतम आनन्दकारा रे |आ।
विक्रम ऋषि कर निधि शशि वर्षे, कार्तिक मास सुखारा रे । सूदी दूज दिन नगर बड़ौदा, गुर्जर देश मझारा रे ॥१॥ बीसा श्रीमाल कुल भूषण, श्रावक व्रत धरनारा रे। जैन श्वेताम्बर श्रद्धा संवेगी, तात दीपचन्द प्यारा रे ॥२॥ सती शिरोमणि सद्गुण रमणी, आंखों का उजियारा रे । माता इच्छा कुक्षे प्रगटयो, छगन जग हितकारा रे ॥३|| धन्य मात और धन्य तात ने, घर जन्मे जयकारा रे । पूर्व जन्म की पुण्याई संग, प्रगटे जग अवतारा रे ॥४॥
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( २७ )
बालावय वैरागी जीवन, संयम भाव विचारा रे । परम गीतारथ सद् गुरू भेटया, आतमानन्द सुखारा रे ||५|| छगन अर्ज करे सद्गुरू ने, तेरा एक सहारा रे । साचो धन मुनि पद मुझ देओ, मिटे भ्रमण संसारा रे ॥६॥ आज्ञा लाओ खोमचंद की, जो बड़े भ्रात तिहारा रे । छाने छिपके करू न दीक्षित, जिन शासन अनुसारा रे ||७|| विनय विवेकी भाई छान, गुरु आज्ञा शिर धारा रे । जप तप निश दिन करता भ्राता, खीमचंद मन हारा रे ||5||
४ ९ १
विक्रम वेद कषाय निधि शशि, राधनपुर स्थल सारा रे । सुदी तेरस वैशाख सुमासे, चारित्र पद अवधारा रे ||९|| - वासक्षेप विजयानन्द सूरि, देते मंत्र उच्चारा रे । मम लक्ष्मी तस शिष्य हर्ष का शिष्य मुनि मनोहारा रे ||१०|| मम वल्लभ श्री संघ को वल्लभ, वल्लभ हर्ष को सारा रे । विजय करण विजय पद देऊ, नाम वल्लभ विजय त्हारा रे ||११|| जय हो वल्लभ विजय तुम्हारी, बोले श्री संघ सारा रे । आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारा रे ||१२|| : atat :
अहिंसा सच बोलना, चोरी का परिहार । ब्रह्मचर्य अपरिग्रह, पांच महाव्रत धार || दश विध यति धर्म शोभता, संजम सत्रह प्रकार । सता वीश गुण साधु के, शोभा का नहीं पार |
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( २८ )
मन वच काया वश करो, साधे मोक्ष रन्न त्रयी आराधता, नमो नमो मुनि क्रोध लोभ मद मोह तज, तज दिनो श्रमण तपो धन यति व्रति, दया तणा करते लूंचन केश का, प्रासुक जल सद्गुरु मुनि वल्लभ विजय करते पाद
"
( चाल - पणिहारी की ) भवि सद्गुरु पूजन करो म्हारा व्हालाजी ।
बालावय तोक्षण बुद्धि म्हारा व्हालाजी,
जो भव तारणहार व्हालाजो ||आ
देते हर्ष विजय गुरू म्हारा व्हालाजी,
अध्ययन लगन अपार व्हालाजी ।
चार्तुमास प्रथम किया म्हारा व्हालाजी,
सुपाथ ।
नाथ ॥
अनुपम ज्ञान का सार व्हालाजी ||१||
चन्द्रिका पूर्वाद्ध का म्हारा व्हालाजी,
घरबार 1
भण्डार ॥
व्यवहार । विहार ॥
राधनपुर में खास व्हालाजी ।
मांडल सद्गुरू पहुंचते म्हारा व्हालाजी,
आप किया अभ्यास व्हालाजी ॥२॥
खीमचन्द दर्शन करे म्हारा व्हालाजी,
विजयानन्द के लार व्हालाजी ।
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साथ सहु परिवार व्हालाजी ॥३॥
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(
२६
)
बोले विजयानन्द सूरि म्हारा व्हालाजी,
खीमचन्द के पास व्हालाजी। वल्लभ होगा जग वल्लभ म्हारा व्हालाजो,
जो श्री संघ की आश व्हालाजी ||४|| रहस्य मंत्री आज से म्हारा व्हालाजी,
थापू कर विश्वास व्हालाजी। वल्लभ म्हारा लाडलो म्हारा व्हालाजी,
होगा पट्टधर खास व्हालाजी ॥शा अहमदाबाद में आविया म्हारा व्हालाजी,
करता पाद विहार व्हालाजी । डॉक्टर हार्नल साहब का म्हारा व्हालाजी,
प्रश्नोत्तर का सार व्हालाजी ॥६॥ सौंपा वल्लभ विजय को म्हारा व्हालाजी,
___ प्रतिलिपि सुखकार व्हालाजी। हस्ताक्षर मोती समा म्हारा व्हालाजी,
निरखत हर्ष अपार व्हालाजी ॥७॥ आतम वल्लभ पामिया म्हारा व्हालाजी,
सद्गुरू गुण मंडार व्हालाजी। गम्भीरा समुद्र सम म्हारा व्हालाजी,
ऋषभ प्राणाधार व्हालाजी ॥
वल्लभ पामिया
सद्गुरू गुण
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: दोहा : चन्द्रिका पूर्वाद्ध के, दश गण का अभ्यास । कीना मुनि वल्लभ विजय, अमर विजय के पास ॥ बुद्धि शक्ति कार्य दक्ष, विनम्रता भण्डार । पाँच वैरागी जीव को, शिक्षण दे सुखकार ॥ उपाध्याय पदवी मुनि, व्यवहारे नहीं पाय। पर निश्चय के रूप में, पाठक पद दीपाय ॥ सात भवि दीक्षित हुए, पालनपुर मोझार । सौंपे सद्गुरू आपको, शिक्षण के हितकार || देते मोती, चन्द्र, शुभ, लब्धि, मान, सन्मान ।
जस, राम, विजय मुनि सभी, वल्लभ को दे मान ॥ * श्री चन्द्रविजय की दीक्षा पालनपुर में श्री हर्षविजय जी महाराज के नाम से हुई थी। कुछ समय बाद सिरोही में चन्द्रविजय जी का संसारी भाई आया, उसकी गरीब हालत देख कर सिरोही के दीवान सूरत के रईस श्रावक श्री मिलापचन्द ने उसे पांच सौ रुपये देकर बिदा किया। जब यह बात आचार्यश्री (विजयानन्द सूरि ) को मालूम हुई तो उन्होंने चन्द्रविजय को डांटा और कहा कि आगे को ऐसा काम कभी नहीं करना, यह साधु धर्म और आचार के सरासर विरुद्ध कार्य है। कुछ समय बाद पाली में वह चन्द्रविजय का भाई- अपनी-माता को साथ लेकर आया, तब महाराज श्री ने चन्द्रविजय को कहा कि तूं बार-बार लिखकर अपने सम्बन्धियो को बुलाता है, यह तुम्हारे लिये ठीक नहीं है। सिरोही में तेरे कहने से दीवान मिलापचन्द ने तेरे भाई को पांच सौ रुपये दिये अब
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मारवाड़ पंच तीर्थी, यात्रा का शुभ धाम। भाषण परथम वहाँ दियो, भविजन मन अभिराम ॥
--
.-..-
-
फिर तुमने अपनी माता और भाई को बुलाया है जो कि सर्वथा अनुचित
और साधु आचार के विरूद्ध है। यहाँ रुपये देने वाला कोई नहीं है, पहले जो सिरोही में दिये गये उनका तो मुझे पता नहीं लगा, परन्तु अब तो मैं सब कुछ जान गया हूँ। तुमने यह धंधा शुरू किया है वह सर्वथा अयोग्य है, हमारे साथ रह कर ऐसा नहीं हो सकेगा। याद रखना अब यदि किसी से तुमने रुपये दिलाने की कोशिश की तो इसका परिणाम तुम्हारे लिये अच्छा न होगा। महाराजश्री की इस योग्य चेतावनी से न मालूम चन्द्रविजय के मन में क्या आया वह उसी रात्रि को अपना साधु वेष उतार और उपाश्रय में फेंक कर गृहस्थ का वेष पहन माई और माता के साथ रवाना हो गया। फिर कालान्तर में सं० १९४७ में उसने श्री वीर विजयजी के पास आकर फिर दीक्षा ग्रहण की और चन्द्रविजय के स्थान में अब दानविजय नाम नियत हुआ। कालान्तर में श्री दानविजय जी पन्यास होकर सं० १९८१ में आचार्य श्री विजयकमल सूरि के पट्टधर शिष्य श्री लब्धिविजय जी के साथ छाणी ग्राम में आचार्य पदवी से अलंकृत हुए और प्यारडी जाते हुए रास्ते में स्वर्गवास हो गये। आचार्य दानसूरि के शिष्य प्रेमसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र सूरि ने दो तिथि का पंथ चलाकर जैन परम्परा में एक नया विमाग उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया। “विचित्रा गतिः कर्मणाम्"- ( नवयुग निर्माता पेज संख्या ३४१ और ३४२ से सामार उद्धृत ले०)।
.
v........
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( ३२ ) मारवाड़ पाली शहर, नवलखा पारस नाथ । जिन मंदिर उत्सव हुओ, धूम धाम के साथ ॥
६.-४ ९ १ रस युग निधि शशि वर्ष की, सुदी वैशाख सुमास । दशमी दिन दीक्षा बड़ो, वल्लभ मन उल्लास ॥ ( तर्ज-अाशावरी, चाल-वल्लभ आतम के पट्टधारी)
भवि कर गुरु पूजन सुखकारो || विजयानन्द जोधाणे पधारे, वल्लभ पाली मझारी । वैयावच्च गुरू हर्ष की करते, चार मास सुखकारी ॥ १॥ कल्प सूत्र सुबोधिका टीका, आत्म प्रबोध सुखारी । चन्द्रिका भी पूरण कीनी, अध्ययन लगन अपारी ॥ २॥ अमरकोष को कण्ठ लगायो, ज्योतिष विद्या सारी। त्रिजो चर्तुमास पूरण कर, अजमेर गये अणगारी ॥ ३ ॥ विजयानन्द भी आन पधारे, ओच्छब अठ दिन भारी। समवसरण की रचना सुन्दर, आतम आनन्द कारी ॥ ४ ॥ जयपुर हो दिल्ली को पधारे, पाँच महाव्रत धारी । विजयानन्द पंजाब को जाते, बोले वचन उच्चारी ॥ ५ ॥ हर्ष विजय को सेवा निश दिन, वल्लभ रखना जारी । जब तक तबियत ठीक न होवे, रहना स्थिरता धारी ॥ ६॥ वैद्य हकीम अनेक ही आये, प्रयत्न करी गये हारी। तूटी की बूटी नहीं होवे, कर्मन की गति न्यारी ॥ ७ ॥
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2
९ १
विहरण भारी ।
ऋषि युग निधि रवि, चैत्र मास को सुदी दशमो दुखियारो । हर्षविजय मुनि स्वग सिधारे, गुरू विरह सह्यो भारो ॥ ८ ॥ पंच नदी गति सम यह मुनिवर करते आतम राम का दर्शन पाकर वल्लभ आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारी । जल पूजा वल्लभ गुरु देव की, विमल भाव गुणकारी ॥ १० ॥ ॥ काव्यं ॥
हर्ष अपारी ॥ ९ ॥
( ३३ )
भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जगत् वल्लभ
जिन मताम्बुज भास्करम्
विजय
वल्लभ,
युग
प्रधान
परमेष्ठि पद में मध्य पद के.
भव
गुरूदेव वल्लभ
धारकम्
सूरि सर्व विघ्न
पूजन.
सूरीश्वरम् ॥
तारकम् ।
निवारकम् ॥
( मन्त्रः )
ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरुदेव, परम शासन मान्य, सूरि सार्वभौम, जं० यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य, श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर, चरण कमलेभ्यो, जलं यजामहे स्वाहा ॥ १ ॥
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( ३४ )
॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥ : दोहा :
केशर चन्दन मृगमद, कुंकुम मांही सद्गुरू अँगे पूजिये, आणी भाव
बरास । उल्लास ॥ १ ॥
( चाल- - पूजा करो रे भवि भाव से )
वल्लभ सद्गुरु की पूजा करो रे भवि भाव से ॥ अ ॥ पञ्च नदी पंजाब देश में, अम्बाला मनोहार । विजयानन्द विराजते हैं, साथ मुनि परिवार रे ||१|| वल्लभ सेवा मूर्ति है, चतुर अति होशियार । आतम का करज करते हैं, भक्ति मन में धार रे ||२|| मोती पाणीदार है यह, ओप देऊ सुखकार । आतम इम उच्चारण करता, वल्लभ वारसदार रे ॥३॥ पारवती की " दीपिका " ने, कीना खूब प्रहार | "गप्प दीपिका समीर" रखा, वल्लभ शास्त्राधार रे ||४|| हर्ष विजय गुरू नाम पर इक, हो स्मारक तैयार । लुधियाना स्थापन किया तब, जैनी ज्ञान भण्डार रे ||५||
૪
९
१
ऋषि कषाय अंक शशि वर्षे, चातुर्मास सुखार | मालेर कोटला पूरण करते, अध्ययन का विस्तार रे ||६|| आतम वल्लभ पामीया रे, वर्ते जय-जयकार | समुद्र सम गम्भीरा जग में, ऋषभ
प्राणाधार रे ||७||
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: दोहा : अभिधान चिन्तामणि अरु, न्याय कियो अभ्यास । हरि भद्र टीका रचित, दशवैकालिक खास ।। आचार प्रदीप पठन किया, व्याख्यान शैलीधार । दृष्टांतो समालोचना, तात्विक चर्चा सार ॥ रूचिकर शैली अति घनी, तर्क बुद्धि भी जास । वल्लभ ने धारण किया, विजयानन्द के पास ॥ पट्टी अमृतसर मला, अम्बाला सुखकार । चर्तुमास पूरण किया, तीन वर्ष जयकार || न्याय बोधिनी चन्द्रोदय, सम्यक्त्व सप्ततीसार । तीन ग्रन्थ अध्ययन किये, मन शक्ति दृढ़ धार । प्रतिष्ठा क्रिया विधि, समझी सविस्तार । अमृतसर अरनाथ की, जग बोले जयकार ।। चन्द्रप्रभा व्याकरण करो, ज्योतिष विद्या सार । आवश्यक आगम पढ़ा, वल्लभ लगन अपार ।।
विक्रम वसु युग अंक रवि, वदि कार्तिक शुभ मास । वल्लभ को चेला दिया, गुरु आतम ने खास ।। नाम विवेक विजय मुनि, रक्खा आतम जास । प्रथम शिष्य के लाभ पर, भवि जन मन उल्लास ॥ अंजन शलाका प्रतिष्ठा, जीरा नगर में थाय । सानिध्य आतम राम के, विधि वल्लभ कर पाय ।।
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( राग-माढ़-चाल-विमला चल धारा) भवि जन मन प्यारा, दुःख हरनारा, गुरुवल्लम भगवान । जग तारण हारा, जग जयकारा, गुरुवल्लभ भगवान |||| स्वर्ण मन्दिर होशियारपुर का, है प्रसिद्ध जग नाम । प्रतिष्ठा विधि वल्लभ करता, प्रेरक आतम राम रे ॥१॥ वीरचन्द राघवजी गाँधी, अमरीका जानार । चिक्कागो सर्व धर्म परिषद् में, जिन वचन कहनार रे ||२|| निबन्ध आतमराम का था, वल्लम लेखनकार । पद्धति व्यवहार दक्षता, परिचय का पानार रे ॥३॥ सतलज नदी किनारे दादा, मंत्र दियो शुभकार । क्रान्ति और शान्ति दोनों ही, वल्लभ मन अवधार रे ॥४॥ स्थापन जग में सरस्वती मन्दिर, करना पर उपकार । धार्मिक संग व्यवहारिक शिक्षण, जग जीवन हितकार रे || संघ चतुर्विध मध्य इक है, साध्वियाँ समुदाय । शिक्षण इनका सुन्दर होवे, शासन के हितदाय रे ॥६|
शिरिव बाण निधि सूर्य वर्षे, गुजरांवाला आन ।
आतमराम खमावे सब को, अन्तिम अवसर जान रे ॥७॥ पंजाब श्रीसंघ चिन्ता करता, तुम सम कौन जहान् । अन्त समय तक निकसी वाणी, वल्लभ मम सम मान रे ॥॥ जेठ सुदी अष्टमी दिन दादा, पायो स्वर्ग विमान । शासन का झण्डा कर लेकर, वल्लभ पावे मान रे ॥१॥
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( ३७ )
चन्दन पूजत सद्गुरू अंगे, यश सुगन्ध अपार । आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ
प्राणाधार रे ||१०||
काव्यम्
भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज भास्करम् ।
वल्लभ,
जगत् वल्लभ विजय
युग प्रधान
परमेष्ठि पद में मध्य पद के,
गुरुदेव वल्लभ
धारकम् भव
सूरि पूजन, विघ्न
सर्व
सूरीश्वरम् ॥
तारकम् ।
सद्गुरु अंगे पूजतां, फले
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निवारकम् ॥
( मन्त्र : )
शासन मान्य,
ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरूदेव, परम सूरि सार्वभौम जं० यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर, कमलेभ्यो चंदनं यजामहे स्वाहा ||२||
चरण
॥ अथ तृतीय पुष्प पूजा ॥ : दोहा :
पांच वर्ण के फूल जो, महके अति ही सुवास ।
मनोरथ आश ॥
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( ३८ )
नाम ॥
चन्दन कुशल हीर सुमति, वृद्ध साधुगण पास शासन का झण्डा लहे, मुनि वल्लभ विजय खास ॥ विजयानन्द गये स्वर्ग में, हो वल्लभ जयकार । स्मारक गुरु के नाम पर, योजना की तैयार ॥ आतम संवत् जो चला, फैला जग में नाम । सभा पत्रिका विद्यालय, सभी गुरू के समाधि मन्दिर बना, प्रेरक सद्गुरू जैन भवन आत्मानन्द, नाम दिया गया साधु कई दीक्षित किये, साध्वियाँ धर्म प्रचारे जगत् में, वल्लभ नाम ( चाल - कानूड़ा थारी कामण करनारी वृज में बाँसुरिया बाजी ) • वल्लभ सद्गुरू की महिमा जग भारी, पूजन आवे नरनारी । नर नारी - नर नारी गुरु के चरणन् बलिहारी ॥ पूजन || अ ||
खास ।
तास ॥
श्री संघ पंजाब विनवे, मानो अवतारी । अवतारी - अवतारी सूरीश्वर पद अवधारी ॥ पूजन ॥ १ ॥ वयोवृद्ध मुनि जन कई बैठे, ना हो स्वीकारी ।
स्वीकारी स्वीकारी पदवी ना अंगीकारी ॥ पूजन ॥ २ ॥
-
समुदाय ।
दीपाय ॥
धन्य तुम्हारे त्याग का जीवन, पदवी ना धारी ।
ना धारी-ना धारी आतम पट्ट के अधिकारी ॥ पूजन ॥ ३ ॥ दुष्काल भयो मालेर कोटला, पहुंचे उपकारी ।
उपकारी-उपकारी थावे अन्न सत्र जारी ॥ पूजन ॥ ४ ॥
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( ३६ )
मुंशी अब्दुल लतीफ तुम्हारी, आज्ञा शिरधारी । सिरधारी-सिरधारी लीनो ब्रह्मचर्य धारी ॥ पूजन ॥ ५ ॥
ऋषि इन्द्रिय निधि सूर्य वर्षे, सुदी षष्ठी सारी। हाँ ! सारो हाँ सारी ! मास वैशाख का शुभकारी ॥ पूजन ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठा होशियारपुर में, मोच्छब अतिभारी। अतिभारी-अतिभारी प्रतिमा आतम मनोहारी ॥ पूजन ।। ७ ।। अवलोकन साहित्य जैन समिति, थापी हितकारी। हितकारी-हितकारी दृष्टि चर्तुमुखी सारो ।। पूजन ॥ ८ ॥ सामाना पटियाला नामा, जीतागढ़ भारी। गढ़ भारी-गढ़ भारी द्वेषी चर्चा गये हारी, ।। पूजन ।। ९ ।। गुजरांवाला धूम मचाई, द्वेषी जन भारी। जन भारी-जन भारी संकट आन पडयो भारी । पूजन ॥ १० ॥ *कमल सूरि पाठक श्रीवीर का, परवाना जारी। हाँ ! जारो-हाँ ! जारी जरुरत है वल्लभ थारी ॥ पूजन ।।११।। गुरु ग्रन्थ वाक्यों पर मरने वाला ब्रह्मचारी। ब्रह्मचारो-ब्रह्मचारी करता विहरण आतभारी ॥ पूजन ॥ १२ ॥ पंजाब केशरी आवे वल्लभ हर्ष थयो भारो। हाँ ! भारी-हाँ ! भारी द्वेषो बैठे चुप्प धारो ॥ पूजन ।। १३ ॥
•पू० आचार्य श्री विजय कमल सूरिजी,
* पू० उपाध्याय श्री वीरविजयजी, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ४० )
सामैया हो धूमधाम से, सूविर उच्चारो ।
उच्चारी-उच्चारी वल्लभ आतम पूजारी ॥ पूजन ॥ १४ ॥ आतम वल्लभ सूरि समुद्र, सद्गुरु अणगारी । अणगारी - अणगारी ऋषभ महिमा प्रचारी ॥ पूजन ।। १५ ।।
: दोहा :
५ ६
इन्द्रिय रस निधि चन्द्रमा, चातुमास बिताय । रचना गुजरांवाला में, दो पुस्तक लिख पाय || भीम ज्ञान त्रिशिका अरु, विशेष निर्णय खास । ग्रन्थ इक सौ पिचयासी, उर्द्धत देत उल्लास ॥ नगरी जयपुर अति भली, सुन्दर राजस्थान । ओच्छ दीक्षा का हुवे, भवि जन भये गलतान ॥ रौनक पंचमी दिवश की, चैत्र वदी सुखदाय । बीसा ओसवाल कुल का, नाहर गोत्र दीपाय || *अच्छर *मच्छर जोड़ला, दोनों भाई साथ । गुरु वल्लभ दीक्षित करे, धुमधाम के साथ | कोठारी इन्द्राबाई, भक्ति भाव दीक्षा मोच्छब ठाठ का खर्चा करे
* पू० आचार्यश्री विजय विद्या सूरिजी, पू० मुनिश्री विचार विजयजी ।
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अपार ।
उदार ॥
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( ४१ ) ईर्षालु ईर्षा करे, दीक्षा रोकन काज । पुण्य प्रबल वल्लभ का, सुधरे सारे काज ॥ सम्प कराया पीपलीया, कीना फूट का नाश ! संवेगी स्थानकमति, बने गुरु के दास ॥ (चाल-उमराव थाँरी बोली प्यारी लागे महाराज ) गुरुराज थारी पूजा प्ारी लागे महाराज । महाराज जी हो......गुरुराज || अ ॥ पालनपुर गुजरात के, प्रथम प्रवेश का द्वार । सामैया उमंग से, वल्लम की जयकार ॥ १ ॥ फूट पड़ी तड़ दो हुए, ओसवाल श्रीमाल । संप करे वल्लभ मुनि, तप गच्छ हो खुशहाल |॥ २॥ गोदड़शाह भक्ति करे, धर्मशाला बढ़वाय । लाभ जान गुरुदेव जो, चर्तुमास फरमाय ॥ ३ ॥ आतम वल्लभ केलवणो, फंड स्थापित करपाय ।. अर्द्ध लाख का कोष भो, वहाँ एकत्रित थाय ॥ ४ ॥ भंवरसिंह कलकत्ता का, चारित्र पदवी पाय । विचक्षण विजय मुनि, नाम गुरु दे पाय ॥ ५ ॥ धन्य घड़ी वह शुभ दिवस, पालनपुर के मांय । मित्र विजय दीक्षित हुए आनन्द हर्ष मनाय ॥ ६ ॥ पालनपुर नबाब को, भक्ति भाव अपार । वासक्षेप को डालते, मुख बोले जयकार ॥ ७ ॥
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चिमन भाई मंगलजी, नगर सेठ पद पाय । सद्गुरु की भक्ति करे, जीवन सफल कहाय ॥ ८ ॥ दीक्षा भूमि स्पर्शता, राधनपुर में आय । होती धरम प्रभावना, संघ सकल सुखदाय ॥ ९ ॥
रस रस निधि रवि-द्वितीया, सुदी मिगसर शुभमास । छ' रि पालता चालता, संघ अति उल्लास ॥ १० ॥ ठाकुर साहब लिमड़ी, आदि सपरिवार ।। प्रवचन श्रवण के लाभ से, आनन्द मंगलकार ॥ ११ ॥ मोतीलालजी मूलजी, संघवी पदवी पाय । तीर्थ माल को पहनते, सिद्धाचल पर जाय ॥ १२ ॥ वल्लभोपुर वल्ला नगरे, जा मत भेद मिटाय । तपा गच्छ लौंका गच्छ में, तत्क्षण शांति थाय ।। १३ ॥ दरवाजा सुन्दर इक दश, धोलेरा में थाय । स्वागत धूम मची अति, भवि जनमन हर्षाय ॥ १४ ॥ ढोल नगारा बाजते, स्थंभन तीरथ मांय । स्वागत वल्लभ का करे, नर नारी हुलसाय ॥ १५ ॥ शाला जैन अमर मध्ये, धर्मोपदेश सुनाय । पोपटभाई अमरचन्द, विनती अर्ज सुनाय ॥ १६ ॥ चर्तुमास फरमावजो, पकड़ तोरे पाय । तुम बिन तारक कोई नहीं कृपा करो गुरुराय ॥ १७ ॥
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( ४३ )
बड़ौदा को वचन दिया, पलटू कैसे आज । रक्षा हेतु वचन की, जाना होगा आज ॥ १८ ॥ धन्य तुम्हारी अमृतवाणी, धन्य तुम्हारा नाम । जय जय शब्द उच्चारता, ले वल्लभ को नाम ॥ १९.॥
आतम वल्लभ पूजतां, पुष्प पूजन सुखदाय । गम्भीरा समुद्र सम, ऋषभ गुरु गुण गाय ॥ २० ॥ ( काव्यम् )
भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज जगत् वल्लभ विजय वल्लभ,
युग परमेष्ठि पद में मध्य पद के,
धारकम् भव
प्रधान सुरोश्वरम् ॥
गुरुदेव वल्लभ सूरि
सर्व
पूजन,
भास्करम् ।
विघ्न
तारकम् ।
निवारकम् ॥
मंत्र :
ॐ ह्रीँ श्री परम गुरुदेव परम शासन मान्य सूरि सार्वभौम जं० यु० प्र० भट्टारक, जैनाचार्य, श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर, चरणकमलेभ्यो, पुष्पं यजामहे
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स्वाहा ॥३॥
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( ४४ )
॥ अथ चतुर्थी धूप पूजा ॥ : दोहा :
- द्रव्य भाव सौरभमयी, धूप पूजन सुखकार । वल्लभ गुरु को पूजतां, वर्ते जय जयकार | गायकवाड़ के राज्य में, बड़ौदा मशहूर | जन्म भूमि गुरूराज की, सब को होत गरूर ॥
६ ९ १
ऋषि रस निधि रवि वर्ष में, सुदी वैशाख सुमास । दशमी दिन गुरूवार को नगर प्रवेश उल्लास ॥
•
उगणीस साधु साथ में, चार्तुमास बिताय । भाग्योदय ब्रह्मचर्य की, संयम प्रतिभा दिखाय ॥ अठाई का जीमण कर, बंद कराया आप । • जैन संघ उत्कर्ष की योजना कीनी आप ॥ खीमचंद चुन्नीभाई, मामा भाणेज साथ । कावी और गंधार का, संघ चला प्रभु साथ ॥ इक्वीस केरी पूजना, राग रागिनी मांय | प्रभु पूजा से फल मिले, करम सभी कट जाय ॥ सूरत में सब आ मिले, वृद्ध साधु जन पास ।
६ ९ १
ऋषि रस निधि शशि षष्ठी को, फागण वदी शुभ सुमास ॥
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( ४५ ) दीक्षितकर सुखराज को, दियो समुद्र तस नाम । मंत्री बन सुशोभता, पट्टधर *रिम ललाम || मोयांगांव जा पहुंचते, झगड़ा आप मिटाय । पाठशाला चाल करी, लाभ कपासी पाय ॥ ऋषि मंडल की पूजना, द्वीप नंदीश्वर साथ । पाठक वोर को प्रेरणा, मालवा श्री संघ साथ ॥ माँसाहारी तजे माँस को, सुखाड़ा ग्राम मोझार । होवे उपदेश आपका, बोले जय जयकार ॥ सीतर गाँव के पंच भी, पूजे गुरु का पाय । बणछारा में आनकर कन्या बिक्री उठाय ॥ मुसलमान तजे मांस को, सिनोर के नर नार। संयम तप अरु त्याग का, चमत्कार श्री कार ॥ कोरल के स्थानकमती, संविग्न रंग रंगाय । गुरु कृपा उन पर हुई, जीवन हो सुखदाय ॥ . (चाल—नाथ कैसे गज को फंद छुड़ायो) सुगुरु तेरो पूजन अति सुखदायो ॥ अ॥ विजयानन्द सूरि संघाड़ा, मुनि सम्मेलन थायो । प्रेरक मुनि वल्लभ विजय का, अद्भुत तेज सवायो ॥१॥ सर्व सम्मति से चार बोस, प्रस्ताव पास करायो। गायकवाड़ बड़ौदा नगरी, शासन मान बढ़ायो ॥ २ ॥ पाठक वीर विजय कमल सूरि हंस विजय मुनिरायो।
कांति विजय प्रवर्तक संपत, पन्यास मन हुलसायो || ३H • आकर्षित
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नाम करेगा रोशन गुरु का, वल्लभ मन सब भायो । विघ्न संतोषी ठण्डे पड़ गये कोर्ति चहुं दिशि छायो ॥ ४ ॥ बक्शी दिवान नांदोद महाराजा, स्वागत धूम मचायो। वल्लम की वक्तृत्व कला पर, मुग्ध अति हो पायो ॥ ५ ॥ राजमहल नरेश बड़ौदा, धर्म उपदेश करायो । न्याय मंदिर व्याख्यान करावे, गुरु सन्मान बढ़ायो ॥ ६ ॥ धर्म तत्व अरु सार्वजनिक मत, वहाँ विषय चर्चायो । अद्वितीय विद्वता सुन्दर शैली, विचारधारा बहायो ॥ ७ ॥ सम्पतराव आदि सब बैठे, व्याख्यानहॉल भरायो । प्रशंसा गुरुवर की करता, विद्वत्त जन समुदायो ॥5॥ ० ७ ९ १ गगन ऋषि निधि चन्द्रमा वर्षे, बम्बई नगर सुहायो । बैण्ड बाजा दश बाजत आगे, स्वागत हर्ष बधायो ॥ ९॥ लाल बाग उपाश्रय आकर, धर्म उद्योत करायो । गरीब अमीर सभी ने मिलकर, औच्छब ठाठ जमायो ॥१० लाभ जन गुरु स्थिरता करते, चातुर्मास बितायो। प्रथम ज्ञान फिर क्रिया मानो, सूत्र सिद्धांत सिखायो ॥११॥ बम्बई महावीर विद्यालय से, ज्ञान की गंगा बहायो। मोतीचन्द गिरधर कापड़िया, सेवा खूब बजायो ॥१२॥ साधक क्षेत्र में महिला शिक्षण, आवश्यक बतलायो । सूरत में जा वनिता आश्रम, स्थापित आप करायो ॥१३॥ दानवीर देवकरण मूलजी, वनथली नगर बधायो । बीसा श्रीमाल जैन बोडिंग, मदद गुरु दिलवायो ॥१४॥
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आत्मानन्द जैन लाइब्रेरी, महिलाशाला खुलायो । काठियावाड़ जूनागढ़ जाकर, उद्घाटन कर पायो ॥१५॥ वेरावल महिला शिक्षण पर, पूरण जोर लगायो । औषधालय शिक्षण शाला को, आप मदद करवायो ॥१६|| मांगरोल नगरी में आकर, प्लेग का रोग मिटायो। नबाब तेरो प्रेरणा पाकर, कतलखाना रुकवायो ||१७|| ऐसे कई उपकार किये तुम, महिमा पार न पायो । आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ गुरू गुण गायो ||१||
: दोहा : मोतीलालजी मूलजी, देवकरण सेठ साथ । सद्गुरु बम्बई आवजो, विनवे तुमको नाथ ॥ ४ ७ ९ १ संघ ऋषि निधि सूर्य में, बम्बई नगर शोभाय । सच्चे मोती साथिया, स्वर्णफूल बरसाय ॥ गोडीजी का उपाश्रय, भाषण सुन्दर थाय । विद्यालय महावीर का, कोष लाख इक थाय ॥ पाटण बोडिंग जैन का, मण्डल कोष भी थाय । एक लाख उसमें हुआ,भवि जन मन हर्षाय ॥ . पन्यास संपत प्रेरणा, अहमदाबाद के मांय । कल्याणक श्रीवीर की, पूजा कृति सुहाय ॥ दुष्काल पड्यो पाटण नगरी, पूजे गुरु का पाय । दान धर्म व्याख्यान पार, कोष एकत्रित थाय ॥
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( ४८
)
हीर विजय सूरि सोम सुन्दर, विजयानन्द सूरि राय ।' प्रतिष्ठा त्रय मूर्ति, पालनपुर सुखदाय || जैन विद्यालय कोष हो, शिक्षण के हितकार | धन्य धन्य वल्लभ गुरु, जग बोले जयकार |
(चाल-मंगल पूजा सुर तस्कंद) वल्लभ गुरु पूजो भवि वृन्द ||| बीजापुर मारग में डाकू, जंगल में उत्पात करंद । क्षमाशील साधुगुण पूरे, सहन करे परिषह आनन्द ॥१॥ सुराणा सुमेरमल को भक्ति का नहीं पार लहंद । कलकत्ता से देखन आवे, सुखसाता में है मुनिचंद ॥२॥ जगह जगह के श्रावक आवे तार पत्र की धूम मचंद । झवेर चंदादि श्री संघ की, सेवा का नहीं पार लहंद ॥३॥ दो तड़ में गुरु सम्प कराई शिक्षा का उपदेश करंद । पाठशाला स्थापित वहाँ होवे, जनता पावे परमानंद ||४|| मरुधर देश उधारण कारज, सादड़ी आन रुके मुनिवृंद। जैन श्वेताम्बर कांफ्रेंस का, अधिवेशन वहाँ सफल फलंद ॥ बाली में दो भवि दीक्षित हो, पन्यास सोहन साथ पूरंद । .ललित उमंग विद्यामुनि तोनों, पद पन्यास शोभे सुखकंद ॥६॥ छरि पालता संघ चतुविध, केसरिया जा हर्ष अमंद । गोमाजी संघवी पद पावे, शिवगंज वासी लाभ लहंद ||७|| जैन विद्यालय गोड़वाड़ को, मदद दिलावे सद्गुरु वृंद । संघवीजी दश हजार. देवे, हेतु विद्यालय विकषंद |
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( ४६ ) मधुर मिलन हो उदयपुर में, वल्लभ गुरुविजयनेमसूरींद । बाल ब्रह्मचारी थे दोनों, शिष्टाचार मधुर ध्वनि छंद ॥९॥ अनूपचंद मनसाचंद यतिजी, सद्गुरु प्रत्ये भक्ति धरंद । ज्ञान मंदिर करे वर्द्धमान का, उद्घाटन वल्लम मुनींद ॥१०॥ जाति चतुर अरू नाम है रोशन, उदयपुर निवास करंद । गुरु भक्ति जिनको रग-रग में, साथ मनोहर लाभ लहंद ॥११॥
विक्रम ऋषि ऋषि निधि शशि वर्षे, केशरिया भेटे सुख कंद । चैत्र सुदी दशमी दिन रचना, पूजा आदीश्वर जिन चंद ॥१२॥ विद्यालय पुस्तकालय स्थापित, स्थान-स्थान गोड़वाल करंद । गुरु चेले सब विचरण करते, मरुधर का उद्धार करंद ॥१॥ शान्ति वर्द्धमान की पेढ़ी, सोजत में स्थापित करंद । ब्यावर पर सद्गुरु की कृपा, पाठशाला स्थापित करंद ॥१४॥ आतम वल्लभ सूरि समुद्र, सद्गुरुजो उपकार करंद । ऋषभ सद्गुरु भावे पूजत, धूप पूजन टारे दुर्गन्ध ॥१५॥
॥काव्यम् ॥ भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज भास्करम् । जगत् वल्लभ विजय वल्लभ,
युग प्रधान सूरीश्वरम् ।।
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परमेष्ठिपद में मध्य पद के,
धारकम् भव . तारकम् । गुरूदेव वल्लभ सूरि पूजन,
सर्व विघ्न निवारकम् ।।
( मन्त्रः ) ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरुदेव परम शासन मन्य सूरि सार्वभौम ज० यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर चरण कमलेम्यो, धूपं यजामहे स्वाहा ॥४॥ ॥ अथ पांचवीं दीपक पूजा ॥
: दोहा : दीपक पूजा पांचवीं पंचमी गति दातार । वल्लभ गुरु के पूजतां, वर्ते जय जयकार ॥
वसु ऋषि निधि शशि वर्ष को, बीकानेर में आय । पौषधशाला विराजता, चारमास सुखदाय ॥ जयंति श्री जगद्गुरु, धूमधाम हो पाय । प्रारंभ किनी आपने, भारत भर में थाय ॥ सम्यग्य दर्शन ज्ञान की, पूजा रचना सुहाय। धारण खादी अंग में, शुद्ध वस्त्र अपनाय॥
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लाला दौलत रामजी, होशियारपुर सार । इक सौ सोना मोहर से, करे स्वस्तिक श्रीकार ॥ विद्यालय की प्रेरणा, प्रारम्भ कोष भी थाय । हिन्दू मुश्लिम सिक्ख समी, गुरू भक्ति कर पाय ॥ खादी का प्रचार करे, जैन भूषण मुनि राय । वल्लम पूरण योग्यता, मीठा वचन सुहाय ॥ मुसलमान तजे माँस को, लुधियाना सुखदाय । ब्राह्मण तजे शराब को, उपदेश खाली न जाय ॥ केशर चीनी अपवित्र, वस्त्र रेशमी साथ । वस्त्र विदेशी चर्बी का, त्याग करावे नाथ ॥ कमेटी खिलाफत जो, काँग्रेस संग थाय । अन्न वस्त्र भूखे नंगे, गुरु उपदेश से पाय ॥ अम्बाला विद्यालय का, कोष एकत्रित थाय । पुस्तकालय स्थापित किया, भविजन के हितदाय ॥ शांतिनाथ की प्रतिष्ठा, सामाना शुभकार । मालेर कोटला मांस तजे, मुसलमान हितकार ॥ विनती बम्बई नगर से, खबर ले ओ महाराज । विद्यालय महावीर को, लाज रखो गुरुराज || . ललित गणि तैयार हो, गुरु आज्ञा शिरधार ॥ उग्र विहारी जावंता, साधु पाद विहार !
(चाल-धन धन वो जग में नर नार) धन धन विजयवल्लभ सूरि राय, भवोदधि पार लगाने वाले || अ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(
५२
)
विक्रम रवि ऋद्धि निधि शशिराय, मिगसर सुदी पंचमी सुखदाय । साढ़े सात बजे जब थाय, आचारज पदवी पाने वाले ॥१॥
गुरु गुण छत्रीस के धरनार, युग प्रधान सूरि सुखकार । विजयानन्द सूरि पट्टधार, वीर का पाट दीपाने वाले ||२|| लाहौर ठाठ महोत्सव भारी, निरखत आवे सब नर नारी । पाठक पद सोहन गणिधारी, धर्म की शान बढ़ाने वाले ॥३॥ मोतीलाल मूलजी आवे, दुगड़ माणकचन्द खुश थावे । मंगत राम सूरि गुणगावे, गुरु भक्ति फल पाने वाले ||४|| * सुराणा शिवचन्द सुत आवे, रामपुरिया उदयचन्द भावे । डागी बाई मन हर्षांवे, गुरु मर्यादा पालन वाले ॥५॥ छगन भाई कालीदास, मगन भाव नगर का खास । टीकमचन्द जौहरी भयो दास, गुरु भक्ति गुण गाने वाले ॥६| काठियावाड़ कच्छ गुजरात, पंजाब यू० पी० मरुधर भ्रात । आतम पट्टधर के गुण गात प्रतिष्ठा पर सब आने वाले ॥७॥ ओसियाँ जैन मण्डल सुखकारा, मेवाड़ दक्षिण नमे भवि प्यारा ।। बाजे बैण्ड अति स्वर सारा, भक्ति धूम मचाने वाले ॥जा शहर पिचयासी नर नारी औच्छब आचारज पदभारी । करते भक्ति भाव विचारी, जिन शासन को दीपाने वाले ||१|| वादी तर्क निपुण अविकारा, सत्य उपदेश के गुरू कथनारा । बुद्धि वैभव का भण्डारा, ज्ञानी ज्ञान सुनाने वाले ॥१०॥ * बाबू श्री सुमेरमल सुराना
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( ५३ )
विप्लव वादी योगी महान् प्रतिभाशाली शिव सुख खान । • वाचक स्वर गम्भीर सुधार, ज्ञानकी ज्योति जगाने वाले ॥११॥ गुजरांवाला भूमि प्यारी, गुरुकुल स्थापित हो शुभकारी । -करते कोष लाख इक भारी, सच्चा मार्ग बताने वाले ||१२||
पाठक सोहन विजय सहकारी, पन्यास ललित विजय मनोहारी । वैष्णव विट्ठल बने पुजारी, दानी दान दिलाने वाले ॥१३॥ प्रवर्तिनी देवश्री महाराज, जिनको शिक्षण पर था नाज । उपदेश दे गुरुकुल हितकाज, ज्ञान की महिमा बढ़ाने वाले ||१४|| अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन हार, उग्र तपस्वी क्रांतिकार | देवत देशना भवि हितकार, जंगम तीर्थ कहाने वाले ||१५|| आतम वल्लभ शिव सुखकार, सूरि समुद्र गम्भीर उदार । ऋषभ गुरु भक्ति दिलधार, गुरु महिमा के गाने वाले ||१६|| : दोहा :
प्रवचनी धर्म कथित हुए, जिन शासन श्रृंगार । वादी तर्क निपुण अति, नैमेत्तिक बलिहार ॥ सद्गुरू करते गोचरी, लेते शुद्ध आहार । सात द्रव्य प्रति दिन लहे, मन सन्तोष आधार ॥ नोव आम्बिल इकासणा, व्रत उपवास अपार । बेले तेले पारणा, तप तपता श्रीकार ॥ ईच्छा रोधन तप करे, बाह्य अभ्यन्तर सार । आत्म शक्ति संचय करे, पर परिणति को निवार ॥
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( ५४ )
अणगार ।
ज्ञानवान गुणवान गुरु, मूर्ति मोहन गार । धर्म प्रभावक सूरीश्वर, भव जल तारण हार ॥ अंजनशलाका बिनौली प्रतिष्ठा कर नार । दे उपदेश कुआ बने, हो हरिजन उद्धार ॥ पालावत कल्लूमल की, लाज रखी प्रतिष्ठा मन्दिर हुई, अलवर जय जयकार ॥ सिंघोजी जसराज को, वल्लभ का आधार । वरकाणा जीवन दिया, शिक्षण के हितकार || प्रवर्तिनी आर्या दानश्रोजी, विदुषी कहलाय । शिक्षण हित सहयोग दे, गुरु भक्ति मन लाय ॥ सम्मेलन विद्यार्थी, पाटण मंगलकार । देव धरम गुरु आसता, वल्लभ की जयकार | ( सोरठ चाल — कुबजाने जादू डारा )
-
गुरु विजयवल्लभ सूरि प्यारा, जो भवोदधि तारण हारा रे ॥ अ ॥ पुण्यवान गुणवान् सुनिर्भय समयज्ञ कुशल व्यवहारा । निष्कामी निर्मल शुद्ध चिद् घन, उचित के जाननहारा रे ||१|| कवि शिरोमणि सज्झाय स्तवना, धर्म हेतु करनारा । राग रागिनी पूजाओं की रचना विविध प्रकारा रे ||२|| परमत वादी सिंह शिरोमणि जो सुविहित अणगारा । राष्ट्रीय भाषा हिन्दी मानी, देश काल अनुसारा रे ॥३॥ व्याख्यानी विज्ञानी तपस्वी, तत्व ज्ञान भण्डारा । धर्म धुरन्धर ज्ञान दीवाकर, जगजीवन हितकारा रे ||४||
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( ५५ )
पैदल सफर केशरिया बाना, उपदेशक मति वारा। पतितों का उत्थान किया था, करुणा रस भण्डारा रे॥ आहोर ठाकुर पुत्र कुमार ने, भक्ति हृदय में धारा। दारू मांस का भक्षण त्यागा, अपना जीवन सुधारा रे ॥६|| महाराणा भूपाल सिंह ने, राज महल सत्कारा । गुलाब बाग व्याख्यान कराकर, जय जय शब्द उच्चारा रै ॥७॥ नबाब मालेर कोटला गुरू के चरण कमल पुजारा । धर्मलाभ आशिष थावे, सुख सम्पत्ति अधिकारा रे ॥ पालनपुर नबाब साहब ने, गुरू आज्ञा शिर धारा । गुरु भक्ति से लाभ उठायो, अन्न धन लक्ष्मी सारा रे ॥९॥ पालीताना ठाकुर साहब का, भक्ति भाव उदारा । गुरु वल्लभ का स्वागत करते, आनन्द मंगल कारा रे ॥१०॥ पटियाला नाभा के नरेश ने, गुरु की सेवा धारा । गुरु वल्लभ की भक्ति करता, अपना काज सुधारा रे ॥११॥ पट्टधारी गच्छ थंभ आचारज, युग प्रवर सुख कारा । दया दान शिक्षा उपदेशक, जीव परम उपकारा रे ॥१२॥ फलौदी से संघ चला इक. जेशलमेर मझारा। ज्ञान सुन्दर अरू पांच वैद्य की, भक्ति का नहीं पारा रे ॥१३॥ जेशलमेर जवाहर सिंहजी, भक्ति हृदय में धारा । राज महल में स्वागत करते, महिमा खूब प्रचारा रे ॥१४॥ पोरवाल जाति का सम्मेलन, आप सफल कर नारा । अज्ञान तिमिर तरणि पद पावे, जगमें जय जयकारा रे ॥१५॥
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( ५६ ) कलिकाल कल्पतरू पदवी, गुरू सार्थक करु नारा । सोतों को झकझोर जगाया, देकर धर्म आधारा रे ॥१६॥ पंडित मोतीलालजी नेहरू, गुरु उपदेश को धारा । धुम्रपान का त्याग किया था राष्ट्रीय नेता प्यारा रे ॥१७॥ पंडित मदन मालवीय मोहन, गुरु आज्ञा शिरधारा । दर्शन जैन की कुर्सी थापी, विश्वविद्यालय मंझारा रे ॥१७|| आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारा । गुरू वल्लभ को दीपक पूजत, दीपक सम उजियारा रे ॥१९॥
काव्यम् भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज भास्करम् । जगत् वल्लभ विजय वल्लभ,
युग प्रधान सूरीश्वरम् ॥ परमेष्ठि पद में मध्य पद के,
धारकम् भव तारकम् । गुरूदेव वल्लभ सूरि पूजन,
सर्व विघ्न निवारकम् ।।
( मन्त्र :) ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरूदेव, परम शासन मान्य, सूरि सार्वभौम जं० यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लम सूरीश्वर, चरण कमलेभ्यो दीपकं यजामहे स्वाहा ॥शा
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( ५७ )
॥ अथ षष्ठी अक्षत पूजा ॥ : दोहा :
षष्ठी अक्षत पूजना, अक्षय पद दातार । भावे सद्गुरू पूजिये, अक्षत पूजा सार ॥ अहमदाबाद पधारिया, मुनि सम्मेलन थाय • नेमि सूरि संग आपको, सफल श्रेय मिल पाय ॥ विद्यालय महावीर का, आद्य प्रेरक गुरु राय । अमृत काली दास भी, भक्ति रंग रंगाय ॥ जन्म शताब्दी आतम की, बड़ौदा उजवाय । सादड़ी से लब्धि सूरि, अनुमोदन फल पाय ॥ शास्त्री ईश्वरानंदजी, हीरानन्द संग थाय । शास्त्री पंडित हँस भी सद्गुरु के गुण गाय ॥ प्रज्ञा चक्षु न्याय के, पंडित श्री सुखलाल । महिमा गुण वर्णन करे, बड़ौदा तत्काल ॥ कस्तूर ललित उमंग संग, विद्या सूरि कहाय । लाभ प्रेम सब विजय पद, सूरि पाठक पद पाय । शकुन्तला कान्ति भाई, सच्चे मोती बधाय । डाक्टर राजेन्द्र तभी, दर्शन कर हर्षाय ॥ कस्तूर भाई सेठ करे, जैनी आगेवान | उद्घाटन कॉलेज का, अम्बाला सन्मान ॥ वंदन विधि पूर्वक करे, गुरु का दर्शन पाय । गरुभक्ति पंजाब की, निरखत
हर्ष मनाय ॥
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(
५८
)
फूलचन्दजी श्यामजी, सच्चा भक्त तिहार । मोहन मगन श्रद्धालु, गुरू भक्ति कर नार ॥ कांती ईश्वर दानी जो, करे सखावत सार । पुस्तकालय कॉलेज का, उद्घाटन कर नार ॥ वल्लभ भाषण प्रतिभा पर, भवि लक्ष्मी वर्षाय । ज्ञान मन्दिर हेम सूरिका, पाटण में बन जाय ॥ मन्दिर पूजक नये बने, वहाँ मन्दिर बनवाय । प्राचीन मन्दिर जहाँ खड़े, जीर्णोद्धार कराय ।। शासन दीपक सूरि पुंगव, समाज काज सुधार ।
जगह जगह गुरू मन्दिर का, गुरू स्थापन कर नार ॥ (चाल-- मान माया ना कर नारा रे
चाल-सूरि राय पूजन सुखकारी रे खेमटा) वल्लभ सूरि उपकारी रे भवि पूजो सुभाव मन धारी || अ॥ धर्म आराधन करे करावे, जिन वचन अनुसारी । आप तरे भवि जन को तारे, सौम्य मूर्ति मनोहारी रे ॥१॥ ज्ञान सुहंकर चिद्घन संगी, जगजीवन हितकारी। स्वामी बोधानन्द सूरि का, बनता चरण पूजारों रें |२|| जगह जगह वाचनालय स्थापा, महिमा ज्ञान प्रचारी। पुरुषोत्तम सुरचंद सद्गुरु के, चरण न पर बलिहारी रे ||३|| दारू मांस का त्याग कराया, जिनकी गिनती अपारी। लब्बूराम. श्रावक पद पावे जैन धर्म अंगीकारी रे॥8:
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( ५६ )
9
मनोहारी रे ||७||
छोटेलाल शाह दूगड़ को श्रद्धा अनुपम त्हारी । संक्रांति को सफल मनावे, चमत्कार थयो भारी रे ॥५॥ सद्गुरू बीकानेर पधारे, स्वागत मंगलाचारी । नव दरवाजा खूब सजाया, राज्य लवाजम भारी रे ||६|| चैत्री ओली दिक्षा उत्सव, प्रतिष्ठा शुभकारी । तप गच्छ दादा बाड़ी होवे, गुरू मन्दिर प्रेरणा साध्वी वसंत श्री की कहता न कोचर मण्डली भक्ति करती, सद्गुरू गुण गानारी रे ||5|| दादा साहब सूरित्रय की पूजा अष्ट प्रकारी । दास ऋषभ रचना कर गावे, प्रेरणा सद्गुरु म्हारी रे ||९|| धूम करे निशि दिन यति गण, अभिमानी शिथिलाचारी । पाखण्ड मद उनका चूरा था, वल्लभ सूरि ब्रह्मचारो रे ||१०|| बीकानेर की राणी विदुषी, भेजे भेंट तिहारी ।
•
साधु आचार के विरुद्ध बताकर, भेंट नहीं स्वीकारी रे ||११|| वल्लभ हीरक जन्म महोत्सव ठाठ हुआ था मारी । भूल नहीं सकते उस दिन को, निकली प्रभु की सवारी रे ||१२|| चौक सतावीस घूमे सवारी, आनन्द मंगलकारी । सम्मलित होवे शिष्यों के संग, वल्लभ सूरि उपकारी रे ||१३|| महाराणी की विनती पाकर, देशना कौनी जारी।
आवे पारी ।
गंगा थियेटर प्रजा मिनिष्टर, जय जय शब्द उच्चारी रे ||१४|| रामपुरिया जावंत भंवर ने, गुरुं की सेवा धारी । प्रतिज्ञा मेघराज सुराणा, सफल करे अवतारो रे ॥१६ ॥१
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मंत्र काला गुरू अतिशय धारी, अनेक लब्धि भण्डारी। रामरतन कोचर की साहेब, विपदा दूर निवारी रे ॥१७॥ आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारो। विजय वल्लभ सूरि पूजत भावे, सुख सम्पति अधिकारी रे ||१८||
: दोहा :
कोचर लक्ष्मी प्रसन्न चंद, छोटू बैद कहाय । सुराणा रूप चंद भी, श्रद्धा फूल चढ़ाय ॥ दानवीर भैरू पूनम, कोठारो कहलाय । वल्लभ को कर वंदना आनन्द हर्ष मनाय ॥ झाबक मंगल फूलचंद भक्तिकर सुख पाय । करनावट सोहन तेरो, साचो भक्त कहाय ॥ बंशी रोशन वृजलाल, गुरू चरणों में जाय । भक्त वत्सल कृपा करी, विपदा दूर हटाय ॥ चौरासी गच्छ मानते, शासन थंभ कहाय । सम्प्रदाय सब जैन के, वल्लभ के गुण गाय ॥ धन्नी बाई श्राविका, श्रद्धा का नहीं पार | शिक्षण हित सहयोग दे, भाग्यवती सद्नार ।। लूणकरणसर गाँव में चुन्नी जागीरदार । दारू मांस को त्यागता, गुरु भक्ति करनार ।। फाजिलका बंगला बने, जिन मन्दिर सुखकार । प्रतिष्ठा सद्गुरू करे, आनन्द हर्ष अपार ॥
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दादा प्रभावक सूरि की, पूजा अष्ट प्रकार । प्रेरक वल्लभ सूरि थे, ऋषभ रचना कार ॥ खान साहब अफर खान, अभिनन्दन कर पाय । जन्म सुधारे स्वयं का, गुरु भक्ति मन लाय ॥ कुंवर सेन मुनि मानते, भक्ति लगन अपार ।
राम गुरू भक्ति करे, कवि काव्य कर नार ॥ ( चाल-जिन मत का डंका आलम में वजवा दिया शिवपुर वाले ने ).
जिन धर्म का झण्डा लहराया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने। जिन धर्म सनातन दीपाया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥ अ॥ दुगड़ इक दीनानाथ हुए, ज्योतिष विद्या प्रवीण भये । चौधरी पद पर प्रसिद्ध किये, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥१॥ स्वर्गारोहण आतम गुरू का, शताब्दि अर्द्ध मनाया था। गुजरांवाला पंजाब में जा, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||२|| दुगड़ रघुवीर सु गुण गाता, भक्ति ज्ञानचंद सुकर पाता। उन दोनों के शिर हाथ धरा, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥३॥ राय कोट प्रतिष्ठा उत्सव था, मंदिर पूजक अति बनपाये । कई अन्य मति को बोध दिया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥४॥ श्यालकोट प्रतिष्ठा करवाया, संघ अंजन शलाका भरवाया। तस मुक्ति मंदिर नाम धरा, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥५ जब देश विभाजन होया था, दुष्टों ने गुरू पर बम फेंका। उनको भी ठंडागार किया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥६॥
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( ६२ )
मारकाट मची गुजरांवाला, संघ आन फंसा संकट में था । चारित्र बल से रक्षा कोनी, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥७॥ जिन प्रतिमा साधु साध्वियाँ, श्रावक श्राविका मंडल को । पहुंचाया सुरक्षित भारत, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||5|| संयम अरु त्याग तपस्या बल, पंजाब केशरी पद सार्थक | गुरू चमत्कार कई बतलाया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||९|| महिलाओं पर अति जुल्म हुए पाकिस्तां के भू भागों पर । पतिताओं का उद्धार किया प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||१०|| सादा रहना सादा चलना, सादा भोजन का बतलाया । स्वधर्मी भक्ति बोध दिया, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ॥११॥ शुद्ध देव गुरू अरु धर्म तत्व, श्री सद्गुरु ने बतलाया था । जिन शासन मार्ग बताया था, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||१२|| सवी जीव करू शासन रसी, इसी भाव दया मन उल्लसी ।
पालन करना सिखलाया था, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||१३|| जलस्थल गिरि नम प्रतिभा चमकी, मस्तक जाज्वल्यमान वस्तु | दीपाया वीर प्रभु शासन, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||१४|| आतम वल्लभ समुद्र समां, गुरूऋषभ प्राणाधार बना । सुख अक्षय को अक्षत पूजा, प्रभावक वल्लभ सूरि ने ||१५||
( काव्यम् )
भवि जीव बोधक, तत्व शोधक, जिन मताम्बुज विजय वल्लभ, युग प्रधान सूरीश्वरम् ॥
भास्करम् ।
जगत् वल्लभ
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( ६३)
परमेष्ठि पद में मध्य पद के.
धारकम्
भव
गुरुदेव
पूजन,
वल्लभ सूरि सर्व
तारकम् ।
निवारकम् ॥
विघ्न
( मंत्र : )
ॐ ह्रीँ श्री परम गुरुदेव परम शासन मान्य, सूरि सार्वभौम जं० यु० प्र० भट्टारक, जैनाचार्य, श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर चरणकमलेभ्यो, अक्षतं यजामहे स्वाहा ॥६॥
॥ श्री सप्तमी नैवेद्य पूजा ॥ : दोहा :
मन मोदक मधुरात्मा, परम गुरु महाराय | नैवेद्य पूजो भाव से, पावो शिव सुख दाय || जिन प्रतिमा जिन सारखी, वर्णी सूत्र मकार । गुरु वल्लभ वर्णन करे, प्रभु पूजा अधिकार । ज्ञाता अंगे द्रौपदी, अम्बङ उववाई मांय | सूरिया पूजा करी, राय पषेणी बताय ॥ भगवती सूत्र बखाणियो, पूजा का अधिकार । पूजी तुंगिया नगर में, श्रावक भक्ति मंकार ॥ विजय देवता पूजता, जीवाभिगम मांय । तिस कारण पूजो भवि, जिन प्रतिमा हित दाय ||
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साधु पूजे भाव से, जो सुविहित अणगार । श्रावक द्रव्य भाव से, निज शक्ति अनुसार ।। अठाई मोच्छब अति, गाँव शहर सब थाय । पूजन भक्ति भाव से, नर नारी फल पाय ।। जौहरी भोगीलालजी, अहमदाबाद निवास । पूजा श्री ब्रह्मचर्य की, प्रेरक बनते खास ।। राग मधुर पद काव्य में, सद्गुरु रचनाकार । ब्रह्मचर्य गुणगान का, कीना सविस्तार ।। गावे वल्लभ सद्गुरु, पर आतम कल्याण । तीन सुधारो प्रेम से खान पान पहिरान ॥
(तर्ज कव्वाली चाल-मुनि परमेष्ठि पद पूजन) वल्लभ गुरूदेव का पूजन करो भवि जीव शुभ भावे॥ अ
परम पंडित गीतारथ है, आगम का रहस्य समझावे । मृदु भाषी प्रखर वक्ता, स्याद्वाद् महत्व बतलावे ॥१॥ एम० ए० शास्त्री राज पृथ्वी, जैन तेरी शरण पावे । दिया आशीष सद्गुरू ने, पंजाबी नाम चमकावे ॥२॥ पशु पक्षि अरि मित्र माने सब जीव सम भावे । भरे जग भाव मैत्री का, धरम उपदेश फरमावे ॥३ दर्शन अरु ज्ञान चारित्र, आराधत हर्ष नहीं मांवे निराभिमानी निष्पृही, सरल मध्यस्थ कहलावे ॥४॥ विना दर्शन करे प्राप्ती, उदय में ज्ञान नहीं आवे । क्रिया नहीं ज्ञान बिन शुद्धि, गुरु मुख आप फरमावे ॥१॥
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प्ररक मालेर कोटला का, डिग्री कॉलेज बन जावे। रतनशाह जैन पंजाबी, कामना पूर्ण कर पावे ॥६॥ महेन्द्र मस्त सामाना, गुरु महिमा के गुण गावे। नाजरचन्द दास है तेरा, शायरी भक्त कर पावे ॥७॥ मरूधर भ्रात पंजाबी, संक्रांति श्रवण जब आवे। कल्याणक दिन जिनेश्वर का, आराधो आप फरमावे ॥णा कपूरशाह और दिवानचन्द, सेवा कर धन्य कहलावे। गुरु चरणों की सेवा से, परम आनन्द मन पावे ॥९॥ विजयकुमार अम्बाला, गुरु का दास बन जावे । करे भक्ति स्वधर्मी की, केन्द्र उद्योग विकसावे ॥१०॥ आतम वल्लभ गुरु पूजत, धीर समुद्र समथावे । ऋषभचन्द दास सद्गुरू का, पूजत मन हर्ष नहिं मावे ॥११॥
य
॥
: दोहा : वरकाणा विद्यालय, पार्श्व प्रभु की छाँय । कॉलेज जैन का फालना, खबर लेवे गुरूआय ॥ सुन्दर शिक्षण व्यवस्था, अध्ययन लगन अपार । पूजा सामायिक करे, प्रभु किर्तन करनार ॥ देव धर्म गुरु श्रद्धालु, विद्यार्थी समुदाय । निरखत हर्षित होत है, विजयवल्लभ सूरिराय ॥ सम्पतराजजी भणशाली, सच्चा भक्त कहाय.! वरकाणा जीवन सौंपा, शिक्षण के हितदाय ॥
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कॉन्फ्रेंस श्वेताम्बर का, अधिवेशन इक थाय । कस्तुर भाई सेठ वहाँ. उद्घाटन कर नार ॥ कांति ईश्वर प्रमुख था, फालना में उजवाय । सान्निध्य वल्लभ सूरि का, नव जीवन दे पाय || सात क्षेत्र का पोषक है, श्रावक श्राविका आज । हो प्रथम मजबूत ये, फरमावे गुरु राज ॥ देव द्रव्य सद्वय करो, जीर्णोद्धार के काज । सद्गुरु देते प्रेरणा, शासन हित के काज ॥ दहा नाम गुलाबचन्द, संघ जयपुर से लाय । दानी सोहन दूगड़ भी, गुरू का दर्शन पाय ॥ दूगड़ मन भक्ति जगी, देख गुरू का प्रभाव । शिक्षण हित सहयोग दे, दानी दान स्वभाव ।। मूलचन्दजी छज्जूमल, सभापति पद पाय । तन मन धन सहयोग दे, वरकाणा हित दाय ॥ बक्सी कीर्तिलालजी, पालनपुर मोझार ।
नास्तिक से आस्तिक बना, चमत्कार श्रीकार || (चाल-पूजन कीजो जी नर-नारी गुरू महाराज का हो पूजन कीजो जी तुम भवियाँ गुरु महाराज का हो || अ॥
शत्रुजय डंगर पर देहरी, आतम की मनोहारी। प्रतिष्ठा हो सप्त धातु की, प्रतिमा आनन्द कारी ॥१॥ पालीताना विराजित साधु, एकत्रित जब थावे । संगठन साधन के हेतु, आपस में बतलावे ॥२॥
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( ६७ )
प्रश्न उठा इक कौन है ऐसा, मध्यस्थ सरल स्वभावी ।
वल्लभ सा दीखे नहिं कोई,
युग में प्रगट प्रभावी ॥३॥
सौराष्ट्र में ढेबर भाई, काँग्रेस परधान | गुरू वल्लभ का दर्शन करके, पाया जग में मान ||४|| पंजाबी घनश्याम बरड़िया, गुरु का भक्त कहावे । सर्प डंस का जहर उतारा, नव जीवन वो पावे ॥५॥ लाला शांतिलाल पंजाबो, गुरु चरणों का चाकर । संक्रांति चूकण नहिं पावे, चमत्कार को पाकर ||६|| भावनगर काठियावाड़की, विनती मान धरावे । आतम कांति मन्दिर ज्ञान का उद्घाटन कर पावे ||७| कापड़िया परमानन्द भाई, जिज्ञासु बन आवे । वल्लभ सा सच्चा सूरिलख, चरणों बड़ौदा में वाड़ी भाई, स्वागत धूम दर्शन जैन धर्म की महिमा, सद्गुरू जी
9
शीश झुकावे ॥८॥
मचावे |
बतलावे ||९||
विजय उमंग सूरीश्वर माने, जब पंजाब को जाना । तिस कारण सद्गुरु से पाते, पट्टधर का सन्माना ॥१०॥
८
विक्रमऋद्धि नभ भू कर वर्षे, फागण सुदी शुभ थावे । समुद्र पूर्णानन्द विजयजी, उपाध्याय पद पावे ||११|| - आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारी । नैवेद्य पूजत सद्गुरू वर के, आनन्द हर्ष अपारी ||१२||
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( ६८ )
भवि जीव बोधक.
जगत् वल्लभ
काव्यम् तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज भास्करम् ।
विजय
वल्लभ,
सूरीश्वरम् ॥
युग
प्रधान
परमेष्ठि पद में मध्य पद के,
भव
गुरुदेव वल्लभ
पूजन,
धारकम्
सूरि सर्व विघ्न
( मन्त्र : )
ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरूदेव, परम
सूरि सार्वभौम श्री श्री १००८
चरण
तारकम् ।
निवारकम् ॥
शासन मान्य,
जं० यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर, कमलेभ्यो नैवेद्य यजामहे स्वाहा ॥७॥
॥ अथ आठवीं फल पूजा ॥ : दोहा :
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फल पूजा गुरुराज की, कीजे विविध प्रकार | फल पूजा से फल मिले, सुख सम्पत्ति भंडार || प्रतिष्ठा जिन मन्दिर की, बड़ौदा कर पाय । अभि करना भरता वहाँ, चमत्कार बतलाय ॥
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भाईचन्द त्रिभुवन भाई, गुरु भक्ति कर नार आदीश्वर नेमि जिन की, बोले जय जयकार || फूलचन्द जी खीमचन्द, वल्लाद का कहलाय । गुरु निश्रा में प्रतिष्ठा, जगह जगह कर पाय ।। शासन के सम्राट हैं, गुरू युगवीर कहाय । सामाजिक कल्याण का, चमत्कार बतलाय ।। संघ रक्षक सूरीश्वरा, तीर्थ झगड़िया जाय । गुरुकुल को स्थापित करे, विश्ववत्सल महाराय ॥ सद्गुरू बम्बई आवंता, स्वागत हर्ष बधाय । गोडीजी के ट्रस्टीगण, अगवानी कर पाय ॥ नवयुग निर्माता पुस्तक, गुरु पूरण कर पाय । सौंपा पंडित हँस को, सम्पादन हित दाय । महत्ता श्री मगराज की, श्रद्धा का नहिं पार । गुरु भक्ति में झमता, कवि काव्य कर नार ॥ दर्शन सत्तरी ग्रन्थ में, प्रभावक अधिकार । सो सब गुण धारक गुरू, भट्टारक जयकार ।।
(चाल-गुरू. समरतन अमोलक पायों) शुरू तव पूजन शिव सुखदाय ॥ अ॥ कॉन्फैन्स का स्वर्ण महोत्सव, भायखाला उजवाय । सान्निध्य वल्लभ सूरीश्वर का, सफल श्रेय मिल पाय ॥१॥ मध्यम वर्ग के दुख ददी की, चर्चा आप सुनाय । रोटी, रोजी, शिक्षण औषध, इनको दो हुलसाय ॥२॥
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( ७० ) जैन धर्म विषयक प्रश्नोत्तर, देखो नजर उठाय । स्वधर्मी बन्धु की भक्ति, करना गुरु फरमाय ॥३॥ दूध त्याग की प्रतिज्ञा से, वातावरण फैलाय । स्वधर्मी भक्ति उत्तम है, भारत भर में थाय ॥8 पांच लाख एकत्रित होता, स्वधर्मी हित दाय । खींमजी छेड़ा सेवा करता, भक्ति रंग रंगाय ॥५॥ पूर्वाचार्य प्रभावक सूरि, जयन्ती मनवाय । तपा खरत्तर भेद मिटावो, गुरू उपदेश सुनाय ||६|| जगद्गुरू की अष्ट प्रकारी, पूजा सब मन भाय । प्रेरक भारत दिवाकर थे, ऋषभ कृति बनाय ॥७॥ संघ चतुर्विध मध्य इक है, साध्वियां समुदाय । ज्ञानी ध्यानी प्रवचन करती, जिन शासन हितदाय || दारू बन्दी आन्दोलन को, काँग्रेस चलवाय । सद्गुरु के व्याख्यान कराकर जनता लाम उठाय ॥९॥ दारू माँस छींकनी त्यागो, सद्गुरूजी फरमाय । चमत्कार को देख के जनता, आज्ञा शीश उठाय ॥१०॥ गांजा भांग तमाकु त्यागे, नर नारी समुदाय । वल्लभ गुरू के चरण कमल में, जनता शीश झुकाय ॥११॥ आवक तप उपधान की माला, स्वप्न को कहाँ ले जाय । जैसी जिसकी भावना होवे, उस खाते में जाय ॥१२॥ साधारण खाता इक ऐसा, सब खातों में जाय । तिस कारण आवक हो उसमें, सूरि सम्राट बताय ॥१३॥
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( ७१ ) सूरि सार्वभौम सद्गुरुजी, दीर्घ दृष्टि बतलाय ! अयोग्य दीक्षा मत कोई देवो, शासन के हितदाय ॥१४॥ आतम वल्लभ सूरि समुद्र, मरूधर राट् कहाय । दास ऋषभ चरणों का चाकर, गुरू भक्ति गुणगाय ॥१५॥
: दोहा : गोडीजी के ट्रस्टी संग, संघ सकल हुलसाय । शासन मान्य सूरीश्वर की, आज्ञा शीश उठाय ॥
विक्रम निधि नभ भूमि कर ठाणा नगर सुहाय । उपाध्याय समुद्र विजय, सूरीश्वर पद पाय || करता ओच्छब ठाट से, साठ सहस्त्र नर नार । वासक्षेप गुरु वल्लभ का, वर्ते जय जयकार || भोगीलाल लहरचन्द, पाटण का कहलाय । सद्गुरू पर श्रद्धा अटल, साचो भक्त कहाय ॥ लाल बाग उपाश्रय, विनती अर्ज सुनाय । भक्त वत्सल कृपा करो, चातुमास बिताय ।। रमण पारख कपड़ वंज, गुरु चरणों में जाय । जेशिंग लल्लू पाटण का, चरणों शीश झुकाय ।। बरड़ प्यारेलालजी, पंजाबी कहलाय । तन मन धन अर्पण करे, धार्मिक उत्सव मांय ॥ तिथी चर्चा झगड़ा बुरा, सुन लो ध्यान लगाय । पंचांग जैन महेन्द्र से, मूहुर्च सब सच पाय ॥
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( ७२ ) सम्प्रदाय सब जैन के, संगठन हितकार । महावीर के पुत्र सभी, राखो सद्व्यवहार ॥ क्षमत क्षामना करते हैं, अन्तिम अवसर जान ।
सूरि समुद्र को सौंपते, पट्टधर का सन्मान ॥ (चाल—ऐवा मुनिवर क्यांथी मल से श्री गुरू अातम राम रे) पूजो वल्लभ सूरीश्वर ने, भविजन भाव उदारी रे । तत्व बोध जिन आगम धारी, विकथा कषाय निवारी रे ||
विक्रम चन्द रवि भू कर में, बम्बई नगर मझारी रे । संघ सकल को देत देशना, अन्तिम काल विचारी रे ॥२॥ अर्हन् अर्हन् शब्द उच्चारे, गुरु अनशन मन धारी रे । आसोज वदी इग्यारस दिवसे, स्वर्ग विमान विहारी रे ॥२॥ स्वर्ग समय में इन्द्र को आसन, थर थर कंपे भारो रे । इन्द्र धनुष गगन में देखा, बम्बई नगरी सारी रे ॥३॥ देव देवी मिल घण्ट बजायो, सुनते सब नर नारी रे। मरीन ड्राइव गूंज उठी थी, ध्वनी निकसी सारी रे ॥४॥ हा ! हा ! कार भयो जिन शासन, उठ गयो मति श्रुत धारी रे । जय जय नन्दा ! जय जय भदा ! बोले सब नर नारो रे ||शा बैकुण्ठी भी खूब सजायी, देव विमान सी सारी रे। लाखों नर नारी मिल करते, ओच्छब निर्वाण भारी रे ॥६ हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, भक्ति करत अपारी रे । पारसी, जैनी, आर्य समाजी, चरणन् पर बलिहारी रे ॥७॥
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( ७३ )
:.
• रूपा सोना पुष्प उच्छाली, गिन्नी रूपया भारी रे । बम्बई नगरी उमड़ पड़ी थी, कहतां न आवे पारी रे ||5|| तेरापंथी तुलसी स्वामी, आचारज पद धारी रे। आकर श्रद्धांजलि देवे, प्रशंसा करे भारी रे ||९||
पंडित रत्न मुनि सुशील की श्रद्धा अनुपम भारी रे । प्रशंसा सद्गुरू की करता, साधु पाद विहारी रे ||१०||
देशाई मुरारजी देता, श्रद्धांजलि सुखकारी रे। • नगर पालिका धारा सभा के सभ्य बने सहकारी रे ॥११॥
3
साकरचन्द मोतीलाल, राधनपुर परिवारी रे । दहन समय लाभ उठायो, लक्ष्मी खर्ची सारी रे ||१२|| • भारत भर के जैनी साधु, देव वंदन किया जारी रे । जिसने देव वंदन नहीं कीना, सो मति मूढ़ गंवारी रे ||१३|| भायखाला गुरु मन्दिर बनता, पूजे सब नर नारी रे। वर्ण अठारह दर्शन आवे, भक्ति भाव मंभारी रे ||१४|| प्रसन्नचन्द कोचर की भक्ति, कहता न आवे पारी रे। पालीताना विहार बनावे, पार्श्व वल्लभ भारी रे ||१५|| थान थान गुरू चरण विराजे, मूरति मोहन गारी रे। भक्ति भाव से पूजन करता, अन्न धन लक्ष्मी सारी रे ||१६|| आतम वल्लभ सूरि समुद्र, ऋषभ प्राणाधारी रे । गुरु वल्लभ का पूजन करतां, फल पूजा फलकारी रे ||१७॥
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(
७४
)
(काव्यम् ) भवि जीव बोधक, तत्व शोधक,
जिन मताम्बुज भास्करम् जगत् वल्लभ विजय वल्लभ,
युग प्रधान सूरीश्वरम् ॥ परमेष्ठिपद में मध्य पद के,
धारकम् भव तारकम् । गुरूदेव वल्लभ सूरि पूजन, ___ सर्व विघ्न निवारकम् ।।
( मन्त्रः ) ॐ ह्रीं श्रीं परम गुरुदेव परम शासन मान्य सूरि सार्वभौम जं. यु० प्र० भट्टारक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर चरण कमलेभ्यो, फलं यजामहे स्वाहा ।।
॥ कलस ॥ आज गुरुदेव गुण गाया, इह पर लोक सुखदाया । इक्कीस सदो युग प्रधानेश्वर, नहीं कोई दूसरा पाया | अ ॥ हुए अनन्त तीर्थंकर होंगे अनन्त जिनराया ।। वर्तमान चार बीस थाया, अन्तिम महावीर जिनराया ॥१॥ पाटानुपाट पद पाया, तपा गच्छ राज्य दीपाया । तरणि अज्ञान तिमिर सोहे, विजय वल्लभ सूरि राया ॥२
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केशरी पंजाब पद शोभित, कल्पतरु कलिकाल राया ।' भट्टारक गुण सुशोभित कर, गुरु युगवीर कहलाया ॥३: हरे दुःख भांति भांति का प्रभावकाचार्य सुखदाया। करूँ वर्णन कहाँ तक मैं, गुणों का पार नहीं पाया ||४||
गुरू समुदाय में दोपे, विजय उमंग सूरि राया। . विजय समुद्र पूर्णानन्द, सूरीश्वर पद को चमकाया ||५||
नेम विकास उदय दर्शन, चन्दन पन्यास कहलाया। रमणीक पन्यास गणि राम, गणि इन्द्र जनक भाया ॥६॥ आगम के सूर्य हैं तपते, विजय पूण्य मुनि राया । सेवा साहित्य की करते, नहिं इन समा कोई पाया ||७H तपे शिव विशुद्ध वल्लभदत्त, सुरेन्द्र प्रकाश मुनिराया । बलवंत जय न्याय विनीत आदि, विजय पद धारी समुदाया || It विबुध सन्तोष मित्र रवि, विचरते साधुगण राया। गुरू का नाम कर रोशन, विजय पद खूब दीपाया ॥९|| प्रवर्तिनी हेम माणक्य, विदुषो आदि साध्वियाँ। धरम उपदेश जग करती, चारित्र बल खूब विकसाया ॥१०॥
होर विजय सूरि रास रचना, इशु वसु रश निशिराया। कवि ऋषभदास श्रावक को, मुनि मण्डल अपनाया ॥११॥ मरुधर देश अति सुन्दर, बीकानेर शहर सुपाया। बोसा ओसवाल डागा गोत्र.पिता मूलचन्द्र गुणी थाया ॥१२॥
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( ७६ )
• वर्तमान शहर कलकत्ता, बंग प्रदेश कहलाया । .. मातु पान बाई सुत ऋषभ, करी रचना मंगल गाया || १३|| पूजा है अष्ट प्रकारी, राग रागिनी मधुर भाया ।
साधु शुभ भाव से पूजे, श्रावक द्रव्य भाव अपनाया || १४ || विजय वल्लभ सूरि पट्टधर, विजय समूद्र सूरि राया । करो प्रेरणा कृति काजे, कृपा फल नीर वरसाया ||१५||
६ १ ० २
. विक्रम रस चन्द्र भू कर में, वदी आसोज शुभ दाया । एकादशी गुरु जयन्ति को, शहर आगरा आनन्द छाया ||१६|| • समुद्र सद्गुरु दर्श ऋषभ, पूर्वं पूण्य उदय पाया । पुरण रचना हुई आजे, परम आनन्द मन पाया ||१७||
॥ सम्पूर्ण ॥
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( ७७ )
आरती ॐ जय जय गुरू राया, स्वामी सद्गुरू महाराया। आरती करूँ हितकारी २, शुद्ध मन वच काया ॥ अ॥ ज्ञान दरश चारित्र सोहे, तप गुण पद पाया ॥ स्वामी तप०॥ माया मोह ग्रसित जोवों को २, धर्म बोध दाया | ॐ ||१|| विजयानन्द सूरि पट्टधारी, वल्लभ सूरि राया ॥ स्वामी वल्लभ ।। कलिकाल कल्पतरू २, कीर्ति जग छाया ॥ ॐ ||२|| अज्ञान तिमिर तरणि गुरु जग में शिक्षण फैलाया ।। स्वामी शिक्षण || भारत दिवाकर गुरु २, ज्योति प्रगटाया ॥ॐ ||३| मरूधर राट पंजाब केशरी प्रसिद्ध कहलाया ॥ स्वामी प्रसिद्ध । जंगम युग प्रधान २, मंगल फल दाया ॥ॐ ||४|| हिन्दू मुश्लिम ईशाई मन श्रद्धा अधिकाया | स्वामी श्रद्धा ॥ पारसी, सिख, जैनी सब २, पूजे गुरू पाया ॥ॐ ॥॥ सूरि सम्राट सभी गच्छ माने, भक्ति उम्हाया ।। स्वामी भक्ति ।। जिसने ध्यान लगाया २, वांछित फल पाया ॥ ॐ ॥६॥ वल्लभ गुरू की आरतो करतां, आनन्द मन छाया ॥ स्वामी आ० ।। वल्लभ सूरि समुद्र २, ऋषभ गुण गाया || ॐ ॥७॥
-octopooShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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में क्या चाहता हूँ?
COM
"होवे कि न होवे, परन्तु मेरा आत्मा यही चाहता है कि साम्प्रदायिकता दूर हो कर जैन समाज, मात्र श्री महावीरस्वामो के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर श्री महावीर की जय बोले तथा जैन शासन की वृद्धि के लिए ऐसी एक "जैन विश्वविद्यालय” नामक संस्था स्थापित होवे। जिससे प्रत्येक जैन, शिक्षित होकर, धर्मको बाधा न पहुंचे, इस प्रकार राज्याधिकार में जैनों की वृद्धि होवे। ___ फलस्वरूप सभी जैन शिक्षित होवें और भूक से पीड़ित न रहें। शासन देवता मेरी इन सब भावनाओं को सफल करें, यही चाहना है।"
-वल्लभ सूरि
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परिशिष्ट
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[ म ] पूज्य आचार्य श्री के सदुपेदेश द्वारा निर्मित नवीन मन्दिरों की नामावली :१ सामाना (पंजाब) २ सढौरा ( , ) ३ रोपड ( , ) ४ उरमडतांडा ( , ) ५ मियानी ( " ) ६ जालंधर शहर ( , ) ७ नारोवाल (पंजाब-पाकिस्तान) ८ सुनाम (पंजाब-पाकिस्तान) हखानगाडोगरा (पंजाब-पाकिस्तान) १० कसूर
(पंजाब-पाकिस्तान) ११ रायकोट (पंजाब-पाकिस्तान) १२ शियालकोट (पंजाब-पाकिस्तान) १३ कचोलिया (गुजरात) १४ लाहौर (पंजाब-पाकिस्तान)
पूज्य आचार्य श्री के सदुपदेश से हुए मन्दिरों के जीर्णोद्धार की नामावली :१ मेरा तीर्थ (पंजाब-पाकिस्तान) २ हस्तिनापुर (उत्तर-प्रदेश) ३ लाहौर
(पंजाब-पाकिस्तान) ४ नवशारी (गुजरात)
(पंजाब
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य
]
५ खंभात
(गुजरात) ६ पेन
( महाराष्ट्र) ७ वरकारणा तीर्थ (राजस्थान)
पूज्य आचार्य श्री के कर-कमलों द्वारा हुई अंजनशलांकाएँ :१ जंडियालागुरु पंजाब सं० १६५७ २ विनौली
उत्तरप्रदेश सं० १९८३ ३ उमेदपुर
राजस्थान सं० १०६५ ४ कसूर
पंजाब सं० १९६६ ५ रायकोट
पंजाब
सं० २००० ६ सादड़ी
राजस्थान सं० २००५ ७ बीजापुर
राजस्थान सं० २००६ ८ बम्बई
महाराष्ट्र सं० २०१० पूज्य आचार्य श्री के सान्निध्य में हुई मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं :१ जंडियालागुरू पंजाब
१६५७ २ सूरत
गुजरात
१६७४ ३ सामाना
पंजाब
१९७८ ४ लाहौर
पंजाब (पाकिस्तान) १९८१ ५ बिनौली
उत्तरप्रदेश
१९८३ ६ अलवर
राजस्थान
१९८३ ७ चारूप
गुजरात
१९८५ ८ कचौलिया
गुजरात
१९८५
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[ र ] ६ अवेला
महाराष्ट्र
१६८७ १० अकोला
महाराष्ट्र
१९८८ ११ डभोई
गुजरात
१६६१ १२ खंभात
गुजरात
१६६४ १३ साढोरा
पंजाब
१६६५ १४ बडौत
उत्तरप्रदेश १६६५ १५ खानगाडोगरा पंजाब-पाकिस्तान
पाकिस्तान १६६७ १६ कसूर
पंजाब-पाकिस्तान १६६६ १७ रायकोट
पंजाब-पाकिस्तान २००० १८ फाजिलका
पंजाब-पाकिस्तान २००१ १६ सीयालकोट पंजाब-पाकिस्तान २००३ २० सादड़ी
राजस्थान
२००५ २१ बीजापुर
राजस्थान
२००६ २२ बड़ौदा
गुजरात (तीन मंदिर) २००८ २३ बम्बई
महाराष्ट्र
१६६१ ( महावीर विद्यालय वालकेश्वर) पूज्य आचार्य श्री के सदुपदेश से बनी मुख्य मुख्य धर्मशालाएँ-उपाश्रय १ अंतरीक्ष जी पार्श्वनाथ जैन धर्मशाला सिरपुर वसड ३ स्वयंभू पाश्वनाथ जैन धर्मशाला कापरडा राजस्थान ३ आत्मानन्द पंजाबी जैन धर्मशाला पालीताणा सौराष्ट्र ४ आत्मवल्लभ जैन धर्मशाला देहली
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[ ल ] ५ श्री आत्मानन्द जैन उपाश्रय हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश ६ श्री आत्मानन्द जैन उपाश्रय बड़ौदा गुजरात ७ श्री आत्मानन्द जैन उपाश्रय सीनोर गुजरात ८ श्री आत्मानन्द जैन भवन बालापुर वराड ६ श्री आत्मवल्लभ जैन उपाश्रय जंडियालागुरू पंजाब १० श्री आत्मानन्द जैन उपाश्रय सियालकोट पंजाब ११ श्री आत्मानन्द जैन उपाश्रय रायकोट पंजाब
आदि पंजाब, मारवाड़, महाराष्ट्र आदि कई स्थानो में आप श्री के उपदेश से धर्मशाला और उपाश्रय बने हैं।
पूज्य आचार्य श्री के सान्निध्य में उपधान तप । १ लालबाग
बम्बई सं० १६५० २ बाली
राजस्थान , १६५६ ३ पूना
महाराष्ट्र , १६५७ ४ पालनपुर
गुजरात १६५० ५ बड़ौदा
गुजरात , १६६३ ६ थाणा
बम्बई , २००८ ७ घाटकोपर बम्बई, महाराष्ट्र २०१०
पूज्य आचार्य श्री के सान्निध्य में छ, री पालते तीर्थ यात्रा संघ आदि :१ गुजरांवाला से रामनगर (पंजाब पाकिस्तान ) १९६२ २ देहली से हस्तिनापुर (उत्तर प्रदेश) १९६४ ३ जयपुर से खोगाम (राजस्थान)
१९६५
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[ व ]
४ राधनपुर से पालीताणा (गुजरात) १६६६ ५ बड़ौदा से काबीगंधार (गुजरात) १६६७ ६ शीबगंज से केसरियाजी (राजस्थान) १९७६ ७ धीणोज से गाँमु
१६८६ ८ फलौदी से जेसलमेर
१९८६ है होशियारपुरसे कांगड़ा
१९०७ १० ,, , ,
१६६७ ११ वेरावल से पालीताणा, उना, दिक् १६७३ परम पूज्य गुरुदेव की प्रतिमाएं और चरण पादुकाएं:
१ बम्बई २ बड़ौदा ३ पाटण ४ बिजोबा ५ नाडोल ६ वरकाणा ७ आना ८ सादड़ी है हरजी १० सोजत ११ कोयम्बूटर १२ वडोत १३ झंडियाला १४ अमृतसर १५ समाना १६ लुधियाना १७ बीकानेर १८ होशियारपुर १६ अम्बाला २० पालेज २१ पालीताना २२ मालेर कोटला २३ जालंधर २४ जीरा २५ शाहकोट २६ नाभा २७ पटियाला २८ सुनाम आदि आदि।
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-
T
जिपी
%EGREAK
जी की
श्री
WAP
दम
C
TA117
मधानका
14
70
आदर प्रवर्तिनी साधी) आर्थी श्री श्री ५सी देवीजी महाराज
आदममजोरी
R
-
सिक्सलताननिमिरवनि कलिंबारकल्पता पजाकेश जैनाचार्यो श्री १०८सामावजयवाभिमुरातर
मशरान कालाननति दर्श पवातदोसावा) आयाशी ना आदेवानी महारान के
शया-परिवार का वंशवृक्ष
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[ प ] पूज्या आदर्श प्रवर्तिनी आर्या श्री देव श्री जी महाराज के शिष्या परिवार वंश वृक्ष में वाकी रहे नामों का विवरण :१ श्री चतुर श्री जी १७ ,, कल्याण , २,, चिन्ता ,
१८ ,, सुज्येष्ठा , ३ , चितानंद ,
, शान्ति ४ ,, चितरंजन ,
" सम्पत
रूप ५, शीलवती ,
, चिन्तामणि ६ ,, मृगावती , ,, चितानंद ७ ,, सुज्येष्ठा
२४ ,, चारित्र , ८ ,, कनक प्रभ
,, जयन्त ६ ,, चरण प्रभा ,
, विद्युत म , १० , तीर्थ
२७ ,, प्रशाल ११ ,, विद्युत ,
२८ ,, विशुद्ध , १२ ,, यशोदा
२६ ,, विचक्षण १३ श्री कुशल श्री जी ३० , चितानंद १४ , चन्द प्रभा , ३१ ,, चित्तरंजन , १५ , कमल
३२ ,, राजेन्द्र घाना
३३ ,, रविन्द्र
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[
श
]
" सुनन्दा
पूज्य आचार्य श्री की आज्ञानुवर्ती साध्वी श्री जमना श्री जी महाराज की शिष्या प्रशिष्याओं की नामावली :१ श्री जय श्री जी २१ श्री चन्दन श्री जी २ ,, माणेक
२२ ,, प्रधान ३ ,, लक्ष्मी
२३ ,, लाभ ४ ,, तरुण सुभद्रा
,, रंजन , समता
,, हेम
२६ ,, ललिता , हेमेन्द्र
२७ ,, इन्द्र चन्द्रा
,, मनोहर पुण्य
२६ ,, वनिता , कनक प्रभा
३० ,, मुक्ति ,, कमल प्रभा
३१ ,, अभय १३ , नन्दा
३२ , राजेन्द्र १४ ,, जगत
,, चन्द्रोदय १५ , दर्शन
,, कपूर १६ , ज्ञान
३५ , सौभाग्य , हेमलता
३६ ,, कान्ति ,, विद्युत
३७ ,, धपा १६, वशंत
३८ ,, कुसुम २० ,, माणेक
३६ , मुक्ति
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अपनी रचनाएँ
(१) श्री सूरित्रय अष्ट प्रकारी पूजा (२) श्री दादा प्रभावकसूरि अष्ट प्रकारी पूजा
(३) आदर्श प्रवर्तिनी ( आर्या ) (४) साहित्य सर्जक और अद्भुत कवि
(५) युगप्रवर श्री विजय वल्लभ सूरि
(६) श्री जगद्गुरु अष्ट प्रकारी पूजा
(७) जैन विज्ञान (अनुवादित )
( 5 )
युग प्रवर श्री विजय वल्लभ सूरि जीवन रेखा और
अष्ट प्रकारी पूजा
(९) सर्वज्ञता (अनुवादित )
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( प्रेस में )
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