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कर सकेगे। संगीत के मधुर स्रोत में गोता लगाने वाले भावुक व्यक्ति भी अपनी दैनन्दिनी पूजा-पाठ में इस पुस्तक को 'शामिल कर अपना आत्म कल्याण करसकेगे । अतः डागाजी का यह प्रयास, प्रयास ही नहीं, बल्कि लोक मानस के लिये अभिरुचि पैदा करने वाला एक सफल साधन भी है। इस से पाठक कहां तक लाभ उठाये गे, यह मैं उन्हीं पर छोड़ता हूँ।
ऐसे महान युग महापुरुष, अज्ञान तिमिर-तरणि, कलिकाल कल्पतरु, सूरि सार्वभौम, युगप्रवर आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के विषय में मैंने जो कुछ भी 'एक दृष्टि' रूप में लिखने का साहस किया है, यह वामन का प्रांशुलभ्य ताल फल को पाने का प्रयास मात्र है, अतः इसमें स्खलित होना मेरी अपनी दुर्बलता है और उनके जीवन पर कुछ प्रकाश व्यक्त होना उनका प्रसाद है, ऐसा समझ, विज्ञ-पाठक मुझे क्षमा करेंगे।
विनीत :७-३-१९६०
प्रभुदत्त शास्त्री कलकत्ता
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