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: दोहा : चन्द्रिका पूर्वाद्ध के, दश गण का अभ्यास । कीना मुनि वल्लभ विजय, अमर विजय के पास ॥ बुद्धि शक्ति कार्य दक्ष, विनम्रता भण्डार । पाँच वैरागी जीव को, शिक्षण दे सुखकार ॥ उपाध्याय पदवी मुनि, व्यवहारे नहीं पाय। पर निश्चय के रूप में, पाठक पद दीपाय ॥ सात भवि दीक्षित हुए, पालनपुर मोझार । सौंपे सद्गुरू आपको, शिक्षण के हितकार || देते मोती, चन्द्र, शुभ, लब्धि, मान, सन्मान ।
जस, राम, विजय मुनि सभी, वल्लभ को दे मान ॥ * श्री चन्द्रविजय की दीक्षा पालनपुर में श्री हर्षविजय जी महाराज के नाम से हुई थी। कुछ समय बाद सिरोही में चन्द्रविजय जी का संसारी भाई आया, उसकी गरीब हालत देख कर सिरोही के दीवान सूरत के रईस श्रावक श्री मिलापचन्द ने उसे पांच सौ रुपये देकर बिदा किया। जब यह बात आचार्यश्री (विजयानन्द सूरि ) को मालूम हुई तो उन्होंने चन्द्रविजय को डांटा और कहा कि आगे को ऐसा काम कभी नहीं करना, यह साधु धर्म और आचार के सरासर विरुद्ध कार्य है। कुछ समय बाद पाली में वह चन्द्रविजय का भाई- अपनी-माता को साथ लेकर आया, तब महाराज श्री ने चन्द्रविजय को कहा कि तूं बार-बार लिखकर अपने सम्बन्धियो को बुलाता है, यह तुम्हारे लिये ठीक नहीं है। सिरोही में तेरे कहने से दीवान मिलापचन्द ने तेरे भाई को पांच सौ रुपये दिये अब
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