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मारवाड़ पंच तीर्थी, यात्रा का शुभ धाम। भाषण परथम वहाँ दियो, भविजन मन अभिराम ॥
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फिर तुमने अपनी माता और भाई को बुलाया है जो कि सर्वथा अनुचित
और साधु आचार के विरूद्ध है। यहाँ रुपये देने वाला कोई नहीं है, पहले जो सिरोही में दिये गये उनका तो मुझे पता नहीं लगा, परन्तु अब तो मैं सब कुछ जान गया हूँ। तुमने यह धंधा शुरू किया है वह सर्वथा अयोग्य है, हमारे साथ रह कर ऐसा नहीं हो सकेगा। याद रखना अब यदि किसी से तुमने रुपये दिलाने की कोशिश की तो इसका परिणाम तुम्हारे लिये अच्छा न होगा। महाराजश्री की इस योग्य चेतावनी से न मालूम चन्द्रविजय के मन में क्या आया वह उसी रात्रि को अपना साधु वेष उतार और उपाश्रय में फेंक कर गृहस्थ का वेष पहन माई और माता के साथ रवाना हो गया। फिर कालान्तर में सं० १९४७ में उसने श्री वीर विजयजी के पास आकर फिर दीक्षा ग्रहण की और चन्द्रविजय के स्थान में अब दानविजय नाम नियत हुआ। कालान्तर में श्री दानविजय जी पन्यास होकर सं० १९८१ में आचार्य श्री विजयकमल सूरि के पट्टधर शिष्य श्री लब्धिविजय जी के साथ छाणी ग्राम में आचार्य पदवी से अलंकृत हुए और प्यारडी जाते हुए रास्ते में स्वर्गवास हो गये। आचार्य दानसूरि के शिष्य प्रेमसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र सूरि ने दो तिथि का पंथ चलाकर जैन परम्परा में एक नया विमाग उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया। “विचित्रा गतिः कर्मणाम्"- ( नवयुग निर्माता पेज संख्या ३४१ और ३४२ से सामार उद्धृत ले०)।
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