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जो अपना तथा दूसरों का हित करे। रात-दिन आत्मा में रमण करे और अपने ध्येय पर पहुँचने का प्रयत्न करे वही सच्चा साधु है। आत्म-कल्याण के मुमुक्ष का विशुद्ध संयम ही उसका भूषण होता है और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ही उनके आभरण होते हैं । जैन साधुओं का आचार अति कठिन है, वह ही उनकी सच्ची कसौटी है। वे संयम और तप के पोषक होते हैं। केश लूंचन, पाद-विहार, गर्म पानी, तपश्चर्या, गोचरी के कड़े नियमों का पालन करने में जैन साधुओं की विशेषताएँ हैं और इन सर्व विशेषताओं से परिपूर्ण हमारे पूज्य विश्ववंद्य, अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु, भारत दिवाकर, परम शासन मान्य, संघ रक्षक, अनेक शिक्षण संस्थाओं के प्रेरक, सूरि सार्वभौम, मल्धर सम्राट, पंजाबकेशरी जं० यु० प्र० भ० जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज साहब थे।
आप विश्व की अनुपम विभूति, नवयुग प्रवर्तक, न्यायाम्भोनिधि, दादा प्रभावक, जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के पट्टधर थे।
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