SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ सम्मेलन विद्यार्थी सम्मेलन आदि आदि अनेक सम्मेलनों के आयोजन की प्रेरणायें दी । परस्पर प्रेम-भावना में वृद्धि कराई, अनेक कल्याणकारी कार्य कराये । कन्या विक्रय की प्रथा, अनेक समाज कल्याण में बाधक रिवाजों एवं कुरूढ़ियों को बन्द करवाया । बहुत समय से श्री संघ आपको आचार्य पद से विभूषित करना चाहता था फिर भी सदैव इनकार करते रहे । परन्तु अन्त में वयोवृद्ध पूज्य प्रवर्तक मुनि श्री कान्ती विजय जी महाराज तथा शान्त मूर्ती मुनिश्री हंस विजयजी महाराज और वृद्ध मुनि श्री सम्पत विजयजी आदि के भरपूर दबाव तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष के आगे वानों की सतत् प्रार्थनाओं से बाध्य होकर विक्रम सम्वत् १६८१ की मिगसर सुदी ५ को लाहौर में बड़े समारोह पूर्वक आचार्य पद से विभूषित होना पड़ा और अब आप श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मारामजी ) महाराज के पट्टधर श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए । गच्छों के भेद भाव को मिटाकर महान् प्रभावक पूर्वाचार्यों की जयन्तियां मनाने की प्रथा चालू कर गुण ग्रहण करने की समाज को प्रेरणाएं दी । त्याग, तपश्चर्या, आचार के नियमों के पालन की तत्परता, स्वभाव की मृदुलता, अद्भूत सहनशीलता, नम्रता और सरलता आदि गुणों से आपका चरित्र उज्जवल और अलंकृत था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035306
Book TitleYugpravar Shree Vijayvallabhsuri Jivan Rekha aur Ashtaprakari Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Daga
PublisherRushabhchand Daga
Publication Year1960
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy