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और तत्पश्चात् समय पर माता ने जो स्वप्न देखा था वह स्वप्न सत्य रूप में प्रमाणित भी हुआ ।
बाल्यकाल से ही आप वैरागी जीवन व्यतीत करने लगे थे परन्तु मोह वश आपके बड़े भाई श्री खीमचन्द भाई ने आपकी दीक्षा होने में अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित की, परन्तु अन्त में उनको भी आपके निश्चय के आगे झुकना पड़ा और विक्रम संवत् १६४४ को वैषाख शुक्ला १३ को राधनपुर में दादा साहब श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी ( आत्माराम जी ) महाराज के कर कमलों द्वारा अति समारोह पूर्वक भागवती दीक्षा अंगीकार करने में सफलता प्राप्त हुई ।
अब आपका नाम दादा गुरुदेव ने छगनलाल के स्थान पर मुनि श्री वल्लभ विजय जी रखा और आपको अपने प्रशिष्य मुनि श्री हषं विजय जी के शिष्य के रूप में घोषित किया ।
बाल्यकाल से ही आपकी तीक्ष्ण बुद्धि थी और यही कारण था कि आपने मुनि श्री हर्ष विजय जी के पास अल्प समय में ही शास्त्रों का अच्छा अध्ययन कर लिया ।
आपके हस्ताक्षर मोती के दाने के समान होने के कारण दादा साहब पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज पाश्चात्य विद्वान डा० हार्नल के प्रश्नोंत्तर की प्रतिलिपि आप से ही करवाते थे और आगे चल कर पूज्य श्री द्वारा लिखित समस्त प्रन्थों की प्रेस कॉपी भी आपही से कराई जाती रही, तथा पूज्य श्री के समस्त पत्रों का पत्र व्यवहार भी आप द्वारा
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