Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003964/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमररा चारा Education International 48. Private Lise Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीरस-धारा মহীমায়াত স্বরসমকাসহ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर भेंटकर्ता : श्री सोहनलाल अजितकुमार राजकुमार लूणावत नागौर/मद्रास For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीरस-धारा : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर संकलन : मुनि ललितप्रभसागर मुद्रण-शोधक : भंवरलाल नाहटा आवरण : श्री भंसाली ब्रदर्श, बैंगलोर प्रकाशक : श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, ९सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता-७०० ०६९ फोन : २०-८७२५ मुद्रक : राज प्रोसेस प्रिन्टर्स, कलकत्ता-६ मुद्रण-वर्ष : मार्च १९८८ मूल्य : ५ रुपये Ameerasa-Dhara By Mahopadhyay Chandra Prabh Sagar 1987-88 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री महावीर For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य शासन-प्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रभसागरजी महाराज For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीरस-धारा प्रवचन - स्थल प्रवचन - समय जुलाई, १९८७ जैन भवन वडपलनी, मद्रास For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा ___यह संसार एक भूल-भूलैया है। मनुष्य जहाँ रहता है, उसके सामने वाली भूमि या तो समतल मालूम पड़ती है या फिर ऊबड़. खाबड़। लेकिन यह भूमि पूरी गोल हैं, यह बात समझाने पर भी उसके दिमाग में नहीं बैठती। आज के वैज्ञानिक इसो निर्णय पर पहुंचे हैं कि समस्त अंतरिक्ष के अगणित ग्रह गोल है, वर्तुल हैं। यह गोलाई हमें कुछ संकेत करती है। यह हमें कुछ ऐसा पाठ पढ़ाती है, जिसका सम्बन्ध हमारे जीवन से है। - यदि हम इस बात को जीवन के क्षेत्र में समझे तो यूं कहेंगे कि जीवन के प्रारम्भ में भगवान् एक केन्द्र बिन्दु के रूप में था, अकेला था, दूसरा कुछ नहीं था। उसने सोचा, मैं अकेला हूँ, एकान्त में हूँ, बहुत बन जाऊँ । तो अकेलापन उसे अखरा। उसने सोचा मैं बहुत हो जाऊँ—'स एकाकी न रेमे एकोऽहं बहुस्याम ।' वैदिक संस्कृति ऐसा ही मानती है। और बढ़ने की, फैलने की, संसार के रचने की जो प्रक्रिया है, वह ऐसा ही मानती है। जीव इसी प्रक्रिया का एक अंग है। 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी'-जीव अंश है। . वैदिक संस्कृति कहती है संसार की संसरणशील जो प्रवृत्ति है, उसमें अपने को मिला दो। भगवान् की फैलने की जो इच्छा है, वही माया है। और माया के अनर्थों से बचने के लिए उसकी शरण में जाओ, धारा के साथ बहो, अपनी इच्छाओं को सर्वथा परित्याग कर दो। अन्त में तुम उसी तरह उसके पास पहुँचोगे, जिस प्रकार गंगोत्री से निकलती हुई गंगा की धारा सागर में मिलती है और फिर सागर से बादलों की सवारी पर सवार होकर गंगोत्री के पास मूल स्थान में पहुँचती है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/ अमीरसधारा वैदिक-संस्कृति या ब्राह्मण-संस्कृति की प्रतीक यही धारा है। किन्तु यह बात आधी हुई। जैन संस्कृति ठीक इसके विपरीत है, उल्टी है। यहाँ जाना कहीं नहीं है, अपितु जहाँ गये हुए हैं, वहाँ से वापस आना है। आकाश में उड़ रहे पक्षी का सांझ ढलते ही अपने घोंसले में आना यही है जैन संस्कृति । सूरज द्वारा सांझ ढलते ही अपनी किरणों को अपने में समेट लेना इसी का नाम है जैन संस्कृति । हमें इन सब बातों को व्यावहारिक ढंग से, मनोवैज्ञानिक ढंग से समझना होगा। जो बात मानव-जीवन में घटती है वही बात उसके मूल कारण में भी घटती है। घर में अकेला बैठा हुआ व्यक्ति सोचता है कि चलूं , जरा बाजार घूम आऊँ। अकेले मन नहीं लगता, जरा भीड़-भाड़ से गुजर आऊँ। फिर जब उसका उसका मन भीड़-भाड़ से भी ऊब जाता है, तो वह सोचता है, चलूं, अब घर चलूं। वैदिक संस्कृति घर से बाजार जाने की पद्धति है और जैन संस्कृति बाजार से घर आने की संस्कृति है। घर से बाजार जाना—यह आधी बात हुई, आधी यात्रा हुई। पूरी यात्रा तब होगी जब व्यक्ति बाजार से वापस घर आयेगा। जैनों के मनोविज्ञान का एक शब्द है बहुचित्तवान । आधुनिक मनोविज्ञान को जैनों की इस मायने में महान देन है। महावीर ने कहा है कि मनुष्य अनेक चित्तवान है। बँटा हुआ है उसका चित्त । खण्ड-खण्ड में बँटता जा रहा है उसका चित्त । बँटना सहज है, इकट्ठा करना ही मुश्किल है। गंगोत्री से सागर की तरफ धारा के साथ बहाव के अनुरूप बहना बहुत सरल है, मगर सागर से गंगोत्री की तरफ जाना, धारा की उल्टी दिशा में जाना बहुत कठिन है। यह कठिनाई का रास्ता ही जिनत्व की साधना है, राधा है। धारा का उल्टा राधा है। राधा जैन-आराधना है। मैं धारा से अलग नहीं कर रहा हूँ, मात्र दिशा में उलट-फेर कर रहा हूँ। यदि धारा को For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ३ हम उलट देंगे, तो राधा हो जायेगा। धारा और राधा दोनों में आधापन है। राधेश्याम में से राधा को निकाल दो, तो श्याम भी आधा हो जायेगा। राधा भी मुख्य है, धारा भी मुख्य है। गंगा की धारा भी हम चाहते हैं और कृष्ण की राधा भी हम चाहते हैं। मैंने जिस अर्थ में धारा और राधा कहा, उसमें राधा पुरुषार्थ की प्रतीक है, वीरत्व की प्रतीक है, महावीरत्व की प्रतीक है। जबकि धारा भक्ति मार्ग है, समर्पण का मार्ग है, नारद रामानुज, मीरा और रामकृष्ण परमहंस का मार्ग है। ____जिन का मार्ग संघर्ष का मार्ग है। चूंकि क्षत्रिय संघर्षशील होते हैं। इसीलिए क्षत्रिय जाति जिनत्व की साधना बहुत सहजतया कर सकती है। महावीर जिन थे, जिनेश्वर थे, खास बात यही है कि वे क्षत्रिय थे। चौबीसों के चौबीसों तीर्थङ्कर क्षत्रिय थे। इन्होंने वीरों के मार्ग का निर्माण किया, अपनी प्रकृति के अनुसार। और वह मार्ग ही जिन-मार्ग है। जैनधम इसी का परिवर्धित रूप है। ____ मैंने कहा, क्षत्रियत्व पर, वह बहुत सोच-समझकर कहा। मेरे विचार से क्षत्रियत्व और जिनत्व के साथ अच्छा सम्बन्ध सध सकता है। व्यक्ति के क्षत्रियत्व का ओज ज्यों-ज्यों कम होगा, जिनत्व की साधना से वह त्यों-त्यों दूर होता जायेगा। इसका मतलब यह न समझें कि जिनत्व एकमात्र क्षत्रियों का ही अधिकार है, कि यह क्षत्रियों की बपौती है। जिनत्व का सम्बन्ध तो साधना से है, व्यक्ति के पौरुष से है। क्षत्रिय के पास अप्रतिम शक्ति होती है। जब वह अपनी उस शक्ति को जिनत्व के रण में, साधना के संग्राम में लगा देता है, तो वह सफलता पाकर ही दम लेता है । क्षत्रिय जन्मजात संकल्पशील होता है, संघर्षशील होता है। जिस कार्य को करने की उसने ठान ली, उसे वह जान की बाजी लगाकर भी पूरा करना चाहता है। ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों साधना के पूरक ही हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-जो ये चार विभाग हमारे भारतीय लोगों में For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ अमीरसधारा प्रचलित हैं, उनका अपना अस्तित्व है, ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को माने। क्षत्रिय वह है जो ब्रह्म को पाने के लिए ब्रह्म बनने के लिए अपने क्षात्रधर्म का उपयोग करे। वैश्य वह है, जो उनका अनुसरण करे, 'यथा राजा तथा प्रजा' की तरह । शूद्र वह है जो इन सबसे दूर है। यदि हम इनको जातिगत माने. तो महावीर के अनुसार धर्म के दरवाजे पर चारों जातिवाले आ सकते हैं। स्वयं महावीर क्षत्रिय थे, पर ब्राह्मण भी थे। हकीकत तो यह है कि वे पहले ब्राह्मण थे, बाद में क्षत्रिय। महावीर पहले ब्राह्मणी के गर्भ में रहे, फिर देवों के द्वारा उन्हें क्षत्रिया के गर्भ में संक्रान्त किया गया। चाहे कुछ लोग इसे कपोलकल्पित कथा क्यों न मानें, पर इस बात का कुछ आधार है। और वह आधार कुछ मायने रखता है, उसका कुछ तात्पर्य भी है। महावीर में जहाँ ब्रह्मर्षि के गुण कूट-कूट कर भरे थे, वहीं राजर्षि के गुण भी। संसार में, महावीर ही एक ऐसे व्यक्ति हुए, जो ब्रह्मर्षि भी थे, और राजर्षि भी थे। या हम ऐसे भी कह सकते हैं, जिनकी तुलना न कोई राजर्षि कर पाया, न कोई ब्रह्मर्षि । जहाँ महावीर में ब्रह्मर्षि के सत्य, अहिंसा, तप आदि गुण विद्यमान थे, वहीं स्वावलम्बन, पुरुषार्थ, संघर्ष, संकल्प जैसे राजर्षि के गुण भी थे। स्वावलम्बन तो इतना बढ़ा-चढ़ा था कि उन्होंने अपने अनुयायियों को भी 'अशरण-भावना' की प्रेरणा दी। इसीलिए उनको किसी जाति के दायरे में देखना उनके प्रति और उनके विचारों के प्रति अन्याय होगा। उनके विचार उस स्तर पर पहुंचे हुए हैं, जहाँ अन्य विचारों की पहुंच न थी। यदि उनके बारे में यह भी कहा जाए कि आध्यात्मिक विचारों के वे पराकाष्ठा पर थे, तो इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके लिए मानव महान् था, उसके भीतरी बँटवारे नहीं। महावीर ने मानव को वह महानता दी, जो और कोई न दे पाया। ईश्वरत्व और जिनत्व का भी उसे अधिकार दिया। जिस नारी को लोगों ने कुचला, उसी को महावीर ने उठाया, उसे भी मुक्ति की बागडोर For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा /५ सम्भलायी। जो बात और लोगों ने ईश्वर के लिए कही, महावीर ने वही बात आत्मा के लिए कह दी। नर ही नारायण होता है, आत्मा ही परमात्मा होता है। जिनत्व की साधना का सम्बन्ध व्यक्तित्व से है, न कि उसकी जाति से। जाति का सम्बन्ध समाज से है और धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति से है। महावीर ने जो सबसे बड़ी बात कही, वह यह है कि तुम किसी का अनुसरण मत करो, अपने पैरों पर खड़े होने का साहस स्वयं में प्रगट करो। उन्होंने वेद यज्ञ आदि को आप्त वचन मानकर, अपौरुषेय मानकर अन्धानुसरण करने का भी विरोध किया। उपनिषदों में जहाँ यह लिखा गया है कि 'नहि तर्केण मतिः एषा अपनेया' तर्क के द्वारा इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता, वहाँ महावीर ने कहा सत्यार्थ जानने के लिए भरपूर तर्क करो। तुम्हारी बुद्धि जिस बात की गवाही दे वही करो। तुम्हारा गुरु, तुम्हारा सहायक, तुम्हारा अवलम्बन तुम स्वयं हो। तुम्हारे ईश्वर भी तुम ही हो । अपनी शक्ति को पहचानो, संकल्प करो, संघर्ष करो। तुम अपने को तोलो। यदि तुम में कष्ट सहने की क्षमता हो, कठिनाइयों से जूझने का बल हो, असत् से सत् को निकालने का विवेक हो, आत्मकल्याण की प्रबल अभीप्सा हो, जरा, मृत्यु के तीखे कांटों की चुभन से उबरना हो, तो पकड़ो जिनत्व का मार्ग। प्रयोग करो अपने आत्मबल को, अपने बाहुबल को बाहुबली की तरह। जिनवाणी के सागर के मन्थन का यही मक्खन है। यही वह अमृत तुल्य औषध है, जिसका सेवन करने से दुःखों के सारे घाव खतम हो जाते हैं। जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरेयणं अमिदभयं । जरामरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्व दुक्खाणं ॥ जिनवाणी तो सुधा है, पर उसका सेवन करने वाले कितने हैं ? यहाँ पर अधिकांश लोग जैन हैं। जैन तोह, पर जिनत्व का For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६/ अमीरसधारा पुरुषार्थ किसमें है ? जो जैन बन गया, वह जिन नहीं बन सकता क्योंकि जैन वही है, जो जिन का अनुयायी होता है। अनुयायी का काम होता है अपने आराध्य जिन की पूजा कर लो, उसके चरण पूज लो, उसकी स्तुति कर लो। यह गौतम का मार्ग है। यही वह मार्ग है, जो जिनत्व की अंतिम मंजिल तक पहुंचने में रोड़ा है। इससे जिनेश्वर का अनुग्रह मिल सकता है, पर जिन नहीं बना जा सकता। जिनत्व के कर्म कुछ और ही होते हैं। महावीर जैसा व्यक्ति ही जिन-मार्ग का पथिक हो सकता है। भला, जो लोग लौकिक सुखों में, शारीरिक सुखों में उलझे हों, क्या वे जिनमार्ग पर चल सकते हैं ? बाहर की यात्रा करने के अभ्यस्त हैं, अतः भीतर की यात्रा अंधे की यात्रा लगती है। बाहर की रोशनी से परिचित हैं, कभी भीतर की रोशनी भी देखने का प्रयास करें। भीतर सैकड़ों सूर्यों का प्रकाश है। 'कस्तुरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे वन मांहि ।' भीतर को जाना नहीं, तो बाहर ही ढूंढेंगे, बाहर ही भटकेंगे इसलिए क्योंकि घर में अंधेरा है, तो सूई बाहर ढूंढते हैं, क्योंकि बाहर में प्रकाश है। पर सूई मिलेगी भीतर आने से, जिनत्व के प्रकाश में। एक व्यक्ति ने कुछ बच्चों से पूछा, क्या तुम लोग गोल्डन ब्रिज के बारे में जानते हो ? बच्चों ने कहा नहीं साहब। तो वह व्यक्ति बोला, 'दिन भर घर में ही पड़े रहते हो, बाहर घूमो तो पता लगे।' बच्चे बिचारे कुछ न बोले। दूसरे दिन उस व्यक्ति ने फिर उन बच्चों से पूछा क्या तुम लोग जोर्ज टाउन के बारे में जानते हो ? बच्चों ने कहा, नहीं साहब । तो वह व्यक्ति फिर बोला, दिन भर घर में ही पड़े रहते हो, कभी बाहर जाओ तब पता लगेगा। बच्चे चुप रहे। वह व्यक्ति रोजाना उन बच्चों के पास आता और कुछ न कुछ पूछता और कहता घर में ही पड़े रहते हो, बाहर घूमा करो। आखिर बच्चे तंग आ गये। एक दिन बच्चों ने उस व्यक्ति से पूछा, क्यों For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ७ साहब ! आप रामू के बारे में जानते हैं ? वह बोला, नहीं, मैं नहीं जानता। तो बच्चे बोले, कभी घर में भी तो रहा करो। तो आओ अपने घर में। बाहर में खूब घूमे, अब जरा भीतर भी झांकें, जिन बनने के लिए पुरुषार्थ करें, संकल्प करें। जिन के मार्ग पर वही चल सकता है जो आशावादी है, पुरुषार्थवादी है। चन्द्रशेखर, भगतसिंह जैसा जोश जब व्यक्ति के भीतर होता है कि मुझे अपने देश को स्वाधीन कराना ही है, वैसा ही जोश जब जिनत्व की प्राप्ति के लिए पैदा होता है, तभी जिनत्व के फूल खिलते हैं संघर्षों के काँटों के बीच । जिनत्व की साधना संघर्ष की पगडंडी है। संघर्ष वास्तव में महावीरत्व का सहधर्मी है। महावीर का जीवन कितना संघर्षशील रहा था। आचारांग को पढ़ो, जितना संघर्ष जीवन में महावीर ने झेला, उतना शायद और किसी ने नहीं झेला होगा। यही कारण है कि महावीर जो पहले वर्धमान थे, बाद में महावीर कहलाये। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। यह नाम भी कुछ अर्थवत्ता रखता है। वर्धमान का अर्थ होता है, फैलाव लेता हुआ। जहाँ फैलाव है, वहाँ माया है। जहाँ माया है, वहाँ कषाय है। जहाँ कषाय है, वहाँ बन्धन हैं। और, इन बन्धनों को तोड़ना ही व्यक्ति का पुरुषार्थ है। इसीलिए महावीर ने भीड़-भाड़ से हटकर अपनी वास्तविक स्थिति में आ जाना, प्रतिक्रमण करना ही जिनत्व माना, जैनत्व माना। जिनत्व के साधक को अपने-आप में आने के लिए ध्यानयोग से अपने को समझना है, बहिरात्मा से हटकर अन्तरात्मा में आरोहण करना है। यद्यपि आज महावीर जैसा कोई जिन नहीं है, 'न हु जिणे अज्ज दिस्सई' पर कोई बात कहीं। जिनत्व के लिए किसी के अवलम्बन की जरूरत नहीं हैं। जैसे महावीर ने किसी का For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८/ अमीरसधारा आलम्बन नहीं लिया, वैसे ही निरालम्ब होना है, आकाश की भाँति । सच तो यह है कि जिसने अवलम्बन लिया, वह बंधनयुक्त ही रहा। यही कारण है कि गौतम महावीर के पास रहते हुए भी जिनत्व की यात्रा पूरी न कर पाए। जैसे ही निरालम्ब हुए, निरासक्त हुए, केवलज्ञान के फूल पल-भर में खिल गये । ___ मैं महावीर को प्रतीक मानता हूँ जिनत्व की साधना का। मेरा विश्वास है कि महावीर जैसे लोग ही जिन बन सकते हैं। जिन अपनी वीरता दिखाते हैं, जीवन की उन सभी चट्टानों को हटाने में, जो अन्तरात्मा के झरने को रोके हुए है। जिन साधना-पथ के एक-एक काँटे को हटाकर प्रशस्त पथ का निर्माण करते हैं। फलत: भगवत्ता उसके पथ पर अनन्त सुरभि भरे फूल बिखेरती है। आत्मस्रोत का अमृतस्रावी जल उसका अभिषेक करता है। वे आन्तरिक शत्रुओं को हराते हैं और जयपत्र पाते हैं। सच्चा जिन यह सिद्ध कर दिखाता है कि सच्ची वीरता अन्य को नहीं, अनन्य अपने आपको जीतने में है। दूसरों को अनुशासित करने की अपेक्षा अपने आप पर शासन करना अधिक अच्छा है। महावीर की भाषा में जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुझण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ जिनेश्वर महावीर की मान्यता थी कि जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजारों योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक कोअपने आपको जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है । जीत उसकी जो आत्मजेता है, जो जिन है। बाहरी युद्धों से क्या, वह तो स्वयं के लिए भी हानिकर है और दुनिया के लिए भी। युद्ध करना है For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा /९ तो अपने से ही करो। अपने से अपने को जीतना ही सच्ची विजय है। 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' जो एक को जानता है, वह सबको जानता है, जो एक को जीत लेता है, उसकी सब पर विजय होती है। अविजित एक अपनी आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। इन्द्रियाँ सबके पास हैं। एक व्यक्ति इन्द्रियाधीन होता है, और एक व्यक्ति के इन्द्रियाँ अधीन होती हैं। इस फर्क को आप समझे। एक बच्चा अपने पिता के साथ राजमार्ग पर खड़ा था। इतने में ही उस मार्ग से राजा गुजरा। उसके साथ पाँच-छह सिपाही और चल रहे थे। तो बच्चे ने पिता से पूछा, पापा! यह कौन जा रहा है ? पिता ने कहा-राजा। थोड़ी देर बाद उसी मार्ग से पाँचछह सिपाही और चले जा रहे थे, किसी को घेरे हुए। बच्चे ने पिता से पूछा, पापा ! यह कौन जा रहा है ? पिता बोला-चोर। बच्चे को बड़ा आश्चर्य हुआ। आश्चर्य होना भी स्वाभाविक ही था । उसने पिता से पूछा-पापा ! यह कैसी विरोधी बात ? सिपाहियों के साथ जाने वाला एक राजा और एक चोर ! पिता ने कहा बेटे ! दोनों में बड़ा भारी फर्क है। पहले जिस व्यक्ति के साथ पाँच-छह सिपाही थे, वे उस व्यक्ति के अधीन थे और पीछे वाला व्यक्ति सिपाहियों के अधीन था। एक शासक है, दूसरा गुलाम । आप टटोलें अपने को कि आप शासक हैं या गुलाम । इन्द्रियाँ आपसे हारी हैं या आप इन्द्रियों से हारे हैं। आपकी आत्मा क्या गवाही देती है ? महावीर ऐसे ही जिन न हो गए। हार गई उनसे उनकी इन्द्रियाँ । उत्तराध्ययन में कहा है। एगप्पा अजिए सतु, कसाया इन्दियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ॥ महावीर कहते हैं हे मुनि ! हे साधक। एक बात पक्की है कि For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०/ अमीरसधारा अविजित अपनी आत्मा ही प्रधान शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। मैं हूँ ऐसा, जो उन्हें जीतकर न्याय-नीतिपूर्वक विचरण करता हूँ। परम अहिंसक होकर शत्रु-विजय की बात करनी क्या कम महत्वपूर्ण है ? परम अहिंसक होकर परम योद्धा होना बड़ी विचित्र बात है। ऐसी विचित्रता महावीर में थी। वस्तुतः अस्त्र-शस्त्र मनुष्य की दुर्बलता के परिचायक हैं। एक बटन दबाया, एटम बम गिरा और लाखों स्वाहा हो गये। यह कोई वीरता की बात है ? यह तो कायरों की, बुझदिलों की, बच्चों को बात है। सच्चे बहादुर मौत से डरते नहीं, और न किसी को मारते हैं। मनुष्य को तो क्या, एक चींटी को भी नहीं मारते। कोई किसी को मारता है, इसलिए कि वह उससे डरता है। महावीर ने जिनत्व की बात इसीलिए कही, ताकि व्यक्ति निर्भय बने। उन्होंने जीवन के संघर्षों को तो छोड़ो, मौत को भी अपनाने की बात कही। मृत्यु व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आवश्यकता पड़ने पर फैले हुए धागों को समेट लेना ही मृत्यु का उत्सव है, जिन त्व का महोत्सव है। मैं तो यही कहूँगा कि व्यक्ति को जिनत्व की साधना अवश्य करनी चाहिये। जिन ही तो जनक है जैन का। जिनत्व के बीज से ही जैनत्व का कल्पतरु लहराया है। जैसे शरीर में मस्तक, वृक्ष में जड़ मुख्य है, वैसे ही जैनत्व में जिन है। बिना जिन का जैन अर्थ शून्य है। बिना आत्मा का शरीर शव है। बिना जिन का जैन निल है अर्थ-हीन है। जिन तो है एक का अंक । जैन है शून्यांक। शून्य ढेर सारे हों, पर जब तक उसके साथ, उसके पूर्व एक का अंक नहीं है, शून्यों की कोई कीमत नहीं है। जैसे बिना इंजन के डिब्बे, बिना एक के शून्य निरर्थक हैं, वैसे ही बिना जिन के जैन हैं। पर जब हम एक के अंक के साथ शून्य का उपयोग करेंगे, तो इससे एक भी कीमती होता जायेगा और शून्य भी। दोनों की अपनी-अपनी अर्थवत्ता होगी। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ११ इसलिए जिन को पकड़ो। जिन ही है एक का अंक। यही है नौका जो पार लगा दे। उस पार पहुंचा दे। यही वह अवस्था है, जो देहातीत अवस्था में विहार कराती है। अतः जिनत्व के कर्म करो। जिन स्वयं कर्मशीलता का परिचायक है। कोई भी व्यक्ति जन्म से जिन नहीं होता। जिनत्व की साधना करने वाला ही जिन होता है। जिन होना वीरतापूर्व कठिन संर्घष करके जीतना है। यों तो शब्द के अपने यौगिक अर्थ में युद्धविजेता भी जिन है ; गरीबी को शान्तिपूर्वक झेलने वाला भी जिन है, क्रिकेट का मैच जीतने वाला भी जिन है, यानी वे सब लोग जिन हैं, जो जीतते हैं। जिन का अर्थ समझे विजेता। पर सभी जिन नहीं हैं। जिन-संस्कृति ने, जिनशासन ने, महावीर ने जिसको जिन कहा है, वह जिन आत्म-विजेता है। जिस व्यक्ति ने अपने आभ्यन्तरशत्रुओं को जीता, देहगत और आत्मगत दुश्मनों पर विजय पाई, वही जिन है। यह विजय परम विजय है। क्योंकि बाहर के शत्रुओं को तो कोई भी वीर जीत सकता है, किन्तु भीतर के शत्रुओं को जीतने वाले विरले ही होते हैं। विश्व-विजेता होना सम्भव है। किन्तु आत्मजयी होना अतिदुष्कर है। सिकन्दर-जैसे इतिहास में बहुत मिल सकते हैं, पर महावीर-सा वीर अति विरल। इतिहास में कभी-कभी एकाध मिल सकते हैं मोती मिले न बोरियाँ, बीरों की नहि पाँत । सिहों के लेहड़े नहीं, साधु न चले जमात || तो सिकन्दर चाहे जीता होगा, सारे संसार को, पर आत्म-विजय से वह अछूता ही रह गया। वह अपने-आप से हार गया। आइंस्टीन ने आविष्कार किये थे हजारों पर अपने आपका आविष्कार नहीं कर For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ / अमीरसधारा पाया, वह उस चीज को नहीं जीत पाया, जिसके निकल जाने पर लोगों ने उसे कब्रखाने में दफ़ना दिया। महावीर ने नहीं की विश्व-विजय, पर फिर भी वे विश्व-विजेता सिकन्दर से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उन्होंने अपने-आप को जीता, निज में जिन को खोजा। सिकन्दर विश्वविजय करने के बाद भी अशान्त था, क्योंकि उसने शान्ति ढूँढी बाहर। महावीर प्रशान्त थे आत्म विजय करके । क्योंकि उन्होंने शान्ति को ढूंढा अपने भीतर । 'कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूँढी वन माँहि । उस हिरन की दौड़ बेकार है, जो कस्तूरी को पाने विश्व-वन में भटकता है । अरे, जिस चीज को तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे खीसे में है। सूई की खोज घर में करो, वह घर में ही खोई थी, भले ही घर में अँधियारा हो। बाहर का प्रकाश, बाहर की दौड़, बाहर का चकाचौंध भटका रहा है व्यक्ति को जिनत्व होने से। जिनत्व का पथ असिधारा है, विरले ही चल पाते हैं। जो चलते हैं आत्मदेव के दर्शन वे कर पाते हैं । कब का सोया अन्दर में वह, देव जगाना है उसको । धन्य धन्य वह जिनत्व की यह अर्थ-चेतना है जिसको ॥ कवि कहता है जिसके पास जिनत्व की अर्थ-चेतना है, वह धन्य है। जिनत्व की चेतना जीवन की सर्वोच्च स्थिति है। यह स्थिति ब्रह्मनाद की स्थिति है, परमात्म-दर्शन की स्थिति है, महाजीवन और मोक्ष की स्थिति है। जहाँ केवल विजय है, हार का नामो निशान भी नहीं। मात्र निर्धूम ज्योति रहती है, पवित्रता, पूर्णता एवं शुद्धता । यानी प्योरिटी, सब्लाइमिटी। यहाँ न राग है न द्वेष, न क्रोध है न मान, न इच्छा है न दुःख । यहाँ तो बस हम होते हैं और हमारा राज्य होता है, बिना किसी को मारे काटे विजय होती है। इसी का नाम है आत्म-विजय। इसी को कहते हैं जिन । जिनत्व से रिक्त व्यक्ति चलता-फिरता 'शव' है। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १३ यह बात बिल्कुल पक्की है कि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करना सम्भव है, साहसी के लिए सरल भी है, किन्तु अपने भीतर के शत्रुओं को जीतना, जिन होना दुष्कर है, अति दुष्कर है। मैंने बार-बार कहा शत्रु-विजय। लेकिन शत्रु कैसा ? निराकार। भीतरी शत्रुओं का कोई आकार नहीं है। आकार को तो बाँधा जा सकता है, रोका जा सकता है, मारा-काटा जा सकता है। पर निराकारी शत्रुओं को जीतना—यही तो है जिनत्व की साधना। हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं काम, वासना, राग, द्वेष, कषाय आदि। ये हमारे भीतर रहते हैं। हमारे मन को, हमारे चिन्तन को ये ही तो प्रदूषित करते हैं। और, जब तक इन पर विजय न पायी जाये, इन्हें काबू न किया जाये, तब तक कोई साधना सिद्ध नहीं होगी, सफलता हमारे चरण नहीं चूमेगी। जिनत्व ही तो साधना और सिद्धि का अप्रतिम सोपान है। जिनत्व की यात्रा ही साधना की प्रशस्त पद्धति है। इसका संकेत हम जिन शब्द से ही प्राप्त कर सकते हैं। ___ आप 'जिन' शब्द को कोई सामान्य शब्द न समझें। बड़ा सोचसमझकर इस शब्द का प्रयोग किया गया है। सारा जैन दर्शन, उसकी सारी साधना इसी एक 'जिन' शब्द में लीन है। या यूं समझें कि सारा जैन आचार-दर्शन इसी से जन्मा है। तो जिन शब्द जैन दर्शन का जनक है। जिन ही वह बीज है, जिससे जैन दर्शन का वृक्ष प्रकट हुआ। अब आप थोड़ा-सा गहराई से समझे जिन की जड़ों को, जिन की गहराइयों को, उसके वर्ण-विन्यास को, उसके तात्पर्य को। जो गहराई से समझेंगे, उन्हें मोती मिलेंगे, जो ऊपर-ऊपर रहेंगे, उन्हें सागर खारा पानी लगेगा। ___जिन में चार वर्ण हैं आधा ज, इ, आधा न और अ। यानी इनमें दो व्यंजन हैं और दो स्वर हैं। ज और न् व्यंजन हैं तथा इ और अ स्वर है। इनमें पहला वर्ण है ज। ज वर्ण जय का प्रतीक है। अब For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ / अमीरसधारा प्रश्न उठता है कि किस पर जय करें? उत्तर भी बिल्कुल सामने है। ज् के बाद जो इ है, उस इ का अर्थ होता है इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषय, मनोविकार, राग, द्वेष, लोभ, काम, क्रोध। ये सभी विकार जीव के आभ्यन्तर शत्रु हैं। जिन शब्द में भी इ आन्यन्तर ही है। इसलिए जो इ पर विजय पा लेता है, जो इ शून्य हो जाता है यानी निर्विकार हो जाता है, वह भगवत्ता पा लेता है जिनत्व की। __अगर हम जिन में से इ को हटा दें, तो क्या शब्द बनेगा ? आधा ज् और पूरा न। व्याकरण के अनुसार त वर्ग के अक्षर च वर्ग में परिणत हो जाते हैं, यदि उनका योग च वर्ग के साथ होता है। तो ज् जो च वर्ग का है और न जो त वर्ग का है, दोनों को मिलाने से शब्द बनता है ज्ञ। ज्ञ का मतलब है ज्ञानी। जानने वाला ज्ञ है। इसलिए जिन ज्ञाता है, आत्मज्ञाता है, स्वपर ज्ञाता है, सर्वज्ञ है। ज्ञ के विपरीत है अज्ञ । जो कुछ नहीं जानता, जो अनपढ़-गँवारु है, वह अज्ञ है । ज्ञानी और बुद्धिमान् अपने विकारों को जीतता है। साधारण लोग अपने विकारों को नहीं जीतते। इसलिए वे अजिन हैं, अज्ञ हैं, संघर्षहारे हैं । 'जे तें जीत्या रे, ते मुझ जीतियो रे' आनन्दघन कहते हैं यह । जिन ने जिन को जीता, उनको हम न जीत पाये। उन्होंने तो हमें जीत लिया है। हे प्रभु ! तुमने क्रोध को जीता, किन्तु क्रोध ने हमें जीत लिया तुमने कषायें जीतीं, किन्तु कषायों ने हमें जीत लिया। कहाँ है हमारा पौरुष ! हम तो बह गये प्रवाह में। प्रवाह में बहना मुर्दापन है। मेरा एक गीत है, संघर्ष । मिलन की मुझे नहीं है चाह, विरह की जब तक मिलती राह । विरह है जीवन का संघर्ष, बिना संघर्ष सत्य दुर्धर्ष ॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा | १५ नौका घिरी भँवर के मध्य, पर्वती लहरों का सान्निध्य । गंगा-सागर तरफ प्रवाह, समय वर्षा का, नीर अथाह ॥ मुझे नहीं जाना पारावार, पहुँचना गंगोत्री के पार । जहाँ से फूटी गंगा धार, प्रसारित गंगा का संसार ॥ बहूँ जो मैं धारा के संग, प्रतिष्ठा होए भुजा की भंग । धार के संग बहे जो जीव, जीवितों में वह है निर्जीव । करें यात्रा गंगोत्री ओर, नहीं हम दुश्मन से कमजोर । .. चलो अब धारा के विपरीत, नहीं हारेंगे, निश्चित जीत ॥ संघर्ष ही जीवन की रौनक है। भला, बिना संघर्ष के कभी सत्य-प्राप्ति हुई है। बहती हुई गंगाधार के साथ बहना मुर्दापन है । जीवन की जीवन्तता और भुजाओं का सम्मान तो गंगोत्री की यात्रा करने में है, जहाँ से गंगा का जन्म हुआ। अपने मूल रूप को खोजो, अपने घर को खोजो, अपने घोंसले में आओ, दूसरे के महलों में रहना स्वतन्त्रता खोना है। यदि महल पाना है, यदि विराट होना है, गंगा For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ / अमीरसधारा सागर पाना है, तो पहले स्थित प्रज्ञ बनो, अपने आप में आ जाओ, अपने-अ - आप को जीत लो। जिन जीतता है, अजिन हारता है जीवन के रण में । अजिन का मतलब समझते हैं आप ? अजिन का अर्थ है चमड़ा । अजिन स्थूल दृष्टि है । यह बाह्य दृष्टि है । चार्वाक दृष्टि है यह खाओ, पीओ, मौज उड़ावो की दृष्टि है। भौतिक और मिथ्यात्वी दृष्टि है । उमरखय्याम की दृष्टि है । यह वह दृष्टि है जिस पर लोकायत-दर्शन खड़ा है जिसके आदि प्रवर्तक चार्वाक - ऋषि थे । चार्वाकी दृष्टि स्थूल दृष्टि है, भीतर नहीं, केवल बाहर झाँकती हैं, ऊपर-ऊपर। ये सागर को ऊपर-ऊपर से देखते हैं, फलतः इन्हें सागर खारे पानी का भण्डार लगता है । ये लोग नहींजान पाते कि इस खारे जल में ही भरा पड़ा है, संसार भर का खजाना । जो लोग अजिन हैं, चार्वाकी हैं, भौतिक हैं, उनका मानना है कि खाओ, पीयो, मौज उड़ावो, ॠण करके भी घी पी डालो । परोसा, भोगलो || मत ठुकराओ थाल आओ प्रेयसि ! भोग नहीं लौटकर फिर बीता हुआ सुनहरा भस्मीभूत देह का पाना है शशशृंग, नभ - सुमन । अजिन कहते हैं, जो करना है, सो कर लो । जो भोगना है, सो भोग लो। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, शंकर, पतंजलि जिनत्व मार्ग के समर्थक हैं, अजिनत्व के नहीं । बात सही है । यदि आप ही सारा भोग लेंगे, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ेंगे, झाड और आयेगा, यौवन । फिर से, For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १७ झंखाड़ ! यह कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं है जीवन की, जीवन के आदर्श की। पर आज कुछ ऐसा ही समय है कि अजिन के अनुयायी अधिक हैं, दुनिया में। जिधर देखो, उधर अक्सर अजिन ही दिखायी देंगे। सम्यक्त्वी और विद्यावान् नहीं, अपितु मिथ्यात्वी और अविद्यावान् ही दिखाई देंगे। आत्मवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, मोक्षवाद पर जोर देने वालों पर भी व्यवहार में चार्वाक के, अजिनत्व के बादल मंडराते दिखाई देते हैं। जिसकी दृष्टि सम्यक्तः अपने-आप में टिकी है, वह कभी कर्तव्य-विमूढ़ नहीं होता। यदि जिनत्व नहीं है, सम्यक्त्व नहीं है, तो व्यक्ति चाहे जितना तप कर ले, जीवन-भर तप कर ले, पर उसे बोधि-लाभ नहीं होगा। आलू छोड़ो, मूली छोड़ो सभी कहते हैं, पर क्रोध छोड़ो, मोह छोड़ो, वासना छोड़ो, संग्रह छोड़ो कौन कहता है, उसके लिए कौन कसम दिलाता है। दूसरों को क्या दिलाए, जब स्वयं के जीवन में क्रोध, मोह, संग्रह है। व्याख्यान देते जा रहे हैं आत्मवाद पर, और स्वयं जकड़े हैं भौतिकवाद में। मूल को पकड़ो। ____ ब्रह्मचर्य का नियम दिला दिया किसी को, पर नियम लेने मात्र से वासना की चिंगारियाँ बुझ गयीं ? माँस खाना छुड़ाने से क्या हिंसा के भाव छूट गये ? छुड़ाना हो तो हिंसा को छुड़ाओ, माँस अपने आप छूट जायेगा। छोड़ना है तो वासना को छोड़ो, मैथुन अपने-आप छूट जायेगा। साधना का सम्बन्ध भीतर से है। भीतर को निहारो अन्तर का घर सजाओ। यों ही तो होता है व्यक्ति स्वयं का स्वयं में। यही तो है जिनत्व, जीव का सम्यक्त्व। यों ही तो छूटता है अजिनत्व, जीव का मिथ्यात्व । सम्यग् दृष्टि ही जिन दृष्टि है, और जिन दृष्टि ही सम्यग् दृष्टि है। जिनत्व की सुगंध सम्यक्त्व के फूलों से ही उपजती है। मैंने कहा, जिन दृष्टि ही सम्यग् दृष्टि है। देखा, जिन शब्द तो For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८/ अमीरसधारा एक है, पर अर्थ-गाम्भीर्य कितना है। जैनधर्म के तीनों रत्नों की चमक इसी एक शब्द से ही तो प्रस्फुटित है। जैसे ही व्यक्ति की अजिन दृष्टि टूटी कि सम्यग् दृष्टि खिली। अविज्ञा और अज्ञता मिटी कि सम्यक् विद्या और सम्यक् ज्ञान के दीप जले। जैसे ही आन्तरिक राग-द्वेष, कामादिक भयंकर शत्रु सर्वथा उन्मूलित हुए कि व्यक्ति का चारित्र्य सम्यक् हुआ। तो जिनत्व की यात्रा ही मोक्षमार्ग है, रत्नत्रय की आराधना है। हाँ, एक बात और कि जिन शब्द का एक और नया अर्थ निकल सकता है। जैसे देखिये हमारे इस शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रिय है और पाँच कर्मेन्द्रिय है। सभी इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य सम्पादित करती है। जिह्वा एक ऐसी इन्द्रिय है जो ज्ञान और कर्म दोनों का कार्य सम्हालती है। जहाँ यह जिह्वा रस तन्मात्रा को ग्रहण करने के कारण ज्ञानेन्द्रिय है, वहीं वाणी के विधान का भी कार्य सम्पादित करती है और कर्मेंद्रिय में भी गिनी जाती है। वस्तुतः जिह्वा एक ऐसी इन्द्रिय है, जो सभी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। जिह्वा में भी जिनत्व का प्रभुत्व है। लेकिन इस प्रभुत्व को देखने के लिए थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि चाहिये। आप गौर से देखिये कि यह प्रभुत्व कैसा है और क्यों है। जिह्वा शब्द का अर्थ समझने के पहले इस सिद्धान्त का ज्ञान होना जरूरी है कि 'नामाद्ध ग्रहणे सम्पूर्णनाम बोधः' अर्थात् आधा नाम उच्चारण से पूरा नाम ग्रहण होता है। जैसे किसी का नाम है गौरीशंकर। पर पिता उसे बुलाते समय कहता है, अरे ओ गोरिया। गोरिया आधा नाम है, पर इससे गौरीशंकर ही आयेगा। अब आप देखिये कि जिह्वा और जिन में क्या सम्बन्ध है ! जिह्वा में जो जि है, वह जिन का ही बोधक है। 'जिनं वयति या सा जिह्वा'-जिसे जिन भगवान् की शरण में जाकर आर्तस्वर से अपने For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १९ उद्धार के लिए ध्यानपूर्वक जिनेश्वर को बुलाना चाहिये । इसी में जिह्वा की सार्थकता है । वही जिह्वा सार्थक है, जिसने जिन का गुणगान किया । चूंकि जिह्वा सभी इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए सभी इन्द्रियों की सार्थकता इसी में है कि वे जिह्वा की तरह ही जिन के शरण में जाये। जिन की शरण में जाने वाला जैन है, फिर चाहे शरणार्थी इन्द्रियाँ ही क्यों न हो ! जसे जो व्यक्ति जिन के पथ पर चलता है, वह जैन कहलाता है, ठीक वैसे ही जो इन्द्रियाँ जिन का अनुसरण करती हैं, वे भी जैन हैं । इसलिए हमें जिन शब्द को पकड़ लेना चाहिये । यही तो डूबती चींटी को तिनके का सहारा है । जिन में ही तो निजत्व का बोध है और निज में ही जिनत्व का आलोक है । जिसने जिन को समझ लिया सम्यक् प्रकार से, उसने जिन - संस्कृति को समझ लिया । जिसने जिन को नहीं समझा, वह निज को समझ नहीं पायेगा । वैयाकरण पंडित कहते हैं कि जिसने एक शब्द का अच्छी तरह से सम्यक् ज्ञान कर लिया, उसने सारे व्याकरण को और यहाँ तक कि ब्रह्म को जान लिया है । 'नमो जिणाणं' अच्छा मन्त्र है । मुझे एक घटना याद है, एक युवक अपने ससुराल जा रहा था । युवक था गँवारु । समझदारी थी कम, जाना था शहर । उसके पिता को भय था कि लड़का नासमझ है । क्या कहना चाहिये और क्या छिपाना चाहिये, इसका इसे बोध नहीं है । कहीं यह अपने श्वशुर के सामने कुछ अंट-संट न बोल दे । इसलिए पिता ने बेटे को कहा कि बेटा ! वहाँ पर ज्यादा मत बोलना । 'जी-न' का सहारा लेना । लड़का चाहे जैसा हो, पर था आज्ञाकारी । उसने हाँ भर दी और मन में संकल्प किया कि मैं 'जी-न' के अलावा और कुछ भी नहीं बोलूँगा । पहुँचा अपने ससुराल । 'आये दामाद युवक के ससुराल पहुँचने पर उसके श्वशुर ने कहा, जी' ! युवक बोला जी ! श्वशुर ने कहा, मेरी बेटी को साथ नहीं For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०/ अमीरसधारा लाये ? युवक ने धीरे से कह दिया, ना। श्वशुर बोला, 'क्या बात है, बिना सूचना दिये तुम आ गये। कोई खास बात है क्या? वह बोला, 'जी'। श्वशुर बोला, 'घर पर सब कुशल तो है न ? लड़का बोला 'ना'। श्वशुर ने कहा, क्यों पिताजी बीमार है क्या ? तो वह बोला 'जी'। श्वशुर ने कहा, बचने की उम्मीद तो है ? उसने कहा, 'ना'। तो फिर कैसे, मुझे बुलाने आये हो क्या ? श्वशुर ने फिर पूछा। तो वह बोला 'जी'। श्शुवर ने कहा यदि ऐसी बात है तो चलो। दोनों चल पड़े। श्वशुर जब दामाद के घर पर पहुंचा तो देखा कि दामाद के पिता तो स्वस्थ हैं। श्वशुर के मुँह से दामाद के पिता ने जब अपने बेटे की सारी करतूत सुनी तो वे भौंचक्के रह गये। आखिर पिता ने बेटे को समझाया कि बेटे ! जी-न केवल ऐसे बोलने मात्र से कुछ नहीं होता है। यदि कोई भी व्यक्ति जी-न को भली प्रकार से समझ ले तो उसका बेड़ा पार है। यदि जी-ना का विपरीत ज्ञान हो गया तो वह हिटलर की तरह नाजी हो जायेगा या वह भारत माता का अंग भंग करने वाला जिन्ना बन जायेगा। ___तो हमें समझना है जिन को। उसकी अतल गहराइयों में जाकर समझना है। जिन किसी एक व्यक्ति की संज्ञा नहीं है। ऋषभ, नेमि, पाव, महावीर-केवल ये ही जिन नहीं है। बहुत सारे लोग जिन बन चुके हैं। आप भी जिन बन सकते हैं। यह कोई बपौती नहीं है। इस मामले में सब स्वतन्त्र हैं। कोई किसी की कठपुतली नहीं है, जो किसी के नचाये नाचता रहे । दुनिया का हर आत्म-विजेता जिन है । तो बनो जिन, शुरु हो यात्रा जिनत्व की पगडंडी पर, हूँ ढो जिनत्व के मोती पैठ सागर में गहरे। जो ढूंढे, वही पाये। जो बैठे रहे, वे रोये। कबीर की गहरी संत-वाणी में For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / २१ जिन खोजा, तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ । मैं बौरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठ ॥ कीमत तो हर चीज की चुकानी पड़ती है। जो चीज जितनी ही मूल्यवती रहती है, उसकी कीमत भी उतनी ही ऊँची रहती है। कौड़ियों की भी कीमत होती है। घोंघे और सीप की भी कीमत होती है, लेकिन मोती की कीमत सबसे ज्यादा होती है। घोंघे और सीप को तो किनारे पर भी पाया जा सकता है। उनको पाने में कोई तरह की जोखिम उठाने की भी जरूरत नहीं होती है। लेकिन मोती किनारे पर नहीं मिलते । उसकी कीमत चुकाने के लिए जान की बाजी लगानी पड़ती है। समुद्र की अतल गहराई में पैठना पड़ता है, गोताखोरों की तरह।। कोई कितना भी समर्थ, बलवान्, ज्ञानवान् क्यों न हों, लेकिन बिना प्रयास के, बिना पुरुषार्थ के भरपेट भोजन भी नहीं मिल सकता, जिन होना तो बहुत दूर की बात है। सिंह बहुत बड़ा पराक्रमी है, किन्तु उसे भी अपने भोजन के लिए झाड़ियों में बैठकर घात लगानी पड़ती है। जुगत बाँधनी होती है और कभी-कभी उसे भूखा भी रह जाना पड़ता है। जिनत्व की साधना बहुत ऊँची चीज है। इसकी सिद्धि जन्म से नहीं, कर्म से करनी पड़ती है। सम्भव है, हमें इसके लिए न केवल इस जन्म को खर्च करना पड़े, अपितु जन्म-जन्मान्तर भी लग जाएँ। पर जिसके भीतर जिन होने का दृढ़ संकल्प है, खुशी-खुशी जीवन की सारी कठिनाइयों को सहने का अटूट धैर्य है, असफलताओं और विध्नों में जिनका साहस कुंठित न हो सके, जिस तरह काँटों में खिलने वाले गुलाब की तरह जो कठिनाइयों में भी सदा प्रसन्नता का अनुभव करते हैं वे ही जिनत्व के अधिकारी हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति संयम और तप की कठिनाइयों से डरते हैं, जिनके हृदय में न तो दृढ़ निश्चय है, और न साहस या धीरज है, वे कायर और डरपोक For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ / अमीरसधारा लोग इस भवसागर के किनारे पर बैठे हुए भी डूबकर मर जाते हैं। वे जिन्दे-जी डूबने के भय से सागर में नहीं उतरते। जो स्वयं जिन होने का पुरुषार्थ नहीं कर सकते, वे चले जाये उस मार्ग से जिससे जिन गये हैं। जो जिन-गुजरी पगडंडी पर चले, वही जैन है। अन्त में मैं यह भी कहना चाहूँगा कि हम जिन-वाणी का जिनशास्त्रों का स्वाध्याय करें। शास्त्रों में उन लोगों की वाणी के अमृतकण संकलित हैं, जिन्होंने जन-जन को जिन बनने का संदेश दिया, अनगिनत लोगों को जिन बनाया। पहले कमाया, फिर लुटाया, बाँटा। खुद भी तिरे, औरों को भी तैरना सिखाया। पहले मार्ग देखा, फिर मार्ग दिखाया। रास्ते की दुविधाओं को, रास्ते की दूरी को और गंतव्य की स्वणिमता को देखा, समझा, सोचा। सत्य, शिव, सुन्दर का सभी भोग करे। इसी उद्देश्य से प्रेरणाएँ दी, सूक्त कहे सूक्तियाँ बिखेरी। सारी दुनिया मेरा कुटुम्ब है। सबको यहाँ लाओ और सबके साथ मिलकर यहाँ रहो। अपने एक प्रज्वलित दीप से लाखों-लाख बुझे हुए दीप जलाये। उनका यह महादान है। उनकी इस ज्योति की सम्पदा ने प्रभावना की। इसलिए वे जिनत्व की यात्रा के प्रकाशस्तम्भ हैं, महादीप हैं। महावीर उन्हीं का नाम है। वस्तुतः महावीर हमें वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ विकारों का धूआं नहीं उठता, केवल आत्मा की अनन्त चैतन्य-ज्योति निर्धूम प्रज्वलित रहती है। जहाँ आग में धूआँ हैं, वहाँ गीलापन है, भटकना है, अज्ञान है, मिथ्यात्व है, अजिनत्व है । जैसे ही धूआँ हटा, जलती आग सुनहरी लगेगो । धूएँ सहित आग से, धूएं सहित दीये से लोग स्वयं भी बचना चाहते हैं, दीवार और कमरे की छत को भी बचाना चाहते हैं। भला, काला-कलूटापन किसे अच्छा लगे ! तो हमें हटाना है मिथ्यात्व के, अजिनत्व के गलाघोंटू धूएँ को। जलानी है निर्धूम ज्योति, जिनत्व की, सम्यक्त्व की, निर्वाण की, महाजीवन की। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना सभी स्वार्थी हैं। जो जितना बड़ा बुद्धिमान है, वह उतना ही बड़ा स्वार्थी है। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है। बुराई है स्वार्थ को ठीक तरह से न समझने में। एक कुत्ता भी स्वार्थवश ही घंटों मुँह ताकता है, दुम हिलाता है। उसका स्वार्थ है एक रोटी का टुकड़ा। आप एक कुत्ते को चार-पाँच दिन तक एक ही समय में रोटी गिराइये। छठे दिन आप देखेंगे कि कुत्ता ज्यों ही आपको देखेगा, अपनी दुम हिलायेगा। इसीलिए, क्योंकि कुत्ते ने अपनी स्वार्थ-पूर्ति का सम्बन्ध आपसे जोड़ लिया। आपने देखा होगा तोता-पंडित। जो फुटपाथों पर पिंजड़े से निकलता है और एक दाने के स्वार्थ के लिए मनुष्य का भाग्य-पत्र निकालता है। संसार के सारे व्यापार इसी तरह चलते हैं। मनुष्य के सारे धंधे, सारे कार्यकलाप स्वार्थ के लिए चलते हैं। दुकानदार दुकान खोलता है, मदारी तमाशा दिखाता है, योगी योग करता है, विद्यार्थी पाठशाला जाता है, सब स्वार्थ के लिए। मालिक नौकर को खिलाता-पिलाता है, पैसे देता है, नौकर मालिक की सेवा करता है, स्वार्थ के लिए। बाप बेटे को, पति पत्नी को, भाई-भाई को, गुरु शिष्य को, दुकानदार ग्राहक को किसान बैल को प्यार करते हैं, स्वार्थ के लिए। दान देते हैं स्वार्थ वशात्। स्वार्थ सधा कि सम्बन्ध कटा। स्वार्थ में बाधा पड़ी कि शत्रुता बढ़ी। सच पूछिये तो दुनिया स्वार्थ का अखाड़ा है, बड़ा भारी अखाड़ा। लेकिन सबका स्वार्थ एक जैसा नहीं है। सबके स्वार्थ अलग-अलग हैं, स्वार्थ-पूर्ति के तरीके भी अलग-अलग हैं। सभी अपने-अपने उल्लू सीधा करते हैं। फर्क यही है कि किसी का उल्लू काठ का है और For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ / अमीरसधारा किसी का उल्लू वास्तविक है, घोंसले वाला है । यह सारा भेद स्वार्थ में स्व के अर्थ की समझदारो और नासमझी से है । स्वार्थ का अर्थ है आत्म-प्रयोजन यानी मतलब साधना । इसीलिए स्वार्थी आदमी को मतलबी कहते हैं । स्वार्थ यानी स्व के लिए, अपने लिए, आत्मा के लिए । कोई अपने शरीर के अन्तस्थ-तत्त्व को आत्मा समझता है और कोई इस शरीर को ही आत्मा समझता है, स्व समझता है। किसी का स्व अपने भरे-पूरे परिवार में रहता है, तो किसी का स्व अपने बैंक - बैलेंस में उलझा रहता है । कोई अपने स्व को अपना सुन्दर रूप समझता है, तो किसी की समझदारी में अपना पेट पालना ही बहुत बड़ा स्व है । कोई इन सबसे दूर जाता है हिमालय में स्व को ढूंढने, तो कोई मन्दिरों, मस्जिदों में स्व की तलाश करता है । कोई दुःखी - दरिद्रों की सेवा में ही उस स्व की आहट पाता है, तो कोई स्व को अपने ही अन्दर दर्शन करता है । स्व से हटा कौन है ? सभी तो स्व से जुड़े हैं, और जो स्व से जुड़े हैं, वे स्वार्थी हैं । इसीलिए मैंने कहा संसार स्वार्थी है, परम स्वार्थी है, स्वार्थ का धाम है । भेद स्वार्थ के तौर-तरीकों में हैं । एक बात और है कि स्वार्थ चाहे जैसा हो, पर उसकी मूल जड़ सुख पाना है । सारे स्वार्थ सुख की प्राप्ति हेतु ही साधे जाते हैं । स्वार्थ बिना कोई करे, अच्छे बुरे न काम | फिर चाहे परमार्थ हो, पुण्यार्जन का धाम || चाहे पाप हो या पुण्य, स्वार्थवश ही तो होते हैं । पाप करने से अपना स्वार्थ सधता है और पुण्य करने से स्वर्ग का स्वार्थ । चाहे आदमी पाप करे या पुण्य, सुख का स्वार्थ सभी से जुड़ा रहता है । प्राणी प्रत्येक कार्य सुख के लिए ही करता है, दुःख के लिए कोई काम For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २५ नहीं करता है। फिर भी दुःख से छुटकारा नहीं मिलता है। यह कैसी भाग्य की विडम्बना है कि दुःख किसी न किसी मार्ग से आ ही जाता है। बुद्ध के चार आर्यसत्य इसी दुःखवाद के खम्बों पर टिका है। सचमुच दुःख है। यह अनचाहा मेहमान है और सबको इसकी खातिरदारी करनी पड़ती है। यह वह मेहमान है, जो हमारे पूर्व जन्म से सम्बन्ध जोड़ता है, पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों का लगाव लेकर आ जाता है। हमें भले ही जानकारी न हो, मगर हमारा दुःख हमें भूलता नहीं। यह पुराना दोस्त है। कितना भी उससे पिंड छुड़ावें वह छोड़ने को राजी नहीं होता। ____ आप जरा सोचिये, ऐसा क्यों होता है ? दुःख बिना बुलाए क्यों आ जाता है ? और सुख बुलाने पर भी क्यों नहीं आता ? इसे आप समझे। बात यह है कि जब मनुष्य अपने स्वार्थ को समझने में गलती करता है, सुख को ठीक से नहीं पहचानता, तो वह अपनी गलती की सजा पाता है। दुःख आता है, सुख का चूंघट निकाल कर, आकर्षण का मनमोहक रूप धारण कर। ____ सुख का आवरण इतना घना और मोहक होता है कि बड़े-बड़े समझदार व्यक्ति भी समझ-बूझ रखते हुए भी चकरा जाते हैं। दुःख के कारणों को सुख के सबसे बढ़िया कारण समझने लगते हैं। और उन्हें समझाओ, तो समझाने पर भी समझ नहीं पाते हैं। जिसे दिग्भ्रम हो जाता है, वह पूर्व दिशा को ही पश्चिम दिशा समझने लगता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह नहीं जानता कि सूरज किस दिशा में उगता है। पर जब उसे नई जगह पर दिशा का भ्रम हो जाता है, तो लाख समझाने पर भी उसके दिल-दिमाग में नहीं बैठता कि सूर्योदय पूर्व दिशा में हो रहा है। उसे यही लगता है कि सूरज ही गलती से आज पश्चिम दिशा में निकला है। यही बात घटती है सुख-दुःख की वास्तविक पहचान में भी। इसे ही लोग माया और मिथ्यात्व की लीला कहते हैं। विरले ही For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ / अमीरसधारा ऐसे होते हैं, जो सुख की सच्ची पहचान रखते हैं और उस सुख को पाने के लिए प्रयास करते हैं। ___ वास्तविक सुख भी एक बूंघट में छिपा रहता है। लेकिन यह चूंघट हर आदमी को लुभाने वाला नहीं होता। हर आदमी के लिए तो यह डराने वाला और भगाने वाला होता है। इस चूंघट के त्याग, तपस्या, ध्यान, समाधि के बोर्डर लगे रहते हैं। इसीलिए इस चूंघट को तो कोई विरली आत्माएँ ही पसन्द करती हैं। सच कहूँ तो ऐसे लोग ही सच्चे स्वार्थ को साधं पाते हैं। दिलीप जैसे राजा ही कामधेनु का आर्शीवाद पा सकते हैं। जिस व्यक्ति के भीतर दिलीप जैसा प्रयत्न है, वही रघु को पा सकता है, उसी का स्वार्थ सध सकता है। वशिष्ठ ने दिलीप से कहा, जाओ तुम इस कामधेनु गाय की सेवा करो, अपनी माँ समझकर। यही तुम्हें वर देगी। दिलीप लग गया गाय की सेवा में अपनी पत्नी के साथ। पति-पत्नी ने बहुत सेवा की गाय की। दिलीप जैसा गौ-भक्त कोई नहीं हुआ, जो गाय को बचाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए उतारु हो जाता है । सिंह प्रकट हुआ। उसने कहा, मैं गाय को मारूँगा। दिलीप ने विरोध किया। उसने बहुत बड़ी बात कह दी कि गाय माता को तुम नहीं मार सकते, जब तक मैं जिन्दा हूँ। सिंह ने कहा, मुझे शिव ने भेजा है, मैं गाय का संहार अवश्य करूंगा। मैं आया हुआ, खाली नहीं जा सकता दिलीप बोला, यदि तुम वापस नहीं जा सकते, तो मुझे ले जाओ, मेरा भक्षण कर लो, मुझे मार दो। यह ऋषि की गाय है। इसकी रक्षा करना ऋषि की रक्षा करना है। ऋषि का आदेश है मुझे, इसकी सेवा करना, इसकी रक्षा करना। सिंह ने कहा-राजन् ! तुम कैसी मूर्खता की बात कह रहे हो। एक गाय के लिए तुम अपना जीवन समाप्त कर रहे हो ? इस गाय के मरने से तुम्हें कोई हानि नहीं होगी, पर तुम्हारे मर जाने से For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २७ तुम्हारा सारा राज्य उजड़ जायेगा। दिलीप बोला, सिंह ! तुम घबराते हो, मुझे मारने से। लो, मैं स्वयं ही अपने प्राणों का उत्सर्ग करता हूँ। यह कहते हुए दिलीप ज्यों ही प्राणोत्सर्ग करने के लिए उद्यत होता है, कि तत्काल सिंह अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर देता है। कामधेनु कहती है, दिलीप ! यह सारी मेरी ही माया थी। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ, तुम्हारा मनवांछित सिद्ध होगा। कामधेनु की कृपा से दिलीप ऐसा पुत्र पाता है, जिसके नाम से रघुवंश चलता है। ___ मैं सोचता हूँ कि कितने हैं भारत में दिलीप जैसे। जैसे दिलीप कामधेनु के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने के लिए उतारु हो जाता है, वैसे ही जब कोई व्यक्ति स्वयं को सच्चे सुख के लिए, उस चूंघट को पहनने के लिए, उसे पहने रखने के लिए न्योछावर होता है, तभी वह कुछ उपलब्धि कर सकता है। यह वह उपलब्धि होगी, जो उसे अजरअमर कर देगी। जिस सच्चे सुख को, जिस सच्चे स्वार्थ को मैं साधने की बात कह रहा हूँ वह रास्ता सचमुच दुष्कर है। पहले पहल तो लगेगा, अँधियारे से भरा हुआ, काँटों से सजा हुआ, वापस धकेलता हुआ। पर अँधियारे में ही कहीं दीया पड़ा है, काँटों में ही कहीं फूलों की कलियाँ छिपी हैं, वापस धकेलनेवालों के बीच ही कोई हाथ थामने वाला खड़ा है। उस दीये को जलाना, उन कलियों को खिलाना; थामने वाले को खोजना ही हमारी सच्ची साधना है। इसी में परम स्वार्थ सधता है; सुख की बाँसुरी के स्वर वहीं सुनाई देते हैं। स्वार्थ साधने के रास्ते अनगिनत हैं, किन्तु यह हमारे ऊपर है कि हमने कौन-कौन-सा रास्ता अपनाया। या हमें कौन-कौन-सा रास्ता अपनाना है। माचिस के अनेक उपयोग हैं, पर हम उससे For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ / अमीरसधारा अँधियारा भगाते हैं या झोपड़ियों में आग लगाते हैं। यह हमारे ऊपर ही आधारित है। स्वार्थ दोनों में सधता है। ज्ञान तो प्रायः बहुतों को रहता है कि वास्तविक स्वार्थ क्या है और जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है; पर ज्ञान रखते हुए भी लोग दिग्भ्रमित हो जाते हैं और क्षणिक सुख के लिए गलत रास्ता अपना बैटते हैं। न केवल रास्ता अपनाते हैं, बल्कि उसमें ऐसे उलझ जाते हैं, जैसे मकड़ी अपने जाल में। दूसरों को फंसाने के लिए बिछाये गये जाल में जब व्यक्ति स्वयं ही फंस जाता है, तो दृश्य देखने जेसा होता है। जब आदमी का पैर गन्दा रहता है, तब उसे कीचड़ में ही चलने में आनन्द आता है। जब तक पैर स्वच्छ रहते हैं, तभी तक वह गन्दगी से बचकर चलता है। खून से सने कपड़े पर यदि दोचार छींटे और भी लगे, तो वह उसकी परवाह नहीं करता। जो अपराधी पुलिस की पकड़ में आ गया है, उसे यदि हम दो-चार चपत लगा दें, तो उसके कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जो व्यक्ति बहुत लोगों की हत्या कर चुका है, वह यदि दो चार की और हत्या कर दे, तो उसके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। पर जो निरपराधी है, यदि चपत दिखाया भी जायेगा, तो वह उसका विरोध करेगा। अहिंसक के लिए एक चींटी को मारना भी विचारणीय बन जाता है। स्वच्छ कपड़े पर कौन कीचड़ गिरने देगा ? होली के दिन रंग के छींटे कोई डाले तो मंजूर है, पर दिवाली के दिन क्या कोई रंग के छींटे डलवाना पसंद करेगा? ____ एक व्यक्ति ने अपने बेटे से कहा, बेटे ! मेरे चोले पर स्याही गिर गई है, जरा साफ कराना तो। बेटा गया घर में, और उठा लाया स्याही की बोतल। और पिता से कहा, लो पापा ! चोला धो लो, साफ कर लो। पिता ने सिर पर हाथ मारा। क्योंकि स्याही से सना For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २९ वस्त्र स्याही से साफ नहीं होता। बल्कि स्याही से और सन जाता है । तो स्याही से सने वस्त्र के लिए पानी की जरूरत है । जो अपने कपड़े को स्वच्छ करने में लगा है, वह सदैव सतर्क रहता है कि कहीं मेरे कपड़े पर कोई दाग तो नहीं है । संयोगवश कहीं दाग दिखाई भी पड़ जाये तो उसे धो डालने का प्रयास करता है । स्वार्थ इसी में है कि स्व बचा रहे, स्वच्छ कपड़े की तरह, दाग हट जायें, स्याही के, खून के । जब स्व पर से हटता है, जब स्व स्व में समा जाता है, वहीं स्वारोहण होता है । मैं जिस स्व की बात कर रहा हूँ, स्वनिकेतन की चर्चा कर रहा हूँ, वही है आत्म- मन्दिर, हमारा असली घर । यह भगवान् का मन्दिर है और इन्सान का घर है । इसी घर में है गृह स्वामी । आत्म- मन्दिर में ही विराजित है, परमात्मा की प्रतिमा । हमें इसी की पूजा करनी है और उस पूजा की सामग्री है ध्यान । ध्यान ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा आत्मा में छिपी परमात्मा की आभा मुखरित होती है । ध्यान ही वह चाबी है, जिससे अन्तःकरण का ताला खुलता है । साधना के मार्ग में ध्यान वैसा ही है, जैसा आकाश में सूर्य । ध्यान ही साधुता की जड़ है ।" सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ जैसे शरीर में मस्तक है, वृक्ष में जड़ है, वैसे ही साधना में ध्यान है । इसीलिए मनुष्य के हाथ-पैर कट जाने के बाद भी वह जिन्दा रहता है, मगर मस्तक कट जाने के बाद जीवन-लीला ही समाप्त हो जाती है । वृक्ष है, मगर वह तभी तक जब तक उसकी जड़ें मजबूत हैं । डालियाँ काटो, पत्ते काटो, तना काटो, पर जड़ें रहने दो । पेड़ फिर खिल उठेगा, पुनः जीवित हो उठेगा। इसकी जगह डालियाँ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० / अमीरसधारा रहने दो, पत्ते रहने दो, तना रहने दो, पर जड़ें काट दो, पेड़ अपने आप सूख जायेगा, पत्ते, तने, डालियाँ अपने आप सूख जायेंगे । एक गमला लीजिये । गमले के तले में कुछ छेद कर दीजिये । उसमें मिट्टी डालिये, बीज डालिये, सोंचिये, पौधा लग जायेगा कुछ दिन में । ज्यों-ज्यों पौधा उपर बढ़ता है, त्यों-त्यों उसकी जड़ें भी नीचे से बढ़ती हैं। आप एक प्रयोग कीजिये । उस पौधे की जड़ें, जो गमले के छेंदों से बाहर निकलेंगी, बाहर निकली जड़ों को काट दें । आप पायेंगे कि पौधे का बढ़ना रुक गया। यदि आप हर सप्ताह उसकी जड़ों को, बाहर निकली जड़ों को काटते रहेंगे, तो आप पायेंगे कि वर्षों बोत जाने पर भी पौधा उतना ही रहा, बढ़ा नहीं । इसीलिए जो पेड़ जितना बड़ा होगा, उसकी जड़ें भी उतनी ही बड़ी होंगी । कलकत्ते के बोटोनिकल गार्डन में, मद्रास के बोटोनिकल गार्डन में जो संसार प्रसिद्ध पेड़ हैं, उनकी वृहत्ता की आधारशिला उनकी जड़ें ही हैं, गहरे से गहरी पैठी हुई । जैसे जड़ें हैं मुख्य पेड़ की, वैसे ही ध्यान जड़ है साधुता के तरुवर की । साधु है, संत है, जब तक ध्यान है, तभी तक साधुता है, संतता है। ध्यान से च्युत होने वाला साधु पूर्ण साधु नहीं है, वह मुक्तिका पांथ नहीं है । वास्तविक ज्ञान की उपयोगी क्रिया ही ध्यान है । क्रिया 1 में नहीं आया ज्ञान भार है । साधु ज्ञान और क्रिया दोनों का बिम्बप्रतिबिम्ब है, सम्मेलन है, संगम है । साधु यानी स्वार्थी, महास्वार्थी । महास्वार्थी अर्थात् स्व के लिए, आत्मा के लिए करने वाला, और बड़े जोर-शोर से करने वाला । इसीलिए साधुता की जड़ें ध्यान में पैठी हुई हैं । जब ध्यान का रस, ध्यान का लगाव, ध्यान का अनुराग कम होगा, तो यही समझिये कि व्यक्ति के भीतर साधुता का रस, स्वत्व का लगाव, अध्यात्म का अनुराग कम हो गया । जो ध्यान में लगा है, वही सच्चा साधु है, और वही अपने स्वार्थ के लिए कुछ-न-कुछ करता है । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / ३१ जिसके पास यौगिक 1 युग को प्रभावित करने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति में कुछ यौगिक बल हो, यौगिक शक्ति हो ध्यान के बीज हों। शक्ति है उसका नगाड़ा जोरदार बजता है । लोग उससे अवश्य प्रभावित होते हैं । और जो लोग ऐसे होते हैं, उनको दुनिया की परवाह नहीं रहती, पर दुनिया उनकी परवाह करती है । आनन्दघन योगी हुए, ध्यानी हुए । उन्होंने जग की परवाह नहीं की, पर जग ने उन्हें माना । वे तो कहते थे 'आशा औरन की क्या कीजे', पर सब लोग उनके पीछे पड़े। मूत्रोत्सर्ग से पेशाब से, पत्थर को स्वर्ण में बदल देना, बुखार को कपड़े में उतार देना जैसे उनके अनेक यौगिक चमत्कार प्रसिद्ध हैं । कबीर की तरह अलमस्ती में गाये - रचे उनके पद, उनके गीत आज हम सबके लिए वरदान सिद्ध हुए हैं । शान्तिविजयजी को क्या कम चामत्कारिक योग - विभूतियाँ प्राप्त थीं । उनके पास में सिंह, चीते, बाघ आदि हिंसक पशु भी हिंसा का भाव छोड़कर उपस्थित रहते थे । उनके कोई चेला नहीं था, पर आज कितने लोग उनको मानते हैं । रहे पहाड़ों में; आबु में, पर ध्यान की जड़ें उनकी इतनी गहरी होती गयी कि पहाड़ों को छेदकर सारे देश में फैल गयी उसकी शाखाएँ । तो जिसने भी ध्यान को, योग को, साधना को, साधुता को महत्व दिया, उसने संसार में महत्ता पायी, गरिमा पायी । वह अकेला होकर भो संसार का शिरोमणि बना, कोहिनूर हीरावत् चाहा गया । तो ध्यान साधुओं के समस्त धर्मों का, और समस्त साधुता का सार है, जड़ है, बीज है । ध्यान को साधना उतना ही कठिन है, जितना बीज को सींच- सींचकर उससे फूल खिलाना । जब ध्यान के फूल खिल जाते हैं, तो आनन्द की सुगन्ध फैल जाती है, जीवन का बगीचा महक उठता है । यद्यपि मन चंचल है; टिकता नहीं, दौड़ता है, फिर चाहे वह साधु का हो या गृहस्थी का, किसी सांसारिक का । वेश या For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ / अमीरसधारा चोगे का उपयोग तो शरीर के लिए है। मन तो वेशमुक्त है। वह कभी तो नीचे गिर जाता है और कभी उपर उठ जाता है, और ऊपर भी इतना उठ जाता है कि निर्वाण की एवरेस्ट चोटी को छू देता है। जिस प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का मन उन्हें सातवीं नरक में ले जाने को उद्यत हो जाता है। वही जब ऊपर की ओर उठता है, तो इतना उठता है कि राजर्षि ब्रह्मर्षि बन जाते हैं, उन्हें परम ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि मन वेशमुक्त है। उसका सम्बन्ध भीतर से है। वह अन्तर् घर का मालिक बना बैठा है। वह उस जगह अपना शासन करता है, जहाँ कोई वेशभूषा या लिंगचिह्न नहीं है । इसीलिए जिस साधु का जिस साधक का अन्तरमन नहीं सधा, मन निग्रन्थ नहीं बना, तो बाहर का धारण किया हुआ द्रव्यलिंग बेकार साबित हो जाता है। वह वेश उसको दुनिया के द्वारा आदर तो दिला सकता है, पर उसकी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता। आत्मा का कल्याण, स्वयं का विकास, स्वार्थ का श्रेय तो तभी होता है, जब व्यक्ति भीतर से जुड़ता है। और ध्यान व्यक्ति को भीतर से जोड़ने वाला है, योजक है। यह वह सूई-धागा है, जो फटे कपड़े को साँधती है। पर एक बात पक्की है कि ध्यान का सम्बन्ध भीतर से है । बाहर से भीतर, भीतर से और भीतर ले जानेवाला है यह। और भीतर भी, इतना भीतर ले जाता है कि कुण्डलिनी जग जाती है, षट्चक्र भेदन हो जाते हैं, सहस्रकमल रस से भीग जाता है, अन्दर में आनन्द का सागर हिलोरे लेने लगता है, एक ब्रह्मनाद होता है और व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है, उसे केवलज्ञान का प्रकाश मिल जाता है। इसलिए ध्यान जुड़ा है हमसे, हमारे स्व से, आत्मा से। जो लोग चाहते हैं अध्यात्म में रमण करना, उसका फल पाना, वे लोग जुड़े स्वयं For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ३३ से। जिस चीज को ढूंढना है, उसे पहले अपनी जेब में ढूंढ लो। वहाँ न मिले, तो बाहर जाना। पर लोग हैं, जो बाहर जाते हैं, स्व को पर में ढूंढते हैं। 'कस्तूरी कुंडल बसै'-मृग की नाभि में ही है कस्तूरी। पर मृग ढूँढे वन माहि—पर हरिण उसे जंगल में ढूँढता है। आओ, अपने आप में, कस्तूरी पाने के लिए, आत्मा से जुड़ने के लिए। भले ही कस्तूरी दिखाई न दे, भले ही भीतर की साधना तमसावृत लगे पर कस्तूरी को ढूंढना अपने पास ही पड़ेगा, आत्मप्रदीप भीतर ही है। घर में खोई सूई को घर में ही ढूँढना होगा, भले ही घर में अँधियारा हो। बाहर का प्रकाश काम न देगा, भीतर के लिए। राबिया वसी के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार वह अपनी कुटिया के बाहर कुछ ढूँढ रही थी। उसी समय उसकी कुटिया के पास से दो-चार संत गुजरे, फकीर लोग। फकीरों ने राबिया से पूछा, माँ ! क्या ढूँढ रही हो ? राबिया ने कहा, सूई खो गई, ढूँढ रही हूँ। संत-फकीरों ने सोचा माँ बूढ़ी है, हमें भी सूई ढूँढ निकालने में मदद करनी चाहिये। तो फकीर लोग भी ढूँढने लगे सूई को। बहुत ढूँढा, पर मिली नहीं। आखिर तंग आकर एक फकीर ने कहा, माँ ! सूई मिल नहीं रही है। गिरी कहाँ थी ? राबिया बोली, गिरी तो कुटिया में थी। सभी फकीर अचम्भे में पड़ गये। उन्हें बुढ़िया की मूर्खता पर और अपनी मूर्खता पर भी हँसी आई। सोचने लगे, बुढ़िया ने हमको खूब बनाया। बुढ़िया के पीछे हम भी उल्लू बन गये। एक फकीर ने कहा, माँ ! क्या तूं पागल हो गई है ? सूई कुटिया में खोई है और ढूंढ रही है कुटिया के बाहर। अरे, जब कुटिया में ही सूई खोई है, तो जा कुटिया में ही ढूँढ । राबिया ने कहा; तुम लोग बात तो ठीक कह रहे हो पर क्या करू कुटिया में अँधियारा है। बाहर में प्रकाश है। इसलिए बाहर For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ / अमीरसधारा ढूँढने लगी। फकीरों को बुढ़िया की बात पर और हँसी आई। बोले, अरे ! कुटिया में अन्धेरा है तो जा पड़ोसी से प्रकाश माँग ला, दीया लेआ। धर में खोई सूई घर में ही मिलेगी। अब की बार राबिया हँसने लगी। फकीरों को आश्चर्य हुआ। राबिया को हँसती देख। हँसने का कारण पूछा। राबिया बोली, अरे मैं तो समझती थी कि तुम लोग अभी बालक हो, ज्ञान के क्षेत्र में नादान हो। पर तुम लोगों को तो बड़ा ज्ञान है। अरे, जब तुम लोगों को यह ज्ञात है कि घर में रही सूई को घर में ही ढूँढना पड़ेगा, भले ही वहाँ अँधियारा लगे तो तुम बाहर क्यों ढूँढ रहे हो ? आज इतने वर्ष हो गये ढूँढते, पर तुम्हें मिला नहीं। मिलेगा भी कैसे ? वह तो तुम्हारे अन्दर है। बाहर का ध्यान हटाओ, भीतर में आओ। इसी अन्तर घट में समाया है, वह, जिसे तुम ढूँढ रहे हो। तो आओ भीतर में, भीतर की याद हमें आ रही है अब । शुरूआत में लगेगा, कि ध्यान में मन नहीं लगता। क्योंकि मन अभी बाहर भटकने का आदी है। भीतर रहने का वह अभ्यस्त नहीं हुआ है । पर अभ्यास से भीतर भी रहने लग जायेगा। यों तो आदमी साँप से डरता है, पर अभ्यास हो जाय तो वह साँप को पकड़ भी सकता है। अभ्यास से सब कुछ सम्भव है। ‘रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान'-कूए पर बनी पत्थर की मेड़ भी घिस जाती है रस्सी से, रोजाना पानी खींचते-खींचते। ‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' वैसे ही अभ्यास करते-करते गँवारु भी पण्डित हो जाता है। मन भी एकाग्र हो जाता है। जो मन कहीं नहीं लगता, वह भी लग जाता है, एकाग्र हो जाता है। ध्यान का अभ्यास हो गया, तो जैसे अभी बाहर घूमने में रस आता है, वैसे ही बाद में भीतर घूमने में रस आयेगा, अन्तर्यात्रा में ही आनन्द और शान्ति का अनुभव होगा। फिर मन चपल नहीं होगा। यह उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / ३५ बाँध बाँध देने से बहता और भटकता पानी टिक जाता है, स्थिर हो जाता है । पर जो मन बाहर भटकता है, विषय-वासना में फँसा रहता है, वह बाढ़ के पानी की तरह बहता रहता है, कितनों को उखाड़ता है, पर स्वयं बहता रहता है । आँधी से जो दशा जलती हुई दीपशिखा की होती है, वही दशा विषय वासना से मन की होती है । कभी लौ इधर जाती है, तो कभी उधर । यानी डगमगाती रहती है । उसी तरह मन भी इधर-उधर डोलता रहता है। जबकि ध्यान एक ऐसा कमरा है, जैसे यह प्रवचन - - हॉल है, इसमें हवा का प्रकोप नहीं है, तो दीपक की लौ स्थिर रूप से जलती रहेगी । तो ध्यान निर्वात कक्ष है, जहाँ मन की लौ स्थिर रहती है । राग-द्वेष की हवा से मुक्त रहकर आत्म- मन्दिर में ध्यान का दीपक जलता रहे, तो स्वार्थ पूर्ति में, आत्मसाक्षात्कार में विलम्ब नहीं होगा । वहाँ हमेशा उजियाला रहेगा, अँधियारा दूर भग जायेगा । निर्वाण की स्थिति सध जायेगी, वाण अर्थात् वासना नहीं रहेगी, निर्वाण का निर्धूम दीप जलेगा । - जो व्यक्ति ऐसा दीप जलाने में लगा है, वही सच्चे स्वार्थ को उपलब्ध कर सकता है । स्वार्थी तो सारी दुनिया है, पर मैंने जो स्वार्थ की बात कही, उसकी पूर्ति में तो कुछेक लोग ही रहते हैं । स्वार्थ को हम छोड़ नहीं सकते । स्वार्थ की साधना तो करनी ही है, पर उसे नई दिशा में योजित करके । ध्यान साधना ही स्वार्थसाधना है और स्वार्थ साधना ही ध्यान-साधना है । जिनका ध्यान सध गया, जिन्होंने स्व के फूल खिला लिये, उन्हें इसके लिए श्रम करने की जरूरत नहीं है । जिनका स्वार्थ नहीं सधा, वे ही ध्यान को अपनाएँ । - For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ / अमीरसधारा नहीं जरूरत योग की, जिसका नीड़ निवास । नीड़ छोड़, भटके उड़े, करे योग अभ्यास || जो पंछी नीड़ में है, उसे नीड़ में आने की बात ही कहनी बेवकूफता है। जो पंछी नीड़ को छोड़कर, आकाश में भटक रहा है, वही वापस आने का अभ्यास करे, वही नीड़ की दिशा में उड़े। ध्यान - साधना और योग - साधना उसी के लिए है, जो बाहर है, भटक रहा है, दिग्भ्रमित है, ताकि वह सम्यक् मार्ग पर आरूढ़ हो सके, स्वयं को पा सके, नीड़ में आ सके। स्वयं का स्वयं में आने के लिए दृष्टि को लगाना ही ध्यान है और जो लगाता है, वही ध्यानी है, वही स्वार्थी है, परम स्वार्थी है। जो ऐसा स्वार्थी है, सच्चे अर्थों में वही निःस्वार्थी है स्वयं की दृष्टि में वह स्वार्थी होगा, पर दुनिया की दृष्टि में वह निःस्वार्थी है। क्योंकि उसके सारे कर्म दुनिया के लिए कल्याणकारी होंगे जो स्वार्थपरक कम दुनिया के लिए अहितकर है, वह खोटा स्वार्थ है, और खोटे सिक्के की तरह लोग उसे दूर धकेलते हैं। जो स्वार्थपरक कर्म दुनिया के लिए हितकर और श्रेयस्कर हैं, वह सच्चा स्वार्थ है, और असली सिक्के की तरह लोग उसे पास रखते हैं, सहेजकर, सम्हालकर रखते हैं। उसके लिए उनके मन में आदर होता है। ध्यान में लगे स्वार्थी के कर्म असली सिक्के की तरह सब परिस्थितियों में, सभी स्थानों में, सभी युगों में सर्वमान्य होते हैं। हमें साधना है ऐसा ही स्वार्थ, जो स्वकल्याण भी करता है और परकल्याण भी, लोककल्याण भी। For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का जीवन काव्य-जैसा है। जैसे काव्य मन को भाता है, वैसे ही जीवन भी सबको भाता है। जो काव्य रामायण जैसा है, वह सुखद होता है। जो जोवन राम जैसा है, वह भी सुखकर है। जो काव्य सड़क छाप है, जिसे सुनने से उबासियाँ आने लगती हैं, लोग झपकी लेने लग जाते हैं, वह काव्य, काव्य नहीं, मात्र शब्दाक्षरों का समूह है। वह जीवन भी कोई जीवन थोड़े ही है, जो संसार के लिए अहितकर है, मृतप्रायः है। इसलिए जीवन ही काव्य है और काव्य ही जीवन है। जैसे काव्य की दो धाराएँ हैं अंतरंगीय और बहिरंगीय, वैसे ही जीवन की भी दो धाराएँ हैं। जहाँ दोनों धाराओं में संगम है, वहीं जीवन्तता है, काव्यता है। छंद, अलंकार आदि काव्य के बहिरंगीय पहलू हैं और रस काव्य का अंतरंगीय। यद्यपि काव्य की आत्मा रस ही है, पर छंद, अलंकार उस रस को उपजाते हैं। वैसे ही जीवनकाव्य है। जीवन का मुख्य उसका अंतरंग ही है, पर बहिरंगता को साथ लिए बिना अंतरंग की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। जीवन का बहिरंग भौतिक साधनों से जुड़ा हैं और अंतरंग आध्यात्मिक साधनों से। इसलिए बहिरंग विज्ञान है और अंतरंग अध्यात्म है। विज्ञान भौतिक प्रयोग है और अध्यात्म ध्यान योग है। विज्ञान का शास्त्र शुरु होता है, पर से और अध्यात्म का शास्त्र शुरु होता है खुद से। अध्यात्म और विज्ञान में फर्क तो है, पर वह जीवन के अंतरंगीय और बहिरंगीय जितना ही। दोनों में प्रतियोगिता तो है, प्रतिस्पर्धा तो है, पर राम-रावण जैसा कोई प्रतिद्वन्द्वी भाव नही हैं। यह तो वैसे ही है, जैसे विद्यालय में प्रतियोगिताएँ होती हैं। दस लड़के गीत गाते हैं, कोई एक पुरस्कार पाता है। प्रथम वह जरूर आया, पर प्रथम आने से बाकी लड़के उससे दुश्मनी नहीं रखेंगे। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८/ अमीरसधारा जीवन का अंतरंग और बहिरंग, अध्यात्म और विज्ञान भी भिन्नभिन्न तो है, पर दोनों ही जीवन के अंग हैं, मानवीय मस्तिष्क की उपज हैं। इसलिए दोनों में विरोध और द्वन्द्व नहीं है। व्यतिरिकी तो हैं, पर मित्र हैं परस्पर । वैसे अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही विज्ञान है। अध्यात्म आत्मा का विज्ञान है और विज्ञान प्रकृति का विज्ञान है। अध्यात्म अंतरंग की धारा का प्रतिनिधि है और विज्ञान बहिरंग धारा का। विज्ञान चलता है अणु से लेकर खगोल-भूगोल आदि के प्रयोगों पर, और अध्यात्म चलता है अंतरंग की गहराइयों पर, चेतना की शक्तियों पर। इसलिए बाहर को समझने के लिए विज्ञान सहयोगी है, तो भीतर को समझने के लिए अध्यात्म सहयोगी है। दोनों पूरकता लिए है। विज्ञान में तथ्य को समझा जाता है और अध्यात्म में, ध्यान से तथ्य का अनुभव किया जाता है। विज्ञान अपने से बाहर की यात्रा है और अध्यात्म बाहर से भीतर की यात्रा है। विज्ञान बाहर की खोज करता है, अध्यात्म/ध्यान भीतर की खोज करता है। विज्ञान परकीय तथ्यों को उभारता है, अध्यात्म स्वकीय तथ्यों को उजागर करता है। वास्तव में अध्यात्म शुद्धात्मा में विशुद्धता का आधारभूत अनुष्ठान है। नहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अझप्पेण समाहरे ॥ सूत्रकृतांगसूत्र में कहा है कि जैसे कछुआ अपने अंगों को अपनी देह में समेट लेता है, वैसे ही ज्ञानी लोग पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेते हैं। अध्यात्म अर्थात् ध्यान। यह वह साधना है, जो स्वयं पर लगे हुए परदों को, ऊपरी आवरणों को, अन्तर-स्रोत की चट्टानों को, चूंघट For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / ३९ को हटा देता है। वह घूघट किसी का भी हो सकता है। मन का भी हो सकता है, चिन्तन-वचन का भी हो सकता है, शरीर का भी हो सकता है। मन, वचन और शरीर के इन तीनों चूंघटों को हटाने के बाद ही आत्मा-परमात्मा के सौन्दर्य का दर्शन होता है। अन्यथा कोई कितना भी सुन्दर क्यों न हो, यदि वह घूघट में है, किसी से आवृत है, तो उसका सौन्दर्य ढका हुआ ही रहेगा। आइंस्टीन जैसों ने किये होंगे आविष्कार-पर-आविष्कार। पर सारे के सारे परकीय पदार्थों का आविष्कार हुआ। दीपक तले तो अंधेरा ही रह गया। स्वयं का आविष्कार कहाँ हुआ ? यदि हम केवल विज्ञान को महत्व देंगे, तो बड़ी भूल करेंगे। क्योंकि बहिरंग ही सब कुछ नहीं है। जैसे अंतरंग से सभी को जुड़ा रहना पड़ता है, वैसे ही अध्यात्म से भी जुड़ा रहना पड़ेगा। जैसा अतरंग होगा, वैसा ही बहिरंग होगा। बहिरंग के अनुसार अंतरंग नहीं हो सकता। जैसा बीज, वैसा फल; जैसा अंडा वैसी मुर्गी। अंतरंग शुद्ध है, तो बहिरंग भी शुद्ध होगा। जो भीतर से अशुद्ध है, वह बाहर से भी अशुद्ध होगा। पर बाहर से अशुद्ध ही हो, यह कोई जरूरी नहीं है। बगुला बाहर से शुद्ध, किन्तु भीतर से अशुद्ध रहता है। इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध है कि "मुख में राम, बगल में छुरी"। बाहर कुछ, भीतर कुछ, कथनी कुछ, करनी कुछ—दोनों में अन्तर, जमीन-आसमान जितना अन्तर। ___ आज का युग विज्ञान-प्रभावित युग है। आदमी बहिर्मुखी होता जा रहा है। जो लोग आत्ममुखता की चर्चाएं करते हैं, गहराई से देखें तो लगेगा कि उनके जीवन में भी बहिर्मुखता है। बहिर्मुखता प्रधान हो जाने के कारण आत्ममुखता गौण होती जा रही है। यदि कोई आत्ममुखी होने के लिए प्रयास भी करता है, तो बाहरी वातावरण उसे वैसा करने में अवरोध खड़ा कर देता है। बहिर्मुखता या बहिरंग से मेरा मतलब केवल बाहरी सुख, वैभव आदि से नहीं है, अपितु हमारा For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० / अमीरसधारा शरीर भी, हमारा वचन भी, हमारा मन भी बहिरंग ही है। और सत्य तो यह है कि ये ही सबसे अधिक बहिरंगीय पहलू हैं, जिनसे आदमी जुड़ा रहता है और आकाश में फूल खिलाता रहता है। ये मन, वचन, शरीर ही हमें अपने से, आत्मा से बाहर ले जाते हैं, मरीचिका के दर्शन से जल पाने के लिए हमारे भीतरी हरिण को सारे संसार के वन में दौड़ाते हैं। मन, वचन, काया के योग से अयोग होना ही ध्यान का लक्ष्य है। मन, वचन और शरीर—ये ही तो अन्तरात्मा की मूर्ति को ढके हैं, आवृत किये हुए हैं। ध्यान इसे अनावरित करता है। आवरणों को हटाता है, पर्यों को हटाता है। ध्यान की प्रक्रिया वास्तव में आत्मा के स्व-भाव को ढूँढना है । यह शरीर है, शरीर के भीतर वचन है, उसके भीतर मन है और इन तीनों के पार है आत्मा। तीनों के पार तो है, मगर सम्बन्ध तीनों से जुड़ा है क्योंकि आत्मा शरीर व्यापी है। पर लोग हैं ऐसे, जो शरीर को ही आत्मा समझ बैठते हैं और कायाध्यास हो जाता है, कायोत्सर्ग की भावना मन से निकल जाती है। इसीलिए मन, वचन, शरीर वास्तव में बाधाएँ हैं और हमें ध्यान द्वारा इन फंदों को काटना है। हमें समझना है, पर्तों-दर-पत्र्तों को, जिनसे आत्मस्रोत सुधा पड़ा है। शरीर स्थूलतम है। वचन शरीर से सूक्ष्म शरीर है और मन वचन से सूक्ष्म शरीर है। तीनों ही पदार्थ हैं, तीनों ही अणु-समूह हैं। ये तीनों पारमाण्विक, पौद्गलिक, भौतिक संरचनाएं हैं। मजे की बात यही है कि इन तीनों में मन सबसे सूक्ष्म है, पर वही इन तीनों में प्रधान है। शरीर और वचन दोनों का राजा मन ही है मन के ही काबू में हैं ये दोनों। मन जहाँ कहता है, शरीर वहीं जाता है। जिसके मन ने कहा, चलो धर्मस्थल में, वे यहाँ पहुँच गये। जिसके मन ने कहा, वहाँ जाने से कोई लाभ नहीं है, चलो दुकान में। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / ४१ तो आदमी दुकान चला जाता है। शरीर की सारी चेष्टाएँ मन के आदेश से होती है। वचन बेचारा है। मन ने चाहा कि मैं जैसा हूँ, वैसा ही वचन हो, तो वचन को वैसा ही होना पड़ता है। मन ने चाहा, कि मैं जैसा हूँ, वैसा वचन अगर मुंह से निकला, तो इसमें मेरी बेइज्जती होगी, मेरी हानि होगी, तो बिचारे वचन को मन की चाह के अनुकूल होना पड़ता है। इसलिए जो मन में है, वही वचन में होगा। जो हमारे वचन में है, वही शरीर में घटित होगा। मन तो बीज रूप है। वचन अंकुरण है और शरीर फसल है। फसल से प्राप्त होने वाले अनाज ही उसका अभिव्यक्त रूप है। यद्यपि बहिष्टि से शरीर प्रथम है, किन्तु अन्तरदृष्टि से मन प्रथम है। पर योजित तो हम होते ही हैं, चाहे बाहर से हों या भीतर से। हम योजित होते ही हैं, यानी हमारी आत्मा योजित होती है, हमारा अस्तित्व योजित होता है। जैसे भूख लगने पर हम कहते हैं मुझे भूख लगी है। अब आप सोचिये कि भूख किसे लगती है ? भूख का सम्बन्ध इस पेट से है, शरीर से है, किन्तु हम कहते हैं मुझ भूख लगी है। तो हमने शरीर से जुड़ने वाली चीज को आत्मा से जोड़ लिया। इसलिए, क्योंकि शरीर के साथ तादात्म्य है। इसी तरह क्रोध उठा। क्रोध विचारों में आया, किन्तु हम कहेंगे, मुझे क्रोध आया। यह विचारों के साथ आत्मा का तादात्म्य है। वासना जगी। वासना मन में जगती है, पर कहते हैं मैं कामोत्तेजित हूँ। हमने मन के साथ मैं को जोड़ा, आत्मा को जोड़ा, पर के साथ स्वयं को जोड़ा। यद्यपि मन, वचन, शरीर ये तीन नाम हैं, किन्तु तीनों अलगअलग नहीं है। तीनों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। तीनों एकदूसरे के पूरक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। बीज, अंकुर और फसल कोई अलग-अलग नहीं है। तीनों का अपना-अपना स्वरूप होते हुए भी For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ / अमीरसधारा एक-दूसरे से जुड़े-पनपे हैं । कारण, सभी मूलतः परमाणु हैं। आत्मा इन तीनों से स्वतन्त्र है। उसका अपना स्वरूप है। आत्मा तो निरभ्र आकाश है। मन, वचन, काया के योग के बादल ही उसे ढके हैं। अगर ध्यान का, अध्यात्म का सूर्य उग गया, तो आकाश को निरभ्र होते देर न लगेगी। तो जो लोग सत्य के गवेषक हैं, अन्वेषक हैं, आत्मा में प्रवेश करना चाहते हैं, सत्य की खोज करना चाहते हैं, उन्हें शरीर, वचन और मन की गलियों से गुजरना होगा। ये गलियाँ कोई सामान्य नहीं है। अँधियारे से भरी हुई और काँटों से सजी हुई हैं। इसीलिए साधक की शोध-यात्रा, शोभा-यात्रा ऐसे-ऐसे रास्तों से गुजरती है, जो बीहड़ है। पर आत्मा की किरण इसी शरीर में से फूटेगी। पर जो लोग अपने शरीर को ही स्वस्व समझ बैठे हैं, उन्हें उस किरण की झलक नहीं मिल सकती। बहुधा होता यही है कि या तो व्यक्ति ध्यान करता नहीं है, और कर भी लेता है तो शरीर का ही ध्यान करना है—शारीरिक ध्यान । इसे ही कहते हैं हठयोग । वास्तविक साधना हठयोग से सिद्ध नहीं होती। हठयोग के द्वारा शरीर को काबू में किया जाता है। योगासन भी इसी की देन है। बाहुबली खड़े रहे ध्यान में, पर उनका ध्यान हठयोग से जुड़ा था। अहम् एवं कुण्ठा की दुर्वह ग्रन्थि उनके अन्तरतम में अटकी थी। वे अहंकार के मदमाते हाथी पर बैठे थे। तो ध्यान फल कैसे दे पायेगा । घोर तप करने बावजूद सत्य को उपलब्ध न कर पाये। जैसे ही अहम् टूटा कि सत्य से साक्षात्कार हो गया। वास्तव में ध्यान तो सत्य की खोज है, हठयोग नहीं। प्रसन्नचन्द्र भी तो हठयोग की मुद्रा में खड़े थे, साधु का वेश, योगासन की मुद्रा, पर मन में जो भावों के गिरते-चढ़ते आयाम थे, उसी के कारण नरक-स्वर्ग गति के झूले में झूलते रहे। शरीर तो For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का | ४३ सधा, पर शरीर सधने से यह कोई जरूरी थोड़े ही है कि विचारों की आँधी शान्त हो गयी। शरीर से हटे, तो विचारों में जाकर उलझ गये। जैसे ही उपशम-गिरि पर चढ़े, कि सिद्ध-बुद्ध बन गये। हठयोग जरूरी तो है, पर वह साधना का अन्तिम रूप नहीं है। चूंकि साधना का पहला सोपान शरीर है व्यक्ति इससे बहुत अधिक जुड़ा है, अतः शरीर की साधना भी बहत जरूरी है। पर उसे साधने के लिए लोग ऐसे-ऐसे तरीके अपना बैठते हैं, जिससे शरीर तो शायद सध जाए, पर मन न सधे। शरीर को मैथुन से दूर कर लिया पर मन में विषय-वासना की आँधी उठ सकती है। इसीलिए मैंने कहा कि मन ही प्रधान है। यदि मन में वासना ही नहीं है, तो शरीर द्वारा वासना की अभिव्यक्ति कैसे होगी। शरीर तो स्वयमेव सध गया । घी बनाने के लिए मक्खन पकाते हैं, बर्तन में, आग में। हमारा उद्देश्य मक्खन को पकाना है, न कि बर्तन को तपाना। पर क्या करें, जब तक बर्तन नहीं तपेगा, तब तक मक्खन पकेगा भी कैसे ? वैसे ही हमारा उद्देश्य आत्मा को पाना है, विचारों को शान्त करना है। शरीर को शान्त करना हमारा उद्देश्य नहीं है। पर क्या करें, विचारों को शान्त करने के लिए शरीर को भी विचारों के अनुकूल बनाना पड़ता है। जो लोग केवल शरीर को सुखाते हैं, शरीर का दमन करते हैं, वे तपस्वी और ध्यानी योगी, कैसे हो गए। जिन्होंने केवल शरीर के साथ अपनी साधना को जोड़ा, उनके कारण ही गफ को कहना पड़ा कि यह देह दंडन है । बुद्ध को भी तप का विरोध करना पड़ा। महावीर के अनुसार तो यह अज्ञान तप है। इसीलिए कमठ जैसे तपस्वी का पार्श्व ने विरोध किया, क्योंकि उसने तप को, साधना को केवल शरीर से जोड़ा। पंगाग्नि जलाकर उसके बीच में बैठनायह जान-बूझकर कष्ट झेलना है। कष्ट सिर पर आ गिरे, तो उसे झेलना परीषह है। आपत्ति आ जाये, तो उसका स्वागत करना तप है। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ / अमीरसधारा जान बूझकर संकटों को पैदा करना तो समझदारी नहीं है। 'इच्छानिरोधस्तपः' इच्छाओं पर ब्रेक लगाना तप है, अपने मन को काबू में करना संयम है, शरीर को शेषना, दबाना, न तो तप है, न संयम है, यह तो मात्र हठयोग है। बनारस-इलाहाबाद की तरफ साधुलोगों को मैंने देखा कि इन्द्रियों को वश में करने के विचित्र तरीके अपना रखे हैं। एक साधु ने कहामैंने जननेन्द्रिय में लोहे के कड़े की बाली पहना रखी है। जैसे स्त्रियाँ कान में कुंडल पहनती हैं, वैसे ही उसने भी पहना दिया था जननेन्द्रिय को कुंडल। अब आप सोचिये कि ब्रह्मचर्य को पालने का यह कैसा तरीका है ! यह तो जबरदस्ती है। यह संयम नहीं, दमन है। इसीलिए मैं तो साधना का सम्बन्ध भीतर से जोड़ता हूँ, बाहर से नहीं। बहुत से साधु लोग ऐसे भी होते हैं, जो कभी सोते ही नहीं, नींद ही नहीं लेते, सदा जगे रहते हैं। बहुत से साधक-साधु लोग कभी बैठते ही नहीं, लेटते भी नहीं, सदा खड़े ही रहते हैं । खाना भी खड़े-खड़े खाएंगे, शौच भी खड़े-खड़े करेंगे। यानी सब कुछ खड़े-खड़े। मेरी समझ से यह हठयोग है, बलात् आरोपण है। यह शरीर को ही आत्मा मान लेना है। बहुत से साधु लोग नग्न रहते हैं। यद्यपि आज के युग में नग्नता असभ्यता मानी जाती है, पर उन साधुओं का मानना है कि बिना नग्नता के मुक्ति-योग सध ही नहीं सकता। शायद यह कुछ हठयोग का ही प्रभाव है। अवधूत-परम्परा भी ऐसी ही है। यद्यपि शरीर को साधने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। उनके लिए जल, शराब और पेशाब में कोई भेद नहीं है। नमक-चीनी में, मिट्टी-सोने में, रोटी-टट्टी में कोई फर्क नहीं है। पर इसमें हठयोग का प्रभाव ही अधिक दिखाई देता है। वैसे इनका तन्त्रों से ज्यादा सम्बन्ध रहता है। तो हठ योग है ऐसा जिसमें शरीर को मुख्यता दी जाती है। शरीर को साधा जाता है, शरीर को अपने काबू में किया जाता है, For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / ४५ विविध आसनों द्वारा, विविध मुद्राओं द्वारा। ध्यान को साधने के लिए यह जरूरी है कि शरीर भी सुगठित हो, बलवान् हो, सशक्त हो, स्वस्थ हो। कारण, स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। मन की निर्मलता के लिए शरीर की निर्मलता, खून की निर्मलता आदि भी सहायक हैं। जिसके शरीर में बल है, उसके मन में भी बल होगा। बलवान् तन में बलवान् मन निवास करता है। इसलिए गहन ध्यान-साधना के लिए यह हमारा शरीर यदि संयमित, सुगठित हो, तो साधना में आलस्य या प्रमाद के जहरीले चूंट नहीं पीने पड़ते। शरीर के भीतर एक और सूक्ष्म शरीर है जिसका नाम है वचन । विचार, कोन्सियस माइंड। विचारों को साधने के लिए मन्त्र-योग काम देता है। विचार वह स्थिति है, जब साधक दीखने में तो लगता है साध्य-स्थित, किन्तु भीतर में विचारों की आँधी उड़ती रहती है। हाथ में तो माला रहती है किन्तु मनवा कहीं और रहता है। कबीर का दोहा है माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर । कर का मन का डारि दे, मन का मन का फेर ॥ हाथ में तो माला के मणिये हैं, पर मन में मणिया कहाँ है। सामायिक तो ले ली, पर विचारों में, मन में समता कहाँ आयी। प्रतिक्रमण के सूत्र तो मुँह से बोल दिये, पर क्या पापों से हटे, अन्तरात्मा से जुड़े । मन्दिर तो गये, पर क्या मन में भगवान बसे ? ___ मकान में चढ़ना शुरू किया। चालीसवीं मंजिल जाना है । लिफ्ट खराब है। पैदल ही सीढ़ियों को चढ़ना शुरू किया। रात दस बजे चढ़ना शुरू किया और आधी रात को डेढ बजे पैंतीसवीं मंजिल पर पहुंचे। साँस भर गया। एक ने दूसरे मित्र से पूछा, भैया ! अपने . इतने उँचे तो चढ़ आये हैं। पर क्या कमरे की चाबी लाये हो ? दूसरा For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ / अमीरसधारा मित्र सकपका गया । बोला, अरे ! चाबी तो नीचे ही रह गयी । चढ़े तो सही, पर चढ़ना, न चढ़ना दोनों बराबर हो गया । कोल्हू के बैल की यात्रा हो गई । चाबी साथ में नहीं, और चढ़ना शुरू कर दिया । चढ़ना तो है ही पर चाबी लेकर । बिना चाबी के चढ़ना बेकार और चढ़े बिना कमरे में पहुँच नहीं सकते i 1 'स्कूटर के डिब्बे में इसीलिए मैंने कहा साधना के लिए शरीर को साधना मुख्य है, पर उससे भी मुख्य विचारों को साधना है, अन्तरमन को साधना है । क्योंकि साधना का सम्बन्ध बाहर से उतना नहीं है, जितना भीतर से है । प्रवृत्ति में भी निवृत्ति हो सकती है और निवृत्ति में भी प्रवृत्ति हो सकती है। बाहर से कोई व्यक्ति हिंसा न करते हुए भी हिंसक हो सकता है और हिंसा करते हुए भी अहिंसक हो सकता है। हिंसा और अहिंसा कर्ता के अन्तर भावों पर, मन पर, विचारों पर अवलम्बित है, क्रिया पर नहीं । यदि बाहर से होने वाली हिंसा को ही हिंसा माना जाय, तब तो कोई अहिंसक हो नहीं सकता । क्योंकि संसार में सभी जगह पर जीव हैं, और उनका घात होता रहता है । इसलिए जो व्यक्ति अपने मन से, अपने विचारों से अहिंसक है, वही अहिंसक है । अतः मेरे विचारों से आजकल जो तो मूल चीज हमारा अन्तरमन है, अन्तर विचार है । इसीलिए कहा जाता है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा ।' साधना में शरीर से भी मुख्य हमारे वचन हैं, मन है । नये-नये नामों से ध्यान की शैलियाँ प्रचलित हुई हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है कि विचार शान्त हों, मन केन्द्रित हो । समीक्षण - ध्यान, प्रेक्षा-ध्यान, विपश्यना ध्यान, सहजयोग - ध्यान — ये सभी विचारों की अग्नि को ठंडा करना सिखाते हैं । - For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / ४७ चूंकि आज संसार भौतिकता से जुड़ा है, अतः विचार भी उसी से जुड़े रहते हैं । ध्यान करने तो बैठ गये, पर मन टिकता नहीं । वह कभी तो बाजार में जाता है, कभी घर का चक्कर लगाता है, तो कभी विचारों में किसी अप्सरा का, मेनका का रूप उभरता है । इसे कहते हैं - विचारों में बहना । जिसके मन में जैसे भाव होते हैं, जैसे विचार होते हैं, वह व्यक्ति वैसा ही बन जाता है । शारीरिक क्रियाएँ वास्तव में आन्तरिक विचारों की अभिव्यक्तियाँ हैं । क्रोधी मन के विचार भी क्रोधी होंगे । कामुक मन के विचार भी कामुक होंगे। जो विचारों में प्रकाशित होता है, जो विचारों में है, वही शारीरिक क्रियाओं द्वारा प्रकट होता है । राम और सीता के बारे में एक प्रसंग है । अपहृत सीता अशोक - वाटिका में थी । सीता की सेवा के लिए, रक्षा के लिए राक्षस जाति की अनेक स्त्रियां वहाँ पर रहती थीं । एक स्त्री थी सुरमा । सीता यद्यपि शरीर से अशोकवाटिका में थी, रावण के अधीन थी, किन्तु सीता के अन्तर - विचारों में एक मात्र राम थे । एक दिन सीता ने सुरमा से कहा, सुरमा ! मेरे भीतर राम- ही - राम है, राम में मैं इतनी तल्लीन हो गई हूँ कि मैं अपने को राममय पा रही हूँ । मुझे ऐसा लग रहा है, मेरे भीतर पुंसत्व / पुरुष धर्म पनपने लगा है। सुरमा बोली, राम के मन में तुम्हारा ध्यान है । तुम पुरुष धर्मं पाने लगी हो, तो राम में भी स्त्रैण धर्म अवश्य पनपने लगा होगा । यह है वैचारिक प्रभाव । रामकृष्ण परमहंस के बारे में भी ऐसी ही घटना बताई जाती है । जब रामकृष्ण राधा - सम्प्रदाय में दीक्षित हुए, तो वे कृष्ण के ध्यान में इतने बह गये, कि उन्होंने स्वयं को राधामय पाया । छह महीने के बाद उन्हें भी स्त्रैण धर्म प्रकट होने की अनुभूति हुई । यद्यपि बाद में उन्होंने उस सम्प्रदाय को छोड़ दिया था । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८/ अमोरसधारा ___तो आप यह सोचिये कि जब व्यक्ति देह में रहकर, देहातीत होकर वैचारिक ध्यान में समर्पित हो जाता है, तो उसके शरीर द्वारा भी वैसी क्रियाएँ होने लगती है, जो उसके विचारों में थी। जब व्यक्ति विचारों में खोया रहता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि शरीर में या शरीर के बाहर कुछ हो रहा है या नहीं। बहुत बार ऐसा होता है कि कोई हमें आवाज देता है, पाँच बार आवाज देता है, मगर वह आवाज हमारे कानों को छू कर भी लौट जाती है। क्योंकि हम, हमारी चेतना, हमारे चैतसिक सारे व्यापार–सभी किसी विचार में लगे हुए थे। जब अचानक चेतना लौटती है, उस आवाज को पकड़ती है, तो हम हक्के-बक्के रह जाते हैं। साध्वी विचक्षणश्री को मैंने देखा कि छाती में कैंसर, भयंकर कसर। पर उसने कभी ध्यान भी नहीं दिया उस ओर। खून बहता, मवाद गिरता, पानी रिसता, पर देहातीत अवस्था पा ली थी उसने। बताया जाता है कि काशी-नरेश का आपरेशन हुआ। चिकित्सकों ने बेहोश करना चाहा, मगर उन्होंने बेहोश होने से इन्कार कर दिया। वे गीता पढ़ने लगे। गीता में इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें पता भी न चला, कि कब आपरेशन पूरा हुआ। जब आदमी विचारों में, अन्तर विचारों में ही रमने लग जाता है, तो वह महर्षि रमण बन जाता है। उसे पता नहीं चलता कि मैं शरीर हूँ। उसका अनुभव उसे भीतर की यात्रा कराता है। वह पाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर से परे हूँ। ___लोग सिनेमा हॉल जाते हैं। आखिर सामने पर्दा है, सत्य नहीं हैं। पर फिल्म देखते-देखते व्यक्ति उद्विग्न हो जाता है, कामुक हो जाता है, आँसू ढाल बैठता है। जब कि पता है; कि जो देख रहा हूँ, वह सत्य नहीं, मात्र पर्दा है, अभिनय है। पर वह अभिनय भी व्यक्ति के विचारों को प्रभावित कर देता है और अपने साथ उसे भी बहा ले जाता है। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / 8९ __ आजकल क्रिकेट बहुत चला है। हारता है कोई, ओर जीतता है कोई। पर हमारे विचारों में उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जीता कपिलदेव, आपने खुशी में पटाखे छोड़े। कुछ दिन पहले, जब भारत हार गया, तो लोगों ने गुस्से में अपने टो० वी० सेट तोड़ डाले। इसी को कहते हैं बहिर्जगत् का अपने अन्तर विचारों पर प्रभाव । विज्ञापन छपते हैं। एक ही विज्ञापन साल में पचासों बार, पचासों अखबारों में छपते हैं। क्यों ? भारत सरकार एकता. रखने के लिए प्रायः हमेशा विज्ञापन, विज्ञप्तियां छापती हैं। क्यों ? इसीलिए ताकि जनता के दिल-दिमाग में, उसके चिन्तन में, उसके विचारों में यह बात घर कर बैठे । बच्चा पैदा हुआ। उसका पिता कौन है, यह वह नहीं जानता। किन्तु वह सबसे यही सुनता है अमुक आदमी तेरा पापा, पिता है। तो वह भी उस व्यक्ति को पापा कहने लग जाता है। मूल बात यही है कि विचारों में जो बात जमी हुई है, वही क्रिया में आती है। विचार ही व्यवहार की कुंजी है। इसीलिए मैंने कहा कि शरीर से भी परे कोई और चीज है, जिसे साधना जरुरी है। _इसीलिए मन्त्रों का विकास हुआ। मन्त्रों का अपना विज्ञान है। मन्त्र केवल शब्द नहीं है। मन्त्र-रचयिताओं ने प्राण फूंके हैं अपनी साधना के, आध्यात्मिक शक्तियों के। यदि मन्त्र सिद्ध हो गया, तो मन्त्र में निहित शक्ति से साक्षात्कार जब चाहो, तभी सम्भव है । ॐ से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है। मन्त्र विज्ञान का यही बीज है। इसी से सारे मन्त्र पनपे हैं। सभी धर्मों ने भले ही बनाये हो अपनेअपने मन्त्र, पर ॐ से सभी ने जुड़ना चाहा। जो व्यक्ति विचारों में ज्यादा बहता है, उसके लिए तो ॐ बाँध है। प्रत्येक व्यक्ति को ॐ का प्लुत उद्घोष प्रातःकाल में अवश्य करना चाहिये। जो मन्त्रों को विस्तार से बोलना चाहे, वे फिर नवकार-मन्त्र, गायत्री मन्त्र शिव-मन्त्र आदि मन्त्रों को बोलते हैं, उच्चारण करते हैं। वैसे ती बहुत सारे मंत्र हैं। मन्त्रों की संख्या सात-आठ करोड़ तक है। । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० / अमीरसधारा मन्त्र की तरह ही तन्त्र है । तन्त्र मन्त्रों का ही विस्तार है । मन्त्र हमारे विचारों को अध्यात्म से जोड़ता है । वैचारिक ऊर्जा मन्त्र से आबद्ध होकर विकेन्द्रित नहीं होती । जैसे-जैसे व्यक्ति मन्त्र की गहराई में उतरेगा, उसे मोती मिलते जाएगे वह बौद्धिक विचारों से, मन के चिन्तन से, सैद्धान्तिक बातों से ऊँचा उठता जाएगा । उसे एक गहन अनुभूति होगी । उसी अनुभूति से आत्मा की किरण फूटेगी । मन्त्र की ध्वन्यात्मकता शरीर के रग-रग में फैल जाएगी । वह अन्तरात्मा के भीतरी लोक से जान-पहचान करायेगी । अन्ततः साधक को आत्म-प्रतीति, आत्म-अनुभूति हो जायेगी, आत्मतोष का सागर उमड़ पड़ेगा । इसीलिए मन्त्र 'मैग्नेटिक करेन्ट' की तरह, चुम्बकीय विद्युत्धारा की तरह हमें भीतर ले जाता है । हमारे शरीर की भीतरी शक्तियों से दोस्ती करवाता है । जब मन्त्र को शक्ति के पटल खुल जाते हैं, तो हम बेतार -के-तार ज्यों सीधे सम्पर्क कर सकते हैं, अपने से, अपने आराध्य से । तो अध्यात्म जगत् में प्रवेश करने के लिए ध्यान एकाग्र करने के लिए जरूरी है कि जोड़ बाकी में बदले। जितनी बार हमने जोड़ की, उतनी ही बार बाकी करनी पड़ेगी । गणित के हिसाब से चलना होगा । हमें ऊपर उठना होगा मन से, बचन से, शरीर से । पहले शरीर, फिर वचन, और फिर मन को साधना - यह थोड़ा सरल है, पर समय ज्यादा मांगता है। पहले मन, फिर वचन और फिर शरीर को साधना यह थोड़ा कठिन है, पर तत्काल लाभदायक है । चाहे कुछ भी करें, कैसे भी करें, इन तीनों बाधाओं को पार करना होगा । चूंकि मन मुख्य है । जिसने मन का काला सागर पार कर लिया, वह हर सागर से गुजर सकता है । भला, जिस मन में देह में रहते हुए भी सारे ब्रह्माण्ड की यात्रा करने की शक्ति है, उसे यदि For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोग हो योग का / ५१ हम आत्म-जगत् में मोड़ दें, तो क्या यह हमें भीतर के ब्रह्माण्ड की यात्रा नहीं करा पायेगा ? बाहर से हटें, भीतर आयें। मन, वचन और शरीर से वहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरामा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करें, तो हमें आत्म-प्रतीति भी होगी और पारमात्म्य -अनुभूति भी होगी। आरुहवि अन्तरप्पा, बहिरप्पो छडिऊण तिविहेण । झाइञ्जइ परमप्पा, उवट्ट जिणवरिं देहिं ॥ यदि मन को चट्टानें हट गयों, वचन को चट्टानें हट गयीं, शरीर की चट्टानें हट गयीं, तीनों चट्टानें हट गयीं, तो आत्मा का झरना कलकल करता फूट पड़ेगा। अन्तःकरण में ब्रह्मनाद होगा, परमात्मा की बाँसुरी के सूरीले स्वर हमें मुग्ध कर देंगे। हम उस सत्य का रसास्वादन करेंगे, जिसके प्रति संसार उदासीन रहता है। हमें ऐसा चिन्तन करना चाहिये कि मैं न पर का हूँ, न मन का हूँ, न वचन का हूँ, न शरीर का हूँ और न ही ये मेरे हैं। मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध चैतन्य मात्र हूँ। 'सोहम्' वह मैं ही हूँ।' 'सोहम से ही 'हंसोहम्' की स्थिति आती है। मेरी कस्तूरी मेरी नाभि में ही है 'कस्तुरी कंडल बसै'। आखिर में आप पायेंगे कि सारे अन्तरद्वन्द्व, सारे विकल्प छूट गये हैं। मन आत्मस्वरूप में ही रुक गया है। मन का आत्मा में रुकना, मन का एकाग्र होना ही ध्यान है। वह देह में भी विदेह रहेगा। साध्वी विचक्षण श्री की तरह देह में भी विदेह रहेगा, शरीर की व्याधि में भी समाधि की सुरभि महकेगी। श्रीमद् राजचन्द्र के अस्थि-कंकाल बने शरीर से भी आत्मा की आभा फूटेगी। शान्ति विजयजी की तरह जंगल में रहते हुए भी जीवन में सदाबहार रहेगा। आनन्दघन की तरह श्मशानों में रहते हुए भी अमरता की वीणा झंकृत होगी–'अब हम अमर भये ना मरेंगे'। और सच कहूँ, For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ / अमीरसधारा तो जो ऐसे लोग हैं, वे हो ध्यान की कुठार से भव-वृक्षों को काट सकते हैं। उन्हीं के आत्म-मन्दिर में सदा मुक्ति का दीप जलता रहता है। सचमुच, जो व्यक्ति संसार के वास्तविक स्वरूप से, मन, वचन, काया के स्वरूप से सुपरिचित है, वीतराग भाव से युक्त है और निजानन्द रसलीन होना चाहता है, वही पता लगा सकता है, कुंडल में, नाभि में छिपी कस्तूरी का। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन आत्म-दर्शन जीवन-दर्शन का पर्याय है। जिसे हम जीवन कहते हैं, आत्मा उसी का शब्दान्तर है। जीवन अपना अस्तित्व आत्मा से ही पाता है। अतः जोवन की जननी आत्मा ही है। जैसे बिना मुर्गी के अण्डा नहीं होता, बिना माँ के बच्चा नहीं होता, वैसे ही बिना आत्मा के जोवन नहीं होता। पुल्लिंग का जन्म हो स्त्रीलिंग से होता है । यद्यपि पुल्लिंग का अपना महत्व है, फिर भी नारी नर से भारी। इसलिए एक बात मन में जमा लीजिये कि आत्मवाद की नींव पर ही खड़ा होता है जीवन का महल, विश्व का महल। आत्मवाद ही जीवन का, विश्व का, अस्तित्व का रहस्य है। आत्मा शाश्वत है, जीवन भी शाश्वत है। जो जन्मता-मरता है, उसका नाम शरीर है। इस बिचौलिये फर्क का नाम ही भेद-विज्ञान है। जो यह साबित करता है देह ही आत्मा नहीं है, और आत्मा ही देह नहीं है। दोनों अलग-अलग हैं, दूध-पानी की तरह जुदे-जुदे हैं। जिसके पास जीवन में हंस की नजरे हैं, वही इस भेद-विज्ञान को भलीभाँति जानतासमझता है। ज्ञानी, मनीषी जैसी संज्ञाएं ऐसे जोवन-साधकों के लिए ही जन्मी हैं। ऐसे लोगों के ही चिन्तन -गर्भ से दर्शन पनपते हैं, फिलॉसफी जनमती है। दुनिया में दर्शन हजारों हैं। "मुंडे मुंडे मतिभिन्ना" जिसकी जैसी मति उसका वैसा ही दर्शन है। पर मति को भी अपना घोंसला बनाने के लिए आत्मा के पेड़ पर टिकना होता है। मति से चिन्तन पैदा होता है, चिन्तन से दर्शन पैदा होता है, पर आत्मा सबकी सम्बन्धी है। सबका इससे रिश्ता-नाता है। इसलिए जो आत्मा की कटनी करता है, वह अपने रिश्तेदारों के साथ दगाबाजी For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ / अमीरसधारा करता है । ऐसा व्यक्ति आत्म-प्रवंचक है, स्वयं को स्वयं के द्वारा धोखा देता है । 'ज्याँ लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहीं, त्याँ लगी साधना सर्व झूठी ।' यदि हमने आत्मा से दोस्ती नहीं साधी, तो हमारी सारी साधना 'छार पर लीपणो तेह जाणो' राख पर लीपा-पोती करने जैसी है । मेरे तो सारे चिन्तन के कबूतर आत्मवाद के आकाश में ही उड़ते हैं । दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन को अभिवृद्धि देने के लिए उसकी जड़ तो आत्मा ही है । जंसे पेड़ में जड़ है, शरोर में मस्तक है, वैसे ही आत्मा है प्रमुख । दर्शन की आधारशिला आत्मा ही है । दार्शनिक चिन्तनधारा को बढ़ावा देने के लिए आत्मा ही मूल स्रोत है । आत्मा वह प्रत्यय है, जिसके शरीर में रहने पर वह जीव कहलाता है और जिसके शरीर से निकल जाने के बाद शरीर मृत घोषित हो जाता है, उसे जला - दफनाकर समाप्त कर दिया जाता है। आज जिससे हम प्रेम करते हैं, जिसके लिए हम सदा मरने-मिटने के लिए तैयार रहते हैं, वह यदि मर गया, उसके शरीर से यदि आत्मा छूट गयी, तो. हम ही उसे जला - दफना डालते हैं । हमें प्रेम उसके शरीर से नहीं था, उसके अस्तित्व से था । अस्तित्व का नाम ही आत्मा है । इस प्रकार आत्मा रथी है, और शरीर रथ है । आत्मा ड्राइवर है, शरीर कार है । जैसे बिना ड्राइवर की कार नहीं चल सकती, वैसे ही बिना आत्मा का शरीर भी निकम्मा है । आदर और प्यार जीवन का है, मुर्दे का नहीं । इसलिए जो लोग जिन्दे हैं, उन्हें आत्मा की प्रतीति करनी चाहिये, उसके रस में डुबकी खानी चाहिये । यद्यपि आत्मा अमूर्त है । यह अमूर्त है, इसीलिए नित्य है । आकाश की तरह इसे समझने का प्रयास कीजिये । आकाश का रूप नहीं है । जहाँ-जहाँ अवकाश है, खाली जगह है, वहां-वहां आकाश For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५५ है । क्षितिज तक ही यह सीमित नहीं है, क्षितिज के भी पार है यह आकाश | चूंकि दृष्टि की अपनी सीमा है, इसलिए यह देख नहीं पाती क्षितिज के पार वाले आकाश को । यदि किसी की दृष्टि व्यापक बन गई, सारे ब्रह्माण्ड का अरस-परस करने वाली तो उसके लिए क्षितिज नाम की कोई चीज ही नहीं होती । कारण, जिस सीमा को हम क्षितिज मानते हैं, उसकी दृष्टि उसके भी पार, दूर सुदूर तक जाती है । उसकी पहुँच काफी लम्बी-चौड़ी होती है । धर्मी समझिये। यह शरीरव्यापी होते हुए भी दूर तक होती है । इससे संसार का कोई छोर हमारी कमजोरी है कि हम भीतर से अन्धे हैं । हम वैसी दृष्टि नपा सके, जिससे आत्मा के आकाश में उड़कर उसके विराट रूप को देख पाते। पर यदि प्रयास किया जाये तो हम वह सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं, जो हमारे जीवन का तीसरा नेत्र है, शिव का तीसरा नेत्र है । आत्मा भी आकाश इसको पहुँच दूरअछूता नहीं है । यह आत्मा सविशेष है । बोध, विवेक, समता आदि इसकी विशेष - ताएँ हैं । जिन्होंने आत्मा को अस्वीकार करके अनात्मवाद नैरात्म्यवाद का समर्थन किया, वे अपने दर्शन की नींव को मजबूती से नहीं बँध पाये। जो अपने दर्शन को नैतिकता के शिखर पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, उनके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि वे आत्मा के अस्तित्व को माने । 'जो स्वरूप समज्या बिना, पाम्यो दुःख अनन्त' । आत्मा को नहीं माना, उसका स्वरूप नहीं समझा, उसी का ही तो यह परिणाम है कि मैं दुःखों का अनुभव कर रहा है । आश्चर्य तो यही है कि आत्मा स्वयं ही आत्मा के अस्तित्व के बारे में शंका करने लग गयी है— * आप । आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप || इसलिए यह बात पक्की मानिये कि आत्मा के अस्तित्व पर शका For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ / अमोरसधारा करके आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। नैतिकता वास्तव में शुभ और अशुभ का विवेक है और वह विवेक किसी सचेतन में ही सम्भव है। अचेतन या निर्जीव में विवेक की कल्पना करना तो पशु-बुद्धि है, बेहोशी है। मैंने पढ़ा है, एक व्यक्ति अपने घर-दरवाजे पर ताला लगाकर शराब पीने गया। पत्नी घर में ही थी। पति को शराब पीने गये बहुत देर हो गयी। पत्नी की नींद उचट गयी। वह बरामदे में आकर खड़ी हो गयी और पति की इन्तजारी करने लगी। कुछ देर बाद ही उसका पति उसे दूर से आता दिखाई दिया, झूले की तरह झलता हुआ, डगमगाता हुआ। शराब का नशा जोरों से चढ़ा था। सम्भाल न सका वह स्वयं को। पहुँवा वह अपने घर। घर पर ताला लगा था और चाभी उसके पास थी। बहुत देर हो गयी, मगर वह ताला न खोल पाया। पत्नी ने ऊपर से आवाज दी-क्या हुआ, चाबी खो गई ? डुप्लीकेट चाबी फ ? यह सुनकर पति बोला, चाबी तो मेरे हाथ में है, पर ताला खो गया । हो सके तो इसका डुप्लीकेट ताला फेंक दो। भला, शराब की बेहोशी में आत्म-विवेक कहाँ से जागेगा ? यही कारण है कि अधिकांश दार्शनिकों को आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करना ही पड़ । फिर चाहे एकात्मवाद के रूप में स्वीकार किया हो, चाहे अनेकात्मवाद के रूप में, ईश्वरांस के रूप में या स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में। अतः यह कहना युक्ति-संगत है कि दर्शन की सारी प्रणालियां, जीवन की सारी अपेक्षाएँ आत्म-सापेक्ष है। जो लोग आत्मा को अस्वीकार करके दर्शन को, धर्मी को अस्वीकार करके धम को, व्यक्ति को अस्वीकार करके व्यक्तित्व को, चैतन्य को अस्वीकार करके जीवन को विवेचित करना चाहते हैं, वे बिना कारण के काय सिद्ध करना चाहते हैं यह तो बिना दार्शनिक के दर्शन की प्रतिष्ठापना करना है। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५७ दर्शन के क्षेत्र में भी ऐसी धारणाएँ प्रचलित हैं, जो पुनर्जन्म, कर्मवाद, और पाप-पुण्यवाद को मानती है पर आत्मा के अस्तित्व को पूर्णतया नामंजूर करती है उनके अनुसार तो यदि कोई व्यक्ति आत्मा नामक किसी शाश्वत तत्व को मानता है तो वह मिथ्यात्वी है। उसकी परिगणना उन्होंने मिथ्यात्वियों में की है। वस्तुतः यह अस्वीकृति की अतिवादिता है। खुदकशी की है उन्होंने जीवन के साथ। उनके अनुसार पुनर्जन्म आदि का मूल कारण हमारी वासना है। पर वासना के अस्तित्व को मानने मात्र से पुनर्जन्म आदि कार्य नहीं सधते । चूंकि वासना ऊह्यमान है, अतः संवाहक चाहिये। वासना का स्थान तो भावात्मक शुभाशुभ कर्म जैसा है। जैसे क्रिया का संवाहक आत्मा है, वैसे ही वासना का संवाहक होना चाहिये । भला, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि क्रिया है कर्ता नहीं, पथ है पथिक नहीं, संशय है संशयी नहीं, दुःख है दुःखित नहीं, परिनिर्वाण है, परिनिवृत/परि. निर्वात नहीं। अतः जैसे रथी के बिना रथ का चलना सम्भव नहीं है वैसे ही आत्मा के बिना पुनर्जन्मादि क्रियाएँ सम्भव नहीं है। ऐसा लगता है वास्तव में उन दार्शनिकों को दुःख की नितान्त अशाश्वतता की स्थापना करनी थी, इसलिए उन्हें आत्मा का मूलोच्छेद करना जरूरी लगा, क्योंकि आत्मा को शाश्वत मानने से कहीं दुःख भी शाश्वत न हो जाए। अतः क्यों न उस आत्मा को ही जड़ से उखाड़ दिया जाए जो दुःख/सुख का मूल है। इसी उद्दश्य से आत्मा को अस्वीकार किया गया। वस्तुतः दुःख को मिटाना आवश्यक है, किन्तु उसे मिटाना आवश्यक नहीं है, जो दुःख का अनुभव करता है । क्योंकि सुख का अनुभव करने वाला भी वही है, जो दुःख का अनुभव करता है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू है। मात्र दुःखवाद को लेकर आत्मा को अस्वीकृत करना उचित नहीं हैं। आत्मसंयुक्त जीव ही तो यह विचार कर सकता है कि उसे दुःख है या सुख। जिसे ऐसा विचार नहीं है, जो ऐसा अनुभव नहीं करता, वह सचेतन प्राणी नहीं For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५८ / अमीरसधारा है, मृत है । देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही तो यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष ! जब कोई साधक साधना में निमग्न हो जाता है तो उसे यह स्पष्ट आभास हो जाता है कि मैं काया नहीं हूँ | तभी कायाध्यारण छूटेगा, कायाशक्ति टूटेगी ओर साधक शारीरिक भौतिक प्रवाह से हटकर आन्तरिक साधना के लिए प्रस्तुत होगा । चूँकि आत्मा अमूर्त है । उसे देख नहीं पाते, क्योंकि देखने वाली स्वयं आत्मा है । कुछ इशारे ऐसे अवश्य हैं, जो मूर्त में अमूर्त की झलक दे देते है । वीणा मूर्त है, पर संगीत अमूर्त है । शब्द मूर्त है, पर उसका अर्थ अमूर्त है । अमूर्त को अमूर्त कहकर नकारा नहीं जा सकता । उसे मूर्त करने के भी तरीके हैं । एक बार एक ऊँटगाड़ी और एक कार की आपस में टक्कर लग गयी । संयोग कुछ ऐसा था कि ऊँटगाड़ी का कुछ नहीं बिगड़ा, पर कार उल्टी हो गयी । उसे खासा नुकसान हुआ । उसने ऊँट वाले पर कोर्ट में दावा कर दिया । न्यायाधीश ने ऊँट वाले से पूछा, 'क्या तुम्हें सामने से कार आती दिखाई दी ? ऊँट का मालिक बोला, 'हां, साहब !' क्या तुमने कार को साइड में करने के लिए ड्राइवर को हाथ का इशारा किया ? ऊँट का मालिक बोला, नहीं साहब !" न्यायाधीश ने पूछा, क्यों ?, ऊँटवाला बोला, 'साहब, इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी । भला, जिसे मेरी इतनी बड़ी ऊँटगाड़ी दिखाई न दी उसे मेरा हाथ कैसे दिखाई देता ?" तो जो लोग मूर्त को भी भलीभाँति नहीं देख पाते, वे अमूर्त को कैसे देख पाएँगे ? नो इन्दियग्गेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तभावाविय होई निचो ।' आत्मा तो अमूर्त है, अतः इन्द्रिय गोचर नहीं है ! इसे इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता । इन्द्रियों के द्वारा तो परपदार्थ को जाना जाता है । इन्द्रियाँ अपने इन्द्रिय- - स्वरूप को नहीं जान सकती। हमारी आँख दूसरे की आंख को तो देख सकती है, पर क्या For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५९ वह स्वयं को भी देख सकती है ? जीभ फल का, मीठे का, नमक का स्वाद महसूस कर सकती है, पर अपना स्वाद ? चाहे आँख हो या जीभ, इन्द्रियां तो मात्र माध्यम है, पर पदार्थों का आत्मा को बोध कराने के लिए । यह आत्मा ही है, जो इन्द्रियों के साधन से ज्ञान प्राप्त करती है । इन्द्रियां तो ज्ञान प्राप्ति की सहायिकाएँ हैं । वे अमूर्त को ग्रहण नहीं कर सकती, मूर्त को ही ग्रहण कर सकती है । आपने बिजली की चमक को उसके प्रकाश को देखा है, परबिजली को कभी देखा है ? किसी ने भी बिजली को नहीं देखा । जिस वैज्ञानिक ने बिजली को खोज की, जो वैज्ञानिक बिजली की परिभाषा कर रहे हैं, उन्होंने भी बिजली को कहां देखा है ? बिजली अमूर्त है, उसका प्रकाश मूर्त है । आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है । आत्मा बिजली की तरह है । कहा गया है पुष्पे गन्धं तिले तैलं, कास्टेग्नि पयसि घृतम् । इक्षौ गुडं तथा देहे, पश्यात्मानं विवेकतः ॥ जैसे फूल में सुगन्ध, तिलों में तेल, काष्ठ में -अरणि की लकड़ी में आग, दूध में घी और गन्ने में गुड़ दिखाई नहीं देता, तथैव शरीर में छिपे हुए आत्मा के अस्तित्व को भी विवेक से जान लो । आत्मा तो मात्र स्वयं की स्वीकृति है ! स्वयं की सत्ता, स्वयं का अस्तित्व जानने की मंजूरी है । मैं बोलता हूँ, अतः मैं हूँ । मैं विचार करता हूँ, अतः मैं हूँ यह 'मैं' ही आत्म-अभिव्यक्ति है । चूंकि आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है, अतः यह ज्ञेय या दृश्य नहीं बन पायेगी । इसकी तो अनुभूति होती है, अन्तर्यात्रा के क्षणों में । आत्मा कोई वस्तु या पदार्थ या मेटेरियल नहीं है, जिसे कोई छू सके, सके, देख सके । देखा - छूआ तो उसे जाता है, जिसका कोई रूप होता है, जैसे यह भवन । आत्मा तो कालातीत है, क्षेत्रातीत है । जान For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० / अमीरसधारा टाइम और स्पेस से अलिप्त है यह । वैज्ञानिकों ने आत्मा को जानने का, उसे पकड़ने का प्रयास किया, पर सफलता हाथ न लगी । वैज्ञानिकों ने कांच के कमरे में एक मृतप्रायः जोवित व्यक्ति को बन्द किया। कांच के कक्ष में हवा का आवागमन भी नहीं था । डॉक्टर- वैज्ञानिकों ने उस व्यक्ति को अपनी आंखों के सामने मरते देखा, पर वे उस शक्ति को न पकड़ पाये, जिसको वजह से व्यक्ति जिन्दा था। चूंकि आत्मा अमूर्त है, अरूपी है, अतः वे उसे हासिल न कर पाये । पर उस शक्ति को, सॉल को, विल पावर को नामंजूर नहीं किया, जिसके कारण मनुष्य जीवित था । व्यव आत्म-स्वीकृति के बाद अब प्रश्न यह उठता है कि आत्मा एक है या अनेक । कतिपय दार्शनिकों की मान्यता है कि हम आत्मा के अस्तित्व पर तो विश्वास करते हैं, किन्तु आत्म- भिन्नता पर विश्वास नहीं करते । उनका कहना है कि विश्व की सारी आत्माएँ एक हैं । वे न तो अलग-अलग हैं, ओर न ही उनमें कोई भिन्नता है । हारतः वे अलग-अलग और भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं, किन्तु तात्विक दृष्टि से उनमें न तो भिन्नता है, न पृथकता । जैसे सरोवर में से एक घड़ा जल बाहर निकालने पर उसके रूप-रंग में भेद दिखाई देता है, पर हकीकत में सरोवर का जल और घड़े का जल एक-सा है । यदि हम घट - जल को सरोवर में उड़ेल दें, तो उसका रूप अलग कहाँ रहेगा ? मगर जब हम इस बात पर गहराई से विचार करते हैं, तो हमें आत्मा की एकता बाधित होती हुई लगती है । पुण्यमूलक, पापमूलक भिन्न-भिन्न विचारों को देखते हुए एकात्मवाद की स्थापना उचित नहीं लगती । यदि सारी आत्माएँ एक हैं, तब तो सबका वैचारिक प्रवाह और कर्म-प्रवाह एक-सा होना चाहिये । जब कि संसार में प्रत्येक प्राणी के विचार भिन्न-भिन्न होते हैं । प्रत्येक दर्शन की मान्यताएँ भिन्न For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयो परतों का उद्घाटन | ६१ भिन्न होती हैं, 'मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना'। कर्म भी सभी जीवों के जुदे-जुदे होते हैं। जिस रूस में साम्यवाद का बोलबाला है, वहाँ पर भी तो अमीर-गरीब हैं । इन जुदे-जुदे तथ्यों के कारण ही सभी को सुख-दुःख को कमी-बेसी रहती है। सुख और दुःख की विषमता ही आत्मा के नानात्व की सिद्धि करती है। बादल के लिए किसान और कुम्हार दोनों अलग-अलग हैं। वह यदि दोनों को एक मान ले, तो दोनों में से एक को खतरा अवश्य है। इसीलिए मैंने कहा कि सभी आत्माए एक नहीं हैं, अलग-अलग हैं। ___ यदि आत्मा को एक माना जायेगा, तो उतार-चढ़ाव, विकासपतन, ज्वार-भाटा, आरोह-अवरोह, बन्धन-मुक्ति एक साथ ही होंगे। जबकि ऐसा नहीं होता। अनेक आत्माएँ मुक्त हो चुकी हैं और अनेक बन्धन में आबद्ध है। तब यह कैसे माना जा सकता है कि आत्मा एक है, अनेक नहीं ? यदि सभी आत्माओं को एक मान लिया जायेगा, तो फिर कौन आत्म-विकास के लिए प्रयास-पुरुषार्थ करेगा? और यदि करेगा भी तो निजी प्रयासों से उसकी मुक्ति भी नहीं होगी। अब, आप ही सोचिये कि कितनी-कितनो भिन्नताएँ हैं। जन्म-मृत्यु की भिन्नता, शरीरों, इन्द्रियों, चैतसिक प्रवृत्तियों की भिन्नता, स्वभाव की भिन्नता, सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों की भिन्नता ये सारी भिन्नताएँ एकात्मवाद के लिए चुनौती है। वस्तुतः आत्मा एक स्वतन्त्र तत्त्व है। विश्व में जुड़वा आत्माएँ नहीं है। जगत् के हर अणु-परमाणु की तरह आत्माएँ भी अपने आप में स्वतन्त्र हैं। कोई किसी के आश्रित नहीं है। जिन दर्शनों के अनुसार आत्मा ईश्वर का अंश है, अवयव नहीं, वे आत्म-स्वतन्त्रता को नहीं मानते। उनका कहना है कि जिस प्रकार आग से चिनगारी व्युच्चरित होती है, झड़ती है, वैसे ही ईश्वर से जीव व्युच्चरित होते ह। मेरी समझ से, आत्मा के व्युच्चरण के साथ चिंगारी का उदाहरण For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ / अमीरसधारा बराबर नहीं है। क्योंकि अग्नि की चिंगारी निरुद्ध श्य और स्वाभाविक है। अतः ब्रह्म से जीव के व्युच्चरण की बात घटित नहीं होती, क्योंकि ब्रह्म से जीव का व्युच्चरण सप्रयोजन एवं सोद्देश्य है। वास्तव में आत्मा स्वयं एक मौलिक तत्त्व है। आत्मा की उत्पत्ति अन्य किसी से नहीं हुई। यदि यह माना जाए कि आत्मा का जन्मस्थान ब्रह्म है, तो यह प्रश्न उपस्थित होना भी स्वाभाविक है कि ब्रह्म का उत्पत्ति-स्थान क्या है ? जैसे ब्रह्म का कोई उत्पत्ति-स्थान नहीं है, क्योंकि वह अनादि-अनन्त है, वैसे ही आत्मा का भी कोई उत्पत्ति स्थान नहीं होना माना जा सकता है। कारण, आत्मा भी अनादि है। अनुत्पन्न तत्त्व का आदि रूप नहीं होता। भौतिकवादियों के अनुसार आत्मा की उत्पत्ति भौतिक तत्त्वों के सम्मिश्रण से हुई है। जबकि भौतिक तत्त्व जड़ हैं। जड़ से आत्मा की उत्पत्ति बाधित होती है। क्योंकि जड़ से चेतन तत्त्व पैदा नहीं हो सकता। यह एक सहज अनुभवगम्य तथ्य है। भला, जब भौतिक तत्व ही अचेतन हैं, तो उनके संयोग से सचेतन आत्मा कैसे पैदा होगी। जब भौतिक तत्त्वों में चेतना नहीं है, तो उससे निर्मित होने वाले शरीर में भी चेतनता नहीं हो सकती। इसलिए शरीर का आधार आत्मा है। आत्मा के कारण ही शरीर में गति आदि क्रियाएँ संचरित होती हैं। शारीरिक इन्द्रियां पृथक्-पृथक् हैं। प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है। जैसे आँखें रूप का ही ज्ञान करती है, न कि रस का। पाँचों इन्द्रियों के विषयों का समन्वित रूप में ज्ञान करने वाला और कोई तत्त्व अवश्य है, उसी को आत्मा कहते हैं। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, वचन आदि भौतिक हैं। ये चेतन के संसर्ग से चेतनायमान होते हैं। हमारे इस शरीर का निर्माण और विकास जीव के द्वारा ही होता है। क्योंकि आत्मा निमित्त For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन | ६३ कारण बनकर परमाणुओं के समूह को रूप देकर शरीर का निर्माण करती है। कर्मों के अनुसार आत्मा को शरीर मिलता है। क्योंकि जैसा वह तत्वतः भिन्न-भिन्न जानता है, ज्ञायक भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। भेद-विज्ञान को यही पृष्ठभूमि है। आत्मा और शरीर दोनों में भेद करने वाला ही ज्ञानी है। यदि दोनों को कोई अभेद मानता है तो वह मित्थात्वी है, अज्ञानी है। तादात्म्य होने के कारण लोग शरीर और आत्मा को एक मान लेते हैं। जबकि बाहर जाने का मार्ग है, और प्राप्त भी बाहर से ही है. माता-पिता से प्राप्त है। भेद-विज्ञान सध जाने के बाद बाहर का प्रभाव नहीं पड़ता। आनन्दघन, देवचन्द्र, राजचन्द्र, सहजानन्दघन, विनोबा भावे, आनन्दमयी माँ, विचक्षणश्री, धनदेवी माँ, हम्पीवालीऐसे अनेक लोग हैं, जिन्होंने भेद विज्ञान को तल से छूआ। जिसके पास विवेकी हंस-दृष्टि है, वही दूध-पानी की तरह आत्मा और अनात्मा में भेद कर सकता है। ___मैंने सुना है, घर की मालकिन ने दूध वाले से कहा, क्या बात है, दूध में पानी डाला है ? दूधवाले ने कहा नहीं, मैया ! मालकिन बोली, 'खा कसम'। दूधवाले ने कहा, 'गंगा माँ की कसम' यदि मैंने इसमें पानी डाला हो।' मालकिन बोली, तब फिर दूध पतला क्यों है ?' मालकिन ! दूध रात का है, अतः अशुद्ध है। इसलिए मैंने गंगा का अमृत डालकर पवित्र किया है। हालांकि दूध शुद्ध है और गंगा का पानी भी शुद्ध है मगर दो शुद्ध. ताओं का एकमेक हो जाना शुद्धता को समाप्त करना है। उसका परिणाम तो अशुद्धता ही आता है। दूध को दूध माना जाय और पानी को पानी माना जाय। शरीर को शरीर माना जाय और आत्मा को आत्मा माना जाय “सरीर माहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नावियो" शरीर नाव है, और आत्मा नाविक है। नाव ही नाविक नहीं है For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४/ अमीरसधारा नाव तो साधन है पार उतरने के लिए। “शरीर माध्यम खलु धर्म साधन'' शरीर धर्म साधन का कर्म करती है, उसी के अनुरूप परमाणु समूह उसकी ओर खींचते हैं, वैसा ही शरीर बनता है। शरीर बनता अवश्य है, पर आत्मा तैल व बत्ती से भिन्न ज्योति की तरह है। जिस शक्ति से शरीर चिन्मय हो रहा है, वह अन्तः ज्योति शरीर से भिन्न है। यह आत्मा ही है, जिसके द्वारा शरीर से विभिन्न क्रियाएँ संचालित होती हैं। जिस प्रकार मशीन को चलाने के लिए कोई चालक होता है, उसी प्रकार शरीर रूपी मशीन को चलाने के लिए आत्मा चालक है। जब उसका एक देह के साथ सम्बन्ध का समय समाप्त हो जाता है, तो वह अपने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर को प्राप्त कर लेता है, जैसे हम पुराने वस्त्र को छोड़कर नये वस्त्र को धारण करते हैं। मृत देह जला दी जाती है, पर आत्मा अमर है। आत्मा तो वह है, जिसे शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता, हवा सोख नहीं सकती नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नेनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। भला, जो अविनाशी है, उसे उत्पन्न कैसे माना जा सकता है। जन्मने वाला जरूर मरता है। उत्पत्ति और विनाश दोनों ध्र व सत्य हं। निश्चित रूप से जड़ और चेतन दोनों अलग-अलग हैं—यही आध्यात्मिक भाषा में भेद-विज्ञान है। न केवल शरीर और आत्मा, बल्कि प्रत्येक दो व्यतिरेकी भिन्न पदार्थों में द्वैत सम्बन्ध है। जो आत्मा को शरीर से तत्त्वतः भिन्न जानता है, वही भेदविज्ञान की पराकाष्ठा को छू सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सुरीरादु तच्चदो भिन्नं । जाणग - रूव - सरूवं, सो सत्थं जाणदे सत्वं ॥ यानी जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से माध्यम है। मनुष्य For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन/६५ वास्तव में आत्मा और शरीर का, जीव और परमाणुओं का, पुरुष और प्रकृति का एक अद्भुत संयोग है। जैसे पङ्गु आदमी को जंगल में लगी आग को देखते हुए भी दौड़ने-भागने में असमर्थ होने से जलने का डर है और अन्धे आदमी को दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जलने का डर है। मगर यदि दोनों के मिल जाने से, अन्धे के कन्धों पर पंगु के चढ़ जाने से अ ग से बचा जा सकता है। दोनों के संयोग से दौड़ने का भी सामर्थ्य आ गया और देखने का भी। बात सही है क्योंकि एक पहिये से रथ नहीं चलता। इस पंगु और अन्धे के न्याय से ही पुरुष और प्रकृति का संयोग ही संसार है। इनके विशिष्ट संयोग से ही हमारा व्यक्तित्व उत्पन्न हुआ। यद्यपि सामान्य दृष्टि से दोनों में एकरूपता है, किन्तु सच यह है कि दोनों में मूलतः भिन्नता है। क्योंकि आत्मा चैतन्यमय है, शरीर जड़ है। दोनों का एकत्व और भिन्नत्व सापेक्ष है। आत्मा तथा शरीर में एकता इसलिए मान्य है क्योंकि इस मान्यता के बिना नैतिक आचरण असम्भव है। इन दोनों में भिन्नत्व मानना इसलिए आवश्यक है क्योंकि भिन्नत्व माने बिना अनासिक्त और भेद विज्ञान का आदर्श उपस्थित नहीं हो सकता, जीवन का रहस्य नहीं जाना जा सकता। शरीरावृत होने के कारण ही आत्मा को जीव की संज्ञा दी गई। हालांकि आत्मा और जीव एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं किन्तु दोनों में भेद रेखा है। जो आत्मा शरीर में है उसे जीव कहते हैं जब वह शरीर से अलग हो जाती है तब उसे आत्मा नाम दिया जाता है। शरीर अनित्य है इसलिए वह नष्ट हो जाता है किन्तु आत्मा नित्य है इसलिए वह अमरता की यादगार संजोए रहती है। ____ जो लोग आत्म-युक्त होते हुए भी आत्म दृष्टि नहीं रखते, आत्मा को नहीं मानते, आत्मस्थ और स्वस्थ होने के लिए कोशिश नहीं करते वे बिचारे भटके हुए हैं, दिशा भूले हुए हैं। उनकी आत्मा भौतिकता For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६/अमीरसधारा से बार-बार लिपटती रहती है। आत्म-अनुभूति, आत्म-स्वीकृति और आत्मलीनता ही आत्मदर्शन की शैली है। यही कारण है कि इस शैली को अपनाने वाला पहले व्यवहारिक चिन्तन फिर शुद्ध वस्तुगत स्वतन्त्र आध्यात्मिक चिंतन में प्रवेश कर जाता है, जहाँ अपनी आत्म चेतना स्वयं दस्तक करती है और उसका अनुभव अपने आप ही हो जाता है। यहाँ आत्मगत और वस्तुगत दोनों से परे परमात्म भाव का अमृत झरना ब्रह्मनाद करता हुआ उसे निजानन्द रसलोन कर देता है। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ मैं आत्मवादी हूँ। मुझे अपने पर विश्वास है। चूंकि मैं आत्मवादी हूँ, इसलिए किसी का अंश नहीं हूँ. ईश्वर का भी नहीं। आत्मा पूर्ण है, अंश अपूर्ण है । अंशों को पाने की तमन्ना कम है । यात्रा हो पूर्ण की, पूर्णता के लिए, पूर्णता की ओर । ईश्वर से भयभीत होना भी मैंने नहीं सीखा है। कारण, भय ईश्वर के पास नहीं ले जाता है । ईश्वर को पाने की भूमिका तो अभय है । यह आत्मा आस्तिक भी नहीं है, पर नास्तिक भी नहीं है। कारण, आस्तिकता और नास्तिकता के भेद मस्तिष्क से उपजे हैं, और आत्मा मस्तिष्क से परे है । आत्मा को पाने का कोई मार्ग भी नहीं है। मागं तो हमें कहीं और ले जाते हैं। जबकि आत्मा कहीं और नहीं, हमारे निकट है, सबसे निकट । इसलिए हमें अपनी आत्मा का दर्शन करना है। . तो आज हम स्वयं को खोलने का प्रयास करेंगे । जैसे ही भीतर की पर्त-दर-पर्त को हटाएंगे आत्मा के प्रकाश का दर्शन हो जायेगा। जब हम अपने को खोलेंगे, तो पायेंगे कि हम अपने आप में स्वतंत्र है। हमारी आत्मा एक स्वतंत्र प्रत्यय है। आत्म-स्वतंत्रता के अभाव में कम और संकल्प की स्वतंत्रता दब जायेगी। जबकि प्रत्येक व्यक्ति के कर्म एवं संकल्प भिन्नता के मुखौटे पहने रहते हैं, स्वतंत्र होते हैं । वस्तुतः आत्मा का अतीत उसकी नियति पर आधारित है और भविष्य पुरुषार्थ पर। ज्ञानवादी आत्मा को कम करने में स्वतंत्र मानता है। वैराग्य, अभ्यास, ज्ञानाराधना आदि द्वारा ज्ञान का अर्जन करता है, जो उसके बलबूते की बात है । कतिपय दार्शनिक आत्मा का सर्वथा स्वातन्त्र्य नहीं मानते। उनके अनुसार आत्म-स्वातन्त्र्य भगवत्कृपा सापेक्ष है । इसीलिए वे लोग प्रपत्ति और पुष्टि को, भगवत् समर्पण और भगवत् अनुग्रह को मोक्ष-प्राप्ति में For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८/अमोरसधारा आवश्यक मानते हैं। कुछ दार्शनिक शब्दशः आत्मवादी नहीं हैं, किन्तु आत्मा के होने पर ही सधने वाले कार्यों को वे मान्यता देते हैं। वैसे वे लोग ज्ञानवादी हैं और ज्ञान के अनुरूप अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्मवादी हैं । ज्ञान और कर्म की साधना में कर्ता का स्वातन्त्र्य है। आत्मा चैतन्य रूप है, जिससे वह समस्त जड़ पदार्थों से अपना अलग अस्तित्व बनाए रखती है। यद्यपि चेतना आत्मा का गुण है फिर भी कुछ जीवों में चेतना की मात्रा अधिक हो सकती है और कुछ में कम। जो व्यक्ति जितना जागरूक होगा, उसकी चेतना उतनी ही अधिक होगी। यही कारण है कि एक मरोज की अपेक्षा खेल खेलते एक खिलाड़ी की चेतना शक्ति अधिक विकसित होती है। कुछ लोगों की दृष्टि में चेतना शरीर का गुण है, पर ऐसा नहीं है। जिस प्रकार दीपक वस्तुओं को प्रकाशित करता है किन्तु उसके प्रकाश के लिए वस्तुओं का रहना जरूरी नहीं है। यदि वस्तुएँ नहीं रहेंगी, तो भी दीपक तो अपनी रोशनी फैलाता ही रहेगा। उसो प्रकार वस्तुओं की चेतना आत्मा को रहती है पर चेतना के लिए वस्तु सम्पकं आवश्यक नहीं है। यदि वस्तु का अभाव हो और सम्पर्क भी न हो तो भी चेतना तो रहती है। इसीलिए आत्मा चैतन्य-विशिष्ट है। चेतना उसकी निजी सम्पत्ति है। _ आत्मा निश्चय ही सगुण धारा की प्रतिनिधि है वह निर्गुण नहीं सविशेष है। इसका अपना व्यक्तित्व है, इसकी अपनी विशेषताएँ है। इसकी यथार्थता को झुठलाया नहीं जा सकता है, यह एक जीवन्त सत्ता है। यह अनित्य तत्व नहीं है, चिरस्थायी है। कर्मवशात् परतन्त्र भले ही कह दें पर मूलतः आत्मा स्वतन्त्र है। आत्मा ज्ञायक है क्योंकि ज्ञान का व्यवसाय इसी की दुकान पर होता है। अनुभूति और संकल्प की क्षमता भी इसी में है, आनन्द स्वरूप भी यही है। सत्, चित और आनन्द का त्रिवेणी संगम इसी में ही है । For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ/६९ चूंकि आत्मा अमर है इसलिए जन्म-मरण का ज्वार भाटा इसके सागर में उठता जरूर है मगर आत्म-सागर अपने आप में प्रशान्त है इसीलिए मैं आत्मा को जीवन कह देता हूँ। जीवन न जन्मता है न मरता है। जीवन की मृत्यु नहीं होती और मृत का जीवन नहीं होता। एक फकीर का एक शिष्य मर गया। जब फकीर ने यह सुना तो शिष्य के घर गया। लोग वहाँ रो रहे थे। शिष्य की लाश एक किनारे पड़ी थी। मृत का गुरु आया हुआ जानकर लोगों ने उन्हें आने के लिए रास्ता दिया। अपने शिष्य की लाश देखकर उस फकीर ने उपस्थित लोगों से जोर से पूछा। यह इन्सान मरा हुआ है या जिन्दा । फकीर के इस प्रश्न में लोगों को चौंका डाला । अरे भला यह कैसा प्रश्न एक ओर लाश पड़ी है और दूसरी ओर फकीर पूछता है कि यह मरा हुआ है या जिन्दा। क्या इसकी मृत्यु पर भी सन्देह है ? एक आदमी ने कहा फकीर साहब ! आपके प्रश्न ने हमको उलझा दिया है। फकीर का चेहरा बड़ा गंभीर था पता है साधु ने क्या कहा जो आज मृत है वह पहले भी मृत था जो पहले जीवित था वह आज भी जीवित है। मात्र दोनों का रिश्ता टूट गया। फकीर ने बिल्कुल ठीक ही कहा था। जो लोग जीवन की सही परिभाषा नहीं जानते हैं, वे मौत को जीवन का समापन समझते हैं । किन्तु ऐसा नहीं है। जोवन तो जन्म और मृत्यु के भीतर भी है और बाहर भी। जीवन का अस्तित्व जन्म के पहले भी रहता है, और मृत्यु के बाद भी रहता है। जीवन का ही जन्म है, जीवन की ही मृत्यु है पर न तो जीवन का कोई जन्म है और न उसकी मृत्यु है जन्म-मरण होते रहते हैं, पर जीवन शाश्वत है। राही वे ही हैं, राह बदलते रहते हैं। ___ जीवन अर्थात् आत्मा और आत्मा अर्थात् जीवन । चाहे जीवन कहें, चाहे आत्मा कहें, दोनों एक ही हैं। इस द्वैत में छिपे अद्वैत को For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०/अमोरसधारा समझने की चेष्टा कीजिये । शब्दों का फक महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अर्थों का फर्क। पर आत्मा और जीवन में शब्दों का ही फर्क-भेद है, पर अर्थ एक ही है। हमें इस शब्दार्थ की जड़ों को गहराई से परखना है। हमारा जीवन, हमारी आत्मा तो धुरी है। स्वयं स्थिर है, पर उस पर लगा चक्र चलता है । चूंकि चक्र चलता है, अतः जहाँ तक चक्र जाता है, वहाँ तक धुरी को भी जाना पड़ता है । अब समझने की बात यह है कि चक्के में लगी धुरी कर्ता है या अकर्ता । धुरी यानी आत्मा। आत्मा का कर्तृत्व और अकर्तृत्व विचारणीय है। व्यवहारतः तो नैतिक या अनैतिक सभी प्रकार के कर्मों का कर्ता मनुष्य ठहरता है किन्तु इस पर बारीको से विचार कर तो मूलतः इन कर्मों का एक मात्र कर्ता मनुष्य नहीं है। क्योंकि मनुष्य न तो शरीर है, और न ही आत्मा है, अपितु वह इन दोनों का एक सम्बन्ध है, एक संयोग है। इस संयोग के कारण ही मनुष्य जीता है। धुरी और चक्र के संयोग से ही गाड़ी आगे बढ़ती है। शायद आपको मालूम नहीं होगा कि कुछ दार्शनिक लोग शरीर | अचित् रूप प्रकृति को ही कर्ता मानते हैं। किन्तु यह धारणा उचित नहीं है। क्योंकि प्रकृति आखिर जड़ है, निर्जीव है और निर्जीव कर्ता नहीं हो सकता। भला, मुर्दा कभी कर्ता हो सकता है। कर्तृत्व का सम्बन्ध तो एक मात्र चेतन से है। . कुछ दार्शनिक आत्म-कर्तृत्ववाद का समर्थन करते हैं। यद्यपि शरीर को कर्ता मानने की अपेक्षा आत्मा को कर्ता मानना ठीक है, पर उसमें भी संशोधन को जरूरत है। वस्तुतः कतृत्व का सम्बन्ध नैतिक अनैतिक समस्त व्यापारों से है। जब आत्मा संसार में रहती है, तब तो उसके साथ कतृत्व का सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है, परन्तु जब For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ/७१ आत्मा संसार से छुटकारा पा लेतो है, निर्वाण पा लेती है, अपने वास्तविक स्वरूप को ग्रहण करती है, तब उसमें कतृत्व नहीं रहता। जहाँ कहीं भी आत्मा के सम्बन्ध में कर्तृत्व की बात आती है, उसका आशय भी यही समझना चाहिए कि माया, पुद्गल या भौतिक परमाणुओं के साहचर्य से जुड़ी आत्मा में केवल कर्तृत्व का आभास मात्र रहता है । कर्तृत्व आत्मा का निजी गुण नहीं है। कारण, यदि निजी गुण होता तो, निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी यह गुण रहना चाहिए । जबकि ऐसा नहीं रहता है। वस्तुतः आत्मा मूल रूप में अकर्ता है। परन्तु अपने अशुद्ध रूप में वह कर्ता भी है। जब तक आत्मा कर्म के परमाणुओं से युक्त है, तब तक वह कर्ता है। अथवा इसे यों कहा जाये कि कार्मिक परमाणुओं के साहचर्य से उत्पन्न चेत्स-भावों का कर्ता है। मैंने देखा है कि एक बैलगाड़ी के नीचे-नीचे एक कुत्ता चल रहा था। गाडी चलती कुत्ता भी चलता । गाड़ी रूकती, कि कुत्ता भी रूक जाता। कुत्ता गाड़ी के नीचे से न तो आगे बढ़ता है और न पीछे खिसकता है । कुत्ता यह सोचता है कि मेरे भरोसे ही गाड़ी चलती है। यदि मैंने चलने में थोड़ी सी भी ढील कर दी, तो गाड़ी नीचे गिर जायेगी। आत्म-कर्तृत्ववाद भी तो ऐसा ही है। गाड़ी और कुत्ते का संयोग, आत्मा और शरीर का संयोग–यही तो कतृत्ववाद की गाड़ी को चलाता है। आत्मकर्तृत्व की भांति ही आत्म-भोक्तृत्व की धारणा है। जो आत्मा शरीर में है, या बद्ध है, उसके साथ भोक्तृत्व का सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। जबकि आत्मा सत्यतः तो साक्षी स्वरूप है। शरीर में आबद्ध होने के कारण शारीरिक, वैचारिक, मानसिक क्रियाओं का भोक्ता है। आदमी जेल में बन्द हो गया, तो वह कैदी For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२/अमीरसधारा बन गया। जेल में वह सारी क्रियाएँ कैदी की ही करता है, इसलिए वह कैदखाने का भोक्ता है। किन्नु वह कैदी से परे भी कुछ है । आखिर तो वह आदमी है । कैद के संयोग से उसमें कैद के भोक्तृत्व का आरोपण हो जाता है, किन्तु कैद से छूट जाने के बाद कैद का भोक्तृत्व नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार से आत्मा में भी पर के संयोग से भोक्तृत्व का आरोपण होता है, मगर मोक्ष-प्राप्ति के बाद आत्मा में भोक्तृत्व नहीं रहता है। मोक्ष तो कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व दोनों का अयोग है। वहाँ कर्ता और भोक्ता के रिश्ते-नाते नहीं रहते। आगम में कहा गया है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुपढिओ ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। ___ यद्यपि कुछ लोग कहते हैं कि उसकी आत्मा दुष्ट है, पापी है। मगर ऐसा नहीं है। यदि हमारी आत्मा सत्प्रवृत्तियों में प्रवृत है, तो वह सात्विक है। हमारी आत्मा स्वभावतः अपवित्र, दुष्ट और पापी नहीं है। किसी दूसरे ने यदि पाप किया है, तो उसका प्रभाव आपकी आत्मा पर नहीं पड़ सकता। इसी तरह दूसरे ने यदि पुण्य किया है, तो इससे आपकी आत्मा पुण्यात्मा नहीं हुई। आत्मा किसी दूसरे के पाप से न तो पतित होती है और न ही वह अपने उद्धार के लिए किसी दूसरे पर आश्रित है । अतः यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी आत्मा को पतित करें या विकसित । दियासलाई का उपयोग हम अंधकार को दूर भगाने के लिए करें या लोगों की झोपड़ियों में आग लगाने में, यह तो हमारे ऊपर ही आधारित है। हमारी आत्मा का उद्धार तो हमें ही करना होगा। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ / ७३ ‘उद्धरे दात्मनात्मानम्' आत्म-दर्शन का स्वर्णिम सूत्र है । इस सम्बन्ध में मैं अपनी ही एक कविता सुनाता हूँ - आओ अन्तर के मन्दिर में, जीर्णोद्धार कर हम इसका । कर प्रतिष्ठा आत्म देव की, इसमें ईश निहित है सबका || करते जो उद्धार लोक का, वे क्यों परम सत्य यह विस्मृत - जीवन का उद्धार जगत् में, अपना तो अपने पर निर्भुत ॥ आत्म- बिम्ब बन जाये निर्मल, प्रतिबिम्बों में कहाँ सत्यता । आत्म विजेता ही जग - जेता, चूमेगी पद सकल सफलता ॥ हमारे दारोमदार हम ही हैं, हमारी आत्मा ही है । आत्मा के बलबूते पर ही साधना और साध्य के महल बनाये जाते हैं । जो लोग आत्म-दर्शन के अभिलाषी हैं, वे जरा पहचाने अपने-आपको, अपनी शक्ति को । - आत्मा की शक्ति प्रबल है । हरेक बुलबुले की आत्मा शक्तिशाली सागर है । क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी आत्म-शक्ति की, आत्म- चैतन्य की अनन्त ज्योति समाहित है । शक्ति का बाहरी स्रोत यान्त्रिक हो सकता है, किन्तु मूल स्रोत आत्मा ही है, ऊर्जा ही है । इसलिए आत्म-शक्ति ही सर्वोत्तम शक्ति है, यही ऊर्जा का अनन्य पुंज है, यही जीवन का सम्बल है । आत्म-शक्ति के बिना जीवन जीवन नहीं रहता, जीव निष्प्राण हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४/अमीरसधारा - यद्यपि आत्मा अनन्त शक्तियों का स्वामी है, फिर भी एक शक्ति और है, जो इसे कुंठित करती है और वह है कर्म शक्ति। हालांकि कर्म-शक्ति आत्म-शक्ति को आवृत करती है, किन्तु आत्मा की शक्ति कर्म की शक्ति से अधिक है। कम की शक्ति तो ज्वार भाटे की तरह है, पर क्या ज्वार भाटे की शक्ति सागर से ज्यादा है ? कम की शक्ति तो वास्तव में आत्मा के अंगारे के उपर ढकी हुई राख है। राख चाहे बहुत हो, पर हवा के झोंके से उड़ते कितनी देर लगेगी। राख यानी हमारा अज्ञान, हमारा मिथ्यात्व, हमारी नासमझी। यही कारण है कि व्यक्ति आत्म शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी अज्ञानवश कर्माधीन हो जाता है। एक बात याद रखिये कि आत्मा में बन्धन और मुक्ति की, दोनों तरह की शक्तियां है। यह तो सूर्यवत् है, जो स्वयं ही बादल बनता है, और बादलों से आवृत हो जाता है। पर यह मत भूलिये कि जो सूर्य बादलों से आच्छन्न है, उसमें वह शक्ति भी है, जिससे वह उन बादलों से अनावृत होकर प्रकाशमान हो जाता है। वैसे हमारी संसारी आत्माएँ प्रायःकर विभाव दशा में रहती है यह आत्मा की प्रतिकूल दशा है। इस दशा का नाम ही माया है। आत्मा जब तक माया की शक्ति में उलझी रहती है तब तक विभाव शक्ति के द्वारा परिचालित होती है, कर्मों का बन्धन करती है और उसमें आबद्ध हो जाती है। यह बिल्कुल मकड़ी के जाले की तरह है। मकड़ी स्वयं ही जाल बनाती है और स्वयं ही अपने जाले में उलझ जाती है। यह जाल ही विभाव दशा है यही माया और मिथ्यात्व है। जब आत्मा अपने सहज स्वाभाविक रूप में रहती है तो उसे आत्मा की स्वभाव दशा कहते हैं। इस दशा में आत्मा माया के क्षुद्र बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर अपने ही प्रकाश से प्रकाशित रहती है। अन्य शब्दों में यही आत्मा की मुक्तावस्था है और यही योगियों और साधकों की For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ/७५ इच्छित दशा है। जहाँ परमात्म भाव, ब्रह्मभाव और अर्हद भाव की निधूम-ज्योति ज्योतिर्मय रहती है। अपनी आत्मा की इस दशा को पहिचानने के लिए ही तो हम मंदिर जाते हैं। मंदिर में रखी मूर्ति परमात्मा को प्रतीक है और हमारी प्रतिछवि है। मूर्ति वह दर्पण है जिसमें हम अपने को ही निहारते हैं और निहार-निहार कर अपने को ही सजाने और संवारने का भाव बनाते हैं । यह प्रयास एक हद तक ठीक ही है । आत्म साक्षा. त्कार के लिए ऐसी पगडंडिया बहुत कुछ सहायता पहुँचाती है। पर आखिर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हमारी आत्मा निराकार है । चूंकि परमात्मा भी आत्मा का ही एक परिष्कृत रूप है अतः परमात्मा भी निराकार ही है। जिस व्यक्ति के भीतर आत्मा और परमात्मा के प्रति एकाग्रता और रसमयता के तार नहीं जुड़े हैं तो उसे आकार निराकार तक कैसे पहुँचा देंगे। हमने फोटो खींचा, एक्सरे किया, उसमें मूर्त तो आ गया किन्तु अमूर्त की छवि नहीं उभरी। फोटो तो मुर्दे का भी आ सकता है पर आत्मा का फोटो नहीं खींचा जा सकता। जो मूर्त से अतीत दृष्टि रखता है वही अमूर्त में प्रवेश कर पाता है । आत्मा को न तो देखा जा सकता है, न ही जाना जा सकता है। दर्शन और ज्ञान मूर्त पदार्थ का सम्भव है किन्तु अमूर्त का नहीं। जो स्वयं ज्ञाता है उसे कैसे जाना जा सकता है। आत्मा का तो अनुभव किया जा सकता है। और अनुभव आत्मा को चैतन्य शक्ति से होता है। आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है। यह ज्ञायक है इसमें ज्ञेय कृत अशुद्धता नहीं है। इसीलिए आत्मा विज्ञान का विषय नहीं बन सकती। आत्मा का तो अपना विज्ञान है। इसे जाना नहीं जा सकता, क्योंकि यह तो जानने वाली है, जानी जाने वाली नहीं है। जिस रूप में हम दूसरी चीजों का ज्ञान करते हैं, उस रूप में इसका ज्ञान नहीं हो सकता। जिसे आत्मा का पता लगाना है, उसे समाधि की उस अन्तिम अवस्था For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६/अमीरसधारा तक पहुँचना पड़ेगा, जहाँ मात्र ज्ञाता ही शेष रह जाता है। जानने वाला हो शेष बचे और कुछ भी नहीं। जब मन, वचन, काया आदि की चुम्बकीय शक्ति से बाहरो पौद्गलिक आकर्षण से हटकर अन्तरात्मा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को ही आत्मा की अनुभूति हो सकतो है । आत्मा से व्यतिरिक्त जितने भी भाव या पदार्थ हैं वे पराधीन हैं, ज्ञेय हैं। वस्तुतः आत्मा का सम्बन्ध पर से है। ज्ञाता से ज्ञेय सदा भिन्न रहता है। जिस चीज को हम जानते हैं, वह अवश्य हमसे भिन्न होगी। उदाहरण से यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। जैसे मुझे ठण्डक लग रही है। ठण्डक का मुझे ज्ञान हुआ। मैं ही तो ठण्डक नहीं बना। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मैं और ठण्डक दोनों अलग-अलग हैं। ज्ञय ओर ज्ञाता कभी एक नहीं हो सकते। ज्ञाता सदेव आत्मा है और इतर पदार्थ ज्ञेय है। अब शंका यह है कि आत्म-ज्ञान का क्या अर्थ है ? वस्तुतः आत्म-ज्ञान यह शब्द ही यथार्थतः ठीक नहीं है। फिर भी उस स्थिति को समाधि या आत्म-ज्ञान शब्द से सांकेतिक किया जाता है। जिस स्थिति में चित्तवृत्तियां निरुद्ध हो जाती है इतर पदाथ के ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। इसे ठीक से समझने के लिए दीपक का दृष्टान्त रखा जा सकता है। दीपक का प्रकाश जिस पर पड़ता है, उसका ज्ञान दीपक कराता है, किन्तु ऐसी स्थिति की हम कल्पना करें जहां दीपक का प्रकाश किसी वस्तु पर न पड़ता हो, शून्य में ही दीपक प्रकाशमान हो रहा हो। वही स्थिति समाधि या आत्मज्ञान की है। इस अवस्था में केवल आत्म अनुभूति, आत्मलीनतानिजानन्द रसलीनता ही शेष रह जाती है। आचार्य कुंद-कुंद एक महान् आत्मदर्शी मनीषी हुए हैं। आत्मा पर उन्होंने अपने जो अनुभव लिखे, उतनी गहराई में शायद आज For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा की सत्ता : अनधुई गहराईयाँ/७७ तक कोई नहीं गया। उन्होंने बताया है कि आत्मा ज्ञायक है। आत्मा जाननेवाला है । आत्मा ज्ञाता है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है। इसलिए एक बात हमेशा याद रखें कि आत्मा ज्ञेय नहीं है, वस्तु नहीं है ; जान सकें, ऐसी नहीं है । स्वयं को, आत्मा को कभी भी ज्ञेय की भाँति नहीं जाना जा सकता। इसलिए जब तक कुछ भी ज्ञेय बचा रहे, तब तक यही समझिये कि हम अभी तक पर से जुड़े हैं। जब सारे ज्ञेयों से हम अशेष हो जायें, फिर जो शेष बचे, वही स्व है, वही आत्मा है, वही ज्ञान है। इस दशा को आँकने के लिए ही 'आत्म-ज्ञान' शब्द का प्रयोग होता है। वास्तव में वहाँ आत्मा ही ज्ञानरूप होती है और ज्ञान भी आत्मा रूप होता है। जिस क्षण हमारी जिन्दगी में ऐसा क्षण आये, जब सारे ज्ञेय अशेष हो जाये, उस क्षण यदि स्वयं भगवान् भी मिले, तो उन्हें भो ज्ञेय समझ लेना और उनको दूर हटा देना। आखिरकार आप स्वयं अपने को भगवद् स्वरूप पायेंगे यानी आप ही भगवान् बन जायेंगे। ROB For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठतम साहित्य कों अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने की दिशा में अभिनव अभियान दुर्लभ पुस्तकें : सबकी पहुँच में; देशभर के विद्वानों एवं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा प्रशंसित; लेखक और पाठक के बीच सीधा संवाद सम्पूर्ण सामग्री; सुविधाजनक आकार मूल्य आधे से भी कम । प्राकृत- सूक्ति-कोशः महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर प्राकृत-सूक्तियों का एक अद्वितीय विश्वकोश, जिसमें प्राकृत सूक्तों के साथ हिन्दी अनुवाद भी है, और है शोधकर्ताओं के लिए सन्दर्भ-कोश भी । पृष्ठ 312. 25/ 5 बिम्ब प्रतिबिम्ब: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जीवन के उधेड़बुन को प्रस्तुत करने वाली एक सशक्त प्रौढ़ काव्य-कृति । पृष्ठ 84 5 षड्दर्शन- समुच्चयः आचार्य हरिभद्रसूरि भारत के प्रमुख छह दर्शनों का संक्षिप्त व सरल हिन्दी विवेचन के साथ नवीन प्रस्तुतीकरण । साथ ही सरलार्थ सहित पारिभाषिक शब्द-कोश एवं षड्दर्शनों का हिन्दी में काव्यबद्ध परिशिष्ट । 61 . 5 महोपाध्याय समयसुन्दरः व्यक्तित्व एवं कृतित्व: मुनि चन्द्रप्रभसागर आठ अक्षरों के दस लाख से अधिक अर्थ करने वाले विश्वस्तरीय विद्वान् समयसुन्दर के समूचे जीवन-परिवेश एवं साहित्य को गहराइयों से प्रस्तुत करने वाला विशाल शोध-प्रबन्ध | पृष्ठ 508. 40/उत्तमः मुनि ललितप्रभसागर उत्तमकुमार के साहसी व्यक्तित्व को उजागर करनेवाली एक पौराणिक कथा । पृष्ठ 68 71 5 विचार और व्यवहार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर नैतिकता का पथ प्रदर्शित करने वाला अनूठा जीवनोपयोगी दोहा शतक 1 48 # अतिमुक्तः गणेश ललवानी आगम-साहित्य से सीधे उठाए गए जाने-पहचाने पात्र, पर कथा-शिल्प अनूठा गौरवपूर्ण | पृष्ठ 118 81 5 श्रावकाचारः महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर आगमों और शास्त्रों पर आधारित श्रावक के आचार-व्यवहार को बतानेवाली एक श्रेष्ठ पुस्तिका, जो श्रावकीथ आवश्यकताओं को पूरा करती है | पृष्ठ 60 4/ 31 सम्पर्क करें: श्रीजितयशाश्री फाउंडेशन 9 सी, एस्प्लनेड ईस्ट कलकत्ता 69 5 चन्द्रप्रभ की कहानियाँ: मुनि ललितप्रभसागर हिन्दी के बहुचर्चित स्तम्भ चन्द्रप्रभजी की छह अति लोकप्रिय कहानियों का अपूर्व संग्रह | आधुनिक जीवन से समन्वित प्राचीन भारतीय जीवन का जीवन्त चित्रण । 71 4/: उक्त सभी पुस्तकों का सेट मँगाने पर 7 अन्य पुस्तकों का विशिष्ट उपहार रजिस्ट्री चार्ज़ एक पुस्तक पर 6/-, सम्पूर्ण सेट पर 15/ ' Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर For Personal & Private Use Only