________________
आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५५ है । क्षितिज तक ही यह सीमित नहीं है, क्षितिज के भी पार है यह आकाश | चूंकि दृष्टि की अपनी सीमा है, इसलिए यह देख नहीं पाती क्षितिज के पार वाले आकाश को । यदि किसी की दृष्टि व्यापक बन गई, सारे ब्रह्माण्ड का अरस-परस करने वाली तो उसके लिए क्षितिज नाम की कोई चीज ही नहीं होती । कारण, जिस सीमा को हम क्षितिज मानते हैं, उसकी दृष्टि उसके भी पार, दूर सुदूर तक जाती है । उसकी पहुँच काफी लम्बी-चौड़ी होती है । धर्मी समझिये। यह शरीरव्यापी होते हुए भी दूर तक होती है । इससे संसार का कोई छोर हमारी कमजोरी है कि हम भीतर से अन्धे हैं । हम वैसी दृष्टि नपा सके, जिससे आत्मा के आकाश में उड़कर उसके विराट रूप को देख पाते। पर यदि प्रयास किया जाये तो हम वह सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं, जो हमारे जीवन का तीसरा नेत्र है, शिव का तीसरा नेत्र है ।
आत्मा भी आकाश
इसको पहुँच दूरअछूता नहीं है ।
यह
आत्मा सविशेष है । बोध, विवेक, समता आदि इसकी विशेष - ताएँ हैं । जिन्होंने आत्मा को अस्वीकार करके अनात्मवाद नैरात्म्यवाद का समर्थन किया, वे अपने दर्शन की नींव को मजबूती से नहीं बँध पाये। जो अपने दर्शन को नैतिकता के शिखर पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, उनके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि वे आत्मा के अस्तित्व को माने । 'जो स्वरूप समज्या बिना, पाम्यो दुःख अनन्त' । आत्मा को नहीं माना, उसका स्वरूप नहीं समझा, उसी का ही तो यह परिणाम है कि मैं दुःखों का अनुभव कर रहा है । आश्चर्य तो यही है कि आत्मा स्वयं ही आत्मा के अस्तित्व के बारे में शंका करने लग गयी है—
*
आप ।
आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप || इसलिए यह बात पक्की मानिये कि आत्मा के अस्तित्व पर शका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org