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५४ / अमीरसधारा
करता है । ऐसा व्यक्ति आत्म-प्रवंचक है, स्वयं को स्वयं के द्वारा धोखा देता है । 'ज्याँ लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहीं, त्याँ लगी साधना सर्व झूठी ।' यदि हमने आत्मा से दोस्ती नहीं साधी, तो हमारी सारी साधना 'छार पर लीपणो तेह जाणो' राख पर लीपा-पोती करने जैसी है ।
मेरे तो सारे चिन्तन के कबूतर आत्मवाद के आकाश में ही उड़ते हैं । दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन को अभिवृद्धि देने के लिए उसकी जड़ तो आत्मा ही है । जंसे पेड़ में जड़ है, शरोर में मस्तक है, वैसे ही आत्मा है प्रमुख । दर्शन की आधारशिला आत्मा ही है । दार्शनिक चिन्तनधारा को बढ़ावा देने के लिए आत्मा ही मूल स्रोत है ।
आत्मा वह प्रत्यय है, जिसके शरीर में रहने पर वह जीव कहलाता है और जिसके शरीर से निकल जाने के बाद शरीर मृत घोषित हो जाता है, उसे जला - दफनाकर समाप्त कर दिया जाता है। आज जिससे हम प्रेम करते हैं, जिसके लिए हम सदा मरने-मिटने के लिए तैयार रहते हैं, वह यदि मर गया, उसके शरीर से यदि आत्मा छूट गयी, तो. हम ही उसे जला - दफना डालते हैं । हमें प्रेम उसके शरीर से नहीं था, उसके अस्तित्व से था । अस्तित्व का नाम ही आत्मा है । इस प्रकार आत्मा रथी है, और शरीर रथ है । आत्मा ड्राइवर है, शरीर कार है । जैसे बिना ड्राइवर की कार नहीं चल सकती, वैसे ही बिना आत्मा का शरीर भी निकम्मा है । आदर और प्यार जीवन का है, मुर्दे का नहीं । इसलिए जो लोग जिन्दे हैं, उन्हें आत्मा की प्रतीति करनी चाहिये, उसके रस में डुबकी खानी चाहिये ।
यद्यपि आत्मा अमूर्त है । यह अमूर्त है, इसीलिए नित्य है । आकाश की तरह इसे समझने का प्रयास कीजिये । आकाश का रूप नहीं है । जहाँ-जहाँ अवकाश है, खाली जगह है, वहां-वहां आकाश
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