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________________ ३४ / अमीरसधारा ढूँढने लगी। फकीरों को बुढ़िया की बात पर और हँसी आई। बोले, अरे ! कुटिया में अन्धेरा है तो जा पड़ोसी से प्रकाश माँग ला, दीया लेआ। धर में खोई सूई घर में ही मिलेगी। अब की बार राबिया हँसने लगी। फकीरों को आश्चर्य हुआ। राबिया को हँसती देख। हँसने का कारण पूछा। राबिया बोली, अरे मैं तो समझती थी कि तुम लोग अभी बालक हो, ज्ञान के क्षेत्र में नादान हो। पर तुम लोगों को तो बड़ा ज्ञान है। अरे, जब तुम लोगों को यह ज्ञात है कि घर में रही सूई को घर में ही ढूँढना पड़ेगा, भले ही वहाँ अँधियारा लगे तो तुम बाहर क्यों ढूँढ रहे हो ? आज इतने वर्ष हो गये ढूँढते, पर तुम्हें मिला नहीं। मिलेगा भी कैसे ? वह तो तुम्हारे अन्दर है। बाहर का ध्यान हटाओ, भीतर में आओ। इसी अन्तर घट में समाया है, वह, जिसे तुम ढूँढ रहे हो। तो आओ भीतर में, भीतर की याद हमें आ रही है अब । शुरूआत में लगेगा, कि ध्यान में मन नहीं लगता। क्योंकि मन अभी बाहर भटकने का आदी है। भीतर रहने का वह अभ्यस्त नहीं हुआ है । पर अभ्यास से भीतर भी रहने लग जायेगा। यों तो आदमी साँप से डरता है, पर अभ्यास हो जाय तो वह साँप को पकड़ भी सकता है। अभ्यास से सब कुछ सम्भव है। ‘रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान'-कूए पर बनी पत्थर की मेड़ भी घिस जाती है रस्सी से, रोजाना पानी खींचते-खींचते। ‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' वैसे ही अभ्यास करते-करते गँवारु भी पण्डित हो जाता है। मन भी एकाग्र हो जाता है। जो मन कहीं नहीं लगता, वह भी लग जाता है, एकाग्र हो जाता है। ध्यान का अभ्यास हो गया, तो जैसे अभी बाहर घूमने में रस आता है, वैसे ही बाद में भीतर घूमने में रस आयेगा, अन्तर्यात्रा में ही आनन्द और शान्ति का अनुभव होगा। फिर मन चपल नहीं होगा। यह उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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