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ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / ३५ बाँध बाँध देने से बहता और भटकता पानी टिक जाता है, स्थिर हो जाता है ।
पर जो मन बाहर भटकता है, विषय-वासना में फँसा रहता है, वह बाढ़ के पानी की तरह बहता रहता है, कितनों को उखाड़ता है, पर स्वयं बहता रहता है । आँधी से जो दशा जलती हुई दीपशिखा की होती है, वही दशा विषय वासना से मन की होती है । कभी लौ इधर जाती है, तो कभी उधर । यानी डगमगाती रहती है । उसी तरह मन भी इधर-उधर डोलता रहता है। जबकि ध्यान एक ऐसा कमरा है, जैसे यह प्रवचन - - हॉल है, इसमें हवा का प्रकोप नहीं है, तो दीपक की लौ स्थिर रूप से जलती रहेगी ।
तो ध्यान निर्वात कक्ष है, जहाँ मन की लौ स्थिर रहती है । राग-द्वेष की हवा से मुक्त रहकर आत्म- मन्दिर में ध्यान का दीपक जलता रहे, तो स्वार्थ पूर्ति में, आत्मसाक्षात्कार में विलम्ब नहीं होगा । वहाँ हमेशा उजियाला रहेगा, अँधियारा दूर भग जायेगा । निर्वाण की स्थिति सध जायेगी, वाण अर्थात् वासना नहीं रहेगी, निर्वाण का निर्धूम दीप जलेगा ।
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जो व्यक्ति ऐसा दीप जलाने में लगा है, वही सच्चे स्वार्थ को उपलब्ध कर सकता है । स्वार्थी तो सारी दुनिया है, पर मैंने जो स्वार्थ की बात कही, उसकी पूर्ति में तो कुछेक लोग ही रहते हैं । स्वार्थ को हम छोड़ नहीं सकते । स्वार्थ की साधना तो करनी ही है, पर उसे नई दिशा में योजित करके । ध्यान साधना ही स्वार्थसाधना है और स्वार्थ साधना ही ध्यान-साधना है । जिनका ध्यान सध गया, जिन्होंने स्व के फूल खिला लिये, उन्हें इसके लिए श्रम करने की जरूरत नहीं है । जिनका स्वार्थ नहीं सधा, वे ही ध्यान को अपनाएँ ।
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