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________________ ६८/अमोरसधारा आवश्यक मानते हैं। कुछ दार्शनिक शब्दशः आत्मवादी नहीं हैं, किन्तु आत्मा के होने पर ही सधने वाले कार्यों को वे मान्यता देते हैं। वैसे वे लोग ज्ञानवादी हैं और ज्ञान के अनुरूप अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्मवादी हैं । ज्ञान और कर्म की साधना में कर्ता का स्वातन्त्र्य है। आत्मा चैतन्य रूप है, जिससे वह समस्त जड़ पदार्थों से अपना अलग अस्तित्व बनाए रखती है। यद्यपि चेतना आत्मा का गुण है फिर भी कुछ जीवों में चेतना की मात्रा अधिक हो सकती है और कुछ में कम। जो व्यक्ति जितना जागरूक होगा, उसकी चेतना उतनी ही अधिक होगी। यही कारण है कि एक मरोज की अपेक्षा खेल खेलते एक खिलाड़ी की चेतना शक्ति अधिक विकसित होती है। कुछ लोगों की दृष्टि में चेतना शरीर का गुण है, पर ऐसा नहीं है। जिस प्रकार दीपक वस्तुओं को प्रकाशित करता है किन्तु उसके प्रकाश के लिए वस्तुओं का रहना जरूरी नहीं है। यदि वस्तुएँ नहीं रहेंगी, तो भी दीपक तो अपनी रोशनी फैलाता ही रहेगा। उसो प्रकार वस्तुओं की चेतना आत्मा को रहती है पर चेतना के लिए वस्तु सम्पकं आवश्यक नहीं है। यदि वस्तु का अभाव हो और सम्पर्क भी न हो तो भी चेतना तो रहती है। इसीलिए आत्मा चैतन्य-विशिष्ट है। चेतना उसकी निजी सम्पत्ति है। _ आत्मा निश्चय ही सगुण धारा की प्रतिनिधि है वह निर्गुण नहीं सविशेष है। इसका अपना व्यक्तित्व है, इसकी अपनी विशेषताएँ है। इसकी यथार्थता को झुठलाया नहीं जा सकता है, यह एक जीवन्त सत्ता है। यह अनित्य तत्व नहीं है, चिरस्थायी है। कर्मवशात् परतन्त्र भले ही कह दें पर मूलतः आत्मा स्वतन्त्र है। आत्मा ज्ञायक है क्योंकि ज्ञान का व्यवसाय इसी की दुकान पर होता है। अनुभूति और संकल्प की क्षमता भी इसी में है, आनन्द स्वरूप भी यही है। सत्, चित और आनन्द का त्रिवेणी संगम इसी में ही है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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