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जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १७ झंखाड़ ! यह कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं है जीवन की, जीवन के आदर्श की।
पर आज कुछ ऐसा ही समय है कि अजिन के अनुयायी अधिक हैं, दुनिया में। जिधर देखो, उधर अक्सर अजिन ही दिखायी देंगे। सम्यक्त्वी और विद्यावान् नहीं, अपितु मिथ्यात्वी और अविद्यावान् ही दिखाई देंगे। आत्मवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, मोक्षवाद पर जोर देने वालों पर भी व्यवहार में चार्वाक के, अजिनत्व के बादल मंडराते दिखाई देते हैं। जिसकी दृष्टि सम्यक्तः अपने-आप में टिकी है, वह कभी कर्तव्य-विमूढ़ नहीं होता। यदि जिनत्व नहीं है, सम्यक्त्व नहीं है, तो व्यक्ति चाहे जितना तप कर ले, जीवन-भर तप कर ले, पर उसे बोधि-लाभ नहीं होगा। आलू छोड़ो, मूली छोड़ो सभी कहते हैं, पर क्रोध छोड़ो, मोह छोड़ो, वासना छोड़ो, संग्रह छोड़ो कौन कहता है, उसके लिए कौन कसम दिलाता है। दूसरों को क्या दिलाए, जब स्वयं के जीवन में क्रोध, मोह, संग्रह है। व्याख्यान देते जा रहे हैं आत्मवाद पर, और स्वयं जकड़े हैं भौतिकवाद में। मूल को पकड़ो। ____ ब्रह्मचर्य का नियम दिला दिया किसी को, पर नियम लेने मात्र से वासना की चिंगारियाँ बुझ गयीं ? माँस खाना छुड़ाने से क्या हिंसा के भाव छूट गये ? छुड़ाना हो तो हिंसा को छुड़ाओ, माँस अपने आप छूट जायेगा। छोड़ना है तो वासना को छोड़ो, मैथुन अपने-आप छूट जायेगा। साधना का सम्बन्ध भीतर से है। भीतर को निहारो अन्तर का घर सजाओ। यों ही तो होता है व्यक्ति स्वयं का स्वयं में। यही तो है जिनत्व, जीव का सम्यक्त्व। यों ही तो छूटता है अजिनत्व, जीव का मिथ्यात्व । सम्यग् दृष्टि ही जिन दृष्टि है, और जिन दृष्टि ही सम्यग् दृष्टि है। जिनत्व की सुगंध सम्यक्त्व के फूलों से ही उपजती है।
मैंने कहा, जिन दृष्टि ही सम्यग् दृष्टि है। देखा, जिन शब्द तो
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