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१६ / अमीरसधारा
सागर पाना है, तो पहले स्थित प्रज्ञ बनो, अपने आप में आ जाओ, अपने-अ - आप को जीत लो। जिन जीतता है, अजिन हारता है जीवन के रण में ।
अजिन का मतलब
समझते हैं आप ? अजिन का अर्थ है चमड़ा । अजिन स्थूल दृष्टि है । यह बाह्य दृष्टि है । चार्वाक दृष्टि है यह खाओ, पीओ, मौज उड़ावो की दृष्टि है। भौतिक और मिथ्यात्वी दृष्टि है । उमरखय्याम की दृष्टि है । यह वह दृष्टि है जिस पर लोकायत-दर्शन खड़ा है जिसके आदि प्रवर्तक चार्वाक - ऋषि थे । चार्वाकी दृष्टि स्थूल दृष्टि है, भीतर नहीं, केवल बाहर झाँकती हैं, ऊपर-ऊपर। ये सागर को ऊपर-ऊपर से देखते हैं, फलतः इन्हें सागर खारे पानी का भण्डार लगता है । ये लोग नहींजान पाते कि इस खारे जल में ही भरा पड़ा है, संसार भर का खजाना । जो लोग अजिन हैं, चार्वाकी हैं, भौतिक हैं, उनका मानना है कि
खाओ, पीयो, मौज उड़ावो,
ॠण करके भी घी पी
डालो ।
परोसा,
भोगलो ||
मत
ठुकराओ थाल आओ प्रेयसि ! भोग
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नहीं लौटकर फिर
बीता हुआ सुनहरा भस्मीभूत देह का पाना है शशशृंग, नभ - सुमन ।
अजिन कहते हैं, जो करना है, सो कर लो । जो भोगना है, सो भोग लो। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, शंकर, पतंजलि जिनत्व मार्ग के समर्थक हैं, अजिनत्व के नहीं । बात सही है । यदि आप ही सारा भोग लेंगे, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ेंगे, झाड और
आयेगा,
यौवन ।
फिर से,
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