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६६/अमीरसधारा से बार-बार लिपटती रहती है। आत्म-अनुभूति, आत्म-स्वीकृति और आत्मलीनता ही आत्मदर्शन की शैली है। यही कारण है कि इस शैली को अपनाने वाला पहले व्यवहारिक चिन्तन फिर शुद्ध वस्तुगत स्वतन्त्र आध्यात्मिक चिंतन में प्रवेश कर जाता है, जहाँ अपनी आत्म चेतना स्वयं दस्तक करती है और उसका अनुभव अपने आप ही हो जाता है। यहाँ आत्मगत और वस्तुगत दोनों से परे परमात्म भाव का अमृत झरना ब्रह्मनाद करता हुआ उसे निजानन्द रसलोन कर देता है।
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