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आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन/६५ वास्तव में आत्मा और शरीर का, जीव और परमाणुओं का, पुरुष और प्रकृति का एक अद्भुत संयोग है। जैसे पङ्गु आदमी को जंगल में लगी आग को देखते हुए भी दौड़ने-भागने में असमर्थ होने से जलने का डर है और अन्धे आदमी को दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जलने का डर है। मगर यदि दोनों के मिल जाने से, अन्धे के कन्धों पर पंगु के चढ़ जाने से अ ग से बचा जा सकता है। दोनों के संयोग से दौड़ने का भी सामर्थ्य आ गया और देखने का भी। बात सही है क्योंकि एक पहिये से रथ नहीं चलता। इस पंगु और अन्धे के न्याय से ही पुरुष और प्रकृति का संयोग ही संसार है। इनके विशिष्ट संयोग से ही हमारा व्यक्तित्व उत्पन्न हुआ।
यद्यपि सामान्य दृष्टि से दोनों में एकरूपता है, किन्तु सच यह है कि दोनों में मूलतः भिन्नता है। क्योंकि आत्मा चैतन्यमय है, शरीर जड़ है। दोनों का एकत्व और भिन्नत्व सापेक्ष है। आत्मा तथा शरीर में एकता इसलिए मान्य है क्योंकि इस मान्यता के बिना नैतिक आचरण असम्भव है। इन दोनों में भिन्नत्व मानना इसलिए आवश्यक है क्योंकि भिन्नत्व माने बिना अनासिक्त और भेद विज्ञान का आदर्श उपस्थित नहीं हो सकता, जीवन का रहस्य नहीं जाना जा सकता। शरीरावृत होने के कारण ही आत्मा को जीव की संज्ञा दी गई। हालांकि आत्मा और जीव एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं किन्तु दोनों में भेद रेखा है। जो आत्मा शरीर में है उसे जीव कहते हैं जब वह शरीर से अलग हो जाती है तब उसे आत्मा नाम दिया जाता है। शरीर अनित्य है इसलिए वह नष्ट हो जाता है किन्तु आत्मा नित्य है इसलिए वह अमरता की यादगार संजोए रहती है। ____ जो लोग आत्म-युक्त होते हुए भी आत्म दृष्टि नहीं रखते, आत्मा को नहीं मानते, आत्मस्थ और स्वस्थ होने के लिए कोशिश नहीं करते वे बिचारे भटके हुए हैं, दिशा भूले हुए हैं। उनकी आत्मा भौतिकता
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